एक हरे-भरे पेड़ पर बहुत सुंदर फूल और फल लगते थे।
उसकी सुंदरता और संपन्नता के कारण बहुत सारे पक्षी उस वृक्ष पर घोंसला बनाकर रहते थे।
वृक्ष भी खुशी-खुशी उन्हें आश्रय और भोजन देता था।
आते-जाते मुसाफिरों को वह शीतल छाया देता, जिसमें दो घड़ी रुककर वे अपनी थकान दूर कर लेते थे।
पेड़ के आसपास हमेशा रौनक लगी रहती थी और पेड़ को भी सभी की मदद करके खुशी भरा एहसास होता था।
समय गुजरने के साथ-साथ पेड़ पर नए प्ते और फल-फूल आने कम हो गए।
ऐसा होने पर पक्षियों ने पेड पर आना बंद कर दिया। उन्हें लगा कि पेड़ पर अब हरियाली नहीं है और शाखाएं भी सूख गई हैं।
छाया न रहने पर मुसाफिरों ने भी वहां रुकना बंद कर दिया। पेड़ दुखी हो गया।
वह सोचता कि उम्रभर मैं सभी की मदद करता रहा, किंतु अब शायद मेरी मृत्यु का वक्त नजदीक आ गया है, अब मैं किसी के काम न आ सकूंगा।
एक दिन एक संत उधर से गुजरे। वे सिद्धिप्राप्त थे।
उन्हें पेड़ के दुख का एहसास हुआ।
उनके द्वारा पूछने पर पेड़ ने अपनी पीड़ा बयान की - 'आजीवन मुझसे पशु, पक्षी ओर मनुष्य लाभान्वित हुए, किन्तु अब मैं किसी के काम का नहीं रहा।
कुछ लोग तो मुझे काटने की बात कर रहे हैं।' तब संत बोले- “तुम अपने सोचने का नजरिया बदल लो।
जीवनभर सभी को सहायता करने वाले तुम कट जाने के बाद भी लकड़ी के रूप में अनेक कार्यों में काम आओगे।
' यह नई बात सोचकर पेड़ खुश हो गया और मन की इस खुशी से उसके तन पर पुनः हरियाली आ गई और उसकी रौनक पूर्ववत हो गई।
कथा का सार यह है कि यदि सोचने का नजरिया बदल लिया जाए, तो न केवल समस्या निराकृत होती है, बल्कि कई बार प्रतिकूलता अनुकूलता में बदल जाती है।