राजपुरोहित

सच्ची साधुता से साधु बना राजपुरोहित

एक राजा को अपने राज्य के धार्मिक कार्यो हेतु एक राजपुरोहित की आवश्यकता थी।

चूंकि पहले वाले राजपुरोहित काफी बुजुर्ग होने के कारण अस्वस्थ रहे, फिर उनका अवसान हो गया, अत: राजपुरोहित का पद रिक्त था।

राजा ने विचार किया कि अत्यंत योग्य व्यक्ति को राजपुरोहित बनाना चाहिए, क्‍योंकि वह एक प्रकार से राज्य का आध्यात्मिक नेतृत्व करता है।

बहुत सोच-विचार करके राजा ने यह घोषणा की कि आज से एक महीने के पश्चात्‌ वह राज्य के समस्त आश्रमों का दौरा करेंगे, जिस साधु का आश्रम सबसे बड़ा होगा उसे राजपुरोहित के पद पर नियुक्त किया जाएगा।

यह घोषणा सुनकर सभी साधु अपने-अपने आश्रमों का विस्तार करने में जुट गए।

एक महीने के पश्चात्‌ राजा राज्य के आश्रमों का दौरा करने निकले।

वह कई आश्रमों में गए और उन्होंने देखा कि सबने अपने आश्रमों का भव्य विस्तार करने में कोई कसर नहीं छोडी।

उसके बाद वह एक आश्रम में गए तो उन्होंने देखा वह आश्रम अत्यंत छोटा-सा है।

राजा ने वहां रहने वाले साधु से पूछा- “महात्मन! क्‍या आपने हमारे द्वारा की गई घोषणा नहीं सुनी ?

” साधु बोला- “सुनी है राजन। राजा बोला- 'फिर आपने अपने आश्रम का विस्तार करके उसे बड़ा क्‍यों नहीं किया ?

”साधु बोला- “मेरा आश्रम तो अत्यंत विशाल है।' राजा ने हैरानी से पूछा- “वो कैसे ?

तब साधु बोला- राजन! यह संपूर्ण संसार मेरा आश्रम है।

मैं कहीं भी रहकर धर्म, शिक्षा और ज्ञान का प्रसार कर सकता हूं।

यह सुनकर राजा बहुत प्रभावित हुआ और उसने हाथ जोड़कर कहा- “महात्मन! इस राज्य को आपके आध्यात्मिक मार्गदर्शन की अत्यंत आवश्यकता है।

आपके आध्यात्मिक मार्गदर्शन से मेरे राज्य की प्रजा का कल्याण होगा।

कृप्या आप मेरे राज्य के राजपुरोहित का पद ग्रहण कर मुझे कृतार्थ करें।'

साधु ने राजा से कहा- “राजन! मैं चाहे जंगल में रहूं, पहाड़ों पर रहूं या आपके नगर में रहूं, मेरा केवल एक ही उद्देश्य है, अपने ज्ञान और शिक्षा से मानव को धर्म के रास्ते पर चलाए रखना।

आपका आदर भाव और प्रजा के कल्याण की भावना देखकर मैं इस पद को स्वीकार करता हूं।

' वस्तुत: समाज के कल्याण के लिए स्वयं को प्रत्येक स्तर पर समर्पित करना ही सच्ची साधुता है।