महाभारत के युद्ध में कौरवों की ओर से परमवीर सुधन्वा अर्जुन से युद्ध कर रहे थे।
हार-जीत का फैसला न होते देख यह तय किया गया कि तीन बाणों में युद्ध का निर्णय होगा, या तो किसी का वध होगा, अन्यथा दोनों पक्ष युद्ध बंद कर पराजय स्वीकार करेंगे।
कृष्ण पांडवों की ओर थे, अत: उन्होंने अर्जुन की सहायता के लिए हाथ में जल लेकर संकल्प किया कि गोवर्धन उठाने और घप्रज की रक्षा करने का पुण्य मैं अर्जुन के बाण के साथ संयोजित करता हूं।
इससे अर्जुन का आग्नेयास्त्र और भी सशक्त हो गया।
आग्नेयास्त्र का सामना करने के लिए सुधन्वा ने संकल्प लिया कि एक पत्ती ब्रत पालने का मेरा पुण्य मेरे अस्त्र के साथ जुडे। दोनों बाण आकाश में टकराए।
सुधन्वा के बाण ने अर्जुन का अस्त्र काट दिया।
दूसरी बार अर्जुन को अपना पुण्य प्रदान करते हुए कृष्ण बोले कि गज को बचाने तथा द्रोपदी की लाज बचाने का पुण्य मैं अर्जुन के बाण के साथ जोड़ता हूं।
सुधन्वा ने उज्जवल चरित्र का पुण्य अपने अस्त्र में जोड़ा। अर्जुन का बाण पुनः कट गया।
तीसरी बार कृष्ण ने बार-बार अवतार लेकर धरती का भार उतारने का पुण्य अर्जुन के बाण के साथ जोडा।
तो सुधन्वा ने संकल्प किया कि मेरे परमार्थ का पुण्य मेरे अस्त्र में जुडे। सुधन्वा का बाण फिर विजयी हुआ।
अर्जुन ने पराजय मानी और कृष्ण ने सुधन्वा से कहा- 'हे सद्गृहस्थ! तुमने सिद्ध कर दिया कि कर्तव्यपरायण गृहस्थ किसी तपस्वी से कम नहीं होता।
' वस्तुतः भाग्यवश जो भी भूमिका मिले, उसका ईमानदारी से निर्वाह अपार पुण्यों का सृजन करता है।