नारद मुनि ने किया ज्ञान का लोक विस्तार
नारद जी कलियुग का क्रम देखते हुए एक बार वृन्दावन पहुंचे।
उन्होंने एक स्थान पर देखा कि एक युवती के पास दो पुरुष मूच्छित पड़े हैं और युवती अत्यधिक दुखी है।
जब नारद जी उसके पास पहुंचे तो वह युवती रोने लगी।
नारद जी ने उसके दुख का कारण पूछा तो वह बोली- 'मैं भक्ति हूं! मेरे ये दो पुत्र ज्ञान और वैराग्य असमय ही वृद्ध हो गए हैं और मूर्च्छित पड़े हैं।
इनकी मूर्च्छा दूर करें।' नारद जी को उस पर दया आ गई ओर वह भगवान् से युवती का दुख दूर करने की प्रार्थना करने लगे।
तभी आकाशवाणी हुई- 'हे नारद! मात्र आपकी प्रार्थना से इनकी मूर्च्छा दूर नहीं होगी, संतों से परामर्श कर कुछ सत्कर्म करो, तो ज्ञान व वेराग्य प्रतिष्ठापित होंगे।'
नारद जी बद्री विशाल क्षेत्र में सनकादि मुनियों से मिले।
उन्होंने नारद जी की बात सुनकर कहा- ' आपकी भावना दिव्य है।
कलियुग के प्रभाव से मूच्छित ज्ञान-वैराग्य की मूर्च्छा दूर करने के लिए ज्ञान का लोक विस्तार ही एकमात्र ऐसा सत्कर्म है, जिसका प्रभाव निश्चित रूप से होगा।
ज्ञान के लोक विस्तार के लिए वेदों, शास्त्रों, धर्मग्रन्थों का उपयोग ठीक है।
अत: आप कथा के माध्यम से ज्ञान प्रसार करें।
वह निश्चित रूप से सफल होगा। वस्तुत: ज्ञान का लोक विस्तार ही सद्ज्ञान को सार्थक करता है।
कलियुग में ज्ञान-वैराग्य को जगाए रखने का एक ही साधन है और वह हे वेद, शास्त्रों, धर्मग्रन्थों के माध्यम से कही जाने वाली पवित्र कथाएं।