आज से तीन सदी पूर्व उपाध्याय यशोविजय के नाम से एक विख्यात पंडित हुए, जो अनेक विषयों के ज्ञाता और अत्यंत मेधावी थे।
उनकी विद्कत्ता इस बात से आंकी जा सकती है कि एक बार पंडितों द्वारा दिए गए किसी विषय पर वे घंटों धाराप्रवाह संस्कृत में बोलते रहे।
धीरे-धीरे अपने पांडित्य की सफलता का नशा भी उन पर हावी होने लगा।
व्याख्यान के समय सामने रखी जाने वाली स्थापना पर उनके कहे अनुसार शिष्य चार झंडियां लगाने लगे, जिसका आशय यह था कि चारों दिशाओं में उनका यश व्याप्त हो गया है।
विद्गत्ता और सफलता का यह प्रदर्शन उनके शिष्यों को ठीक नहीं लगा, किंतु उन्हें टोकने का साहस कोई नहीं कर पाया।
एक दिन एक शिष्य ने बड़ी चतुराई से उनसे कहा- “गुरुदेव! आपका पांडित्य धन्य है।
मैं बड़ा भाग्यवान हूं, जो आप जैसे महापुरुष के दर्शन हुए और मैं आपका ._ शिष्य बना।
आपके द्वारा शिक्षा पाकर मैं अत्यंत धन्य हुआ।
पंडित जी का सीना गर्व से चौड़ा हो गया।
फिर शिष्य ने पूछा- “एक प्रश्न कई दिनों से मेरे मन में उठ रहा है, आज साहस कर पूछ रहा हूं।
क्या गौतम स्वामी व सुधर्मा स्वामी भी आप जैसे विद्वान थे ?
पंडित जी बोले- “वे तो महान् विद्वान थे, मैं तो उनके चरणों की धूल भी नहीं हूं।
' तब शिष्य ने कहा- 'फिर तो वे भी अपनी स्थापना की चतुर्दिश ध्वजा लगाते होंगे।
' पंडित जी को तत्काल अपनी गलती का भान हुआ और उन्होंने वे ध्वजाएं तोड़कर फेंक दी।
अब उनका हृदय अंहकार से रहित हो गया। कथा का सार यह है कि ज्ञान का सात्विक आलोक तभी मुखर ओर सार्थक होता है, जब वह अभिमान से रहित हो।
अंहकाररहित ज्ञान ही सच्चा मार्गदर्शक होता हे।