युद्र विजयी से महान् है आत्मविजयी
राजा नमि राजर्षि हो गए थे।
उनकी इच्छा थी कि राजपाट छोड़कर योग-साधना में लीन हो जाएं।
उनकी यह इच्छा जानकर एक देवदूत उनके पास आया और उन्हें राजा के कर्तव्यों का हवाला देकर कहने लगा- 'हे राजन, तुम्हें अपने महल की रक्षा के लिए मजबूत दरवाजे, बुर्न, खाई और तोपखाना आदि बनवाने के बाद साधु बनना चाहिए।
यह सुनकर नमि राजर्षि बोले- “हे देवपुरुष, मैंने एक नगर बनाया हे।
उसके चारों और श्रद्धा, तप, और संयम की दीवार बनाई है।
रक्षा के लिए मन, वचन ओर काया की एकरूपता की खाई भी बनाई है।
अतः संसार के दोष, छल-कपट, काम, क्रोध, माया, मोह और लोभ भी मेरी बनाई खाईयों को लांघकर मेरी आत्मा में प्रविष्ट नहीं हो सकते। मेरा पराक्रम ही मेरा धनुष है।
मैंने उसमें धैर्य की मूठ लगाई है साथ ही सत्य की प्रत्यंचा चढ़ाई है।
भौतिक संग्राम से अब मुझे क्या मतलब है ?
देवपुरुष ने फिर कहा- “राजा का कर्तव्य है कि युद्ध करके अन्य राज्यों को अपने अधिकार में ले।
आप यह कार्य करने के बाद साधु बनों।' नमि राजर्षि बोले- “बलवान उसे माना जाता है, जो अपने मन को जीत लेता है।
इसलिए दूसरों को अपने अधिकार में करने के बजाय मन को वश में करना अधिक श्रेयस्कर है।
साधु को शत्रुओं से लड़ने की जरूरत नहीं रहती। मैं भी ऋषि बन चुका हूं।
अत: मेरी बाहर की लड़ाई खत्म हो गई।
अब मैं मन के विकारों पर विजय प्राप्त करना चाहता हूं, जिनसे बाहर के शत्रु पैदा होते हैं।
वस्तुत: आत्मविजयी विश्वविजेता बन जाता है, क्योंकि इच्छाओं पर नियंत्रण होते ही व्यक्ति का अंतर समाप्त हो जाता है।