साध्वी महालक्ष्मी सुबह बगीचे में जाकर कबूतरों को दाना खिलाती थी।
यह उनका प्रतिदिन का नियम था।
शेष समय वह अध्ययन और आध्यात्मिक चर्चा में व्यतीत करती थी।
साध्वी महालक्ष्मी जिस बगीचे में जाकर कबूतरों को दाना चुगाती थी वहां पर कई नौजवान युवक सुबह टहलने आते थे।
एक दिन साध्वी महालक्ष्मी सुबह बगीचे में कबूतरों को दाना चुगा रही थी और नौजवान युवक इधर-उधर टहल रहे थे।
साध्वी ने कुछ सोचा और अचानक जोर-जोर से हंसने लगी। सभी युवक हंसी सुनकर साध्वी के पास पहुंच गए और हंसने का कारण पूछने लगे।
साध्वी बोली- “मैं इसलिए हंसी कि जिस धरती पर तुम जैसे सजीले, सुंदर और बलिष्ठ नौजवान हों, वह धरती कितनी भाग्यशाली है।
मेरी हंसी वास्तव में ईश्वर के प्रति आभार है।' युवक यह सुनकर बहुत खुश हुए।
साध्वी फिर से कबूतरों को दाना चुगाने में व्यस्त हो गई।
फिर अचानक थोडी देर बाद वह जोर-जोर से रोने लगी। उनका रोना देख सारे युवक बेचेन हो गए और उनसे रोने का कारण पूछने लगे।
साध्वी ने कहा- 'पहले तो मैं यह देखकर हंसी थी कि धरती पर कितने युवा हैं, लेकिन अब मैं रोई तो इसलिए कि सारे युवा सेवा की भावना से दूर हैं।
यदि युवा अपनी शक्ति का उपयोग सृजनात्मक कार्यो के साथ सेवा में करे, तो जगत् का कल्याण हो जाएगा।
पर ऐसा न होते देखकर मेरे आंसू निकल आए।* युवकों ने अपनी भूल स्वीकारी।
साध्वी ने उन्हें प्रेरित किया कि यदि उनसे कोई बड़ी सेवा न हो सके, तो वे प्यासे को पानी, परिंदों को दाना और मीठी बोली बोलकर ही सुकून पहुंचाएं।
वस्तुत: युवावस्था की उर्जा को सदकार्यों में लगाना आत्मिक शांति का वाहक तो बनता ही है, समाज को सकारात्मक परिणाम देकर उसकी उन्नति का मार्ग भी खोलता हे।