एक दिन शाही महल और किले में सजावट हो रही थी।
अरब और फारस की खाड़ी से लोग आए हुए थे।
अरब के लोगों में भी बीरबल की बुद्धिमानी की चर्चा थी।
उन लोगों में से किसी ने कहा, 'यहाँ पर न अकबर है, न बीरबल। मेजबान कौन है ?
'मैं आ गया हूँ।' आते-आते बीरबल ने कहा।
बीरबल को वे लोग ऐसे देख रहे थे जैसे किसी अजूबे को देख रहे हों।
बहुत तो उनमें ऐसे थे, जो बीरबल को ही देखने आए थे।
बीरबल अब उन्हीं लोगों के बीच बैठा था। सभी लोग बादशाह का इंतजार कर रहे थे।
बहुत देर हो गई फिर भी बादशाह नहीं आए।
थोड़ी देर बाद एक आदमी आया और उसने खबर दी कि जहाँपनाह की माँ का देहांत हो गया है।
ही देर बीती थी कि किसी ने आकर बताया- बादशाह
सलामत के घर बच्चे ने जन्म लिया है। अब वहाँ एक समस्या खड़ी हुई। हँसें या रोएँ। सब सोच में डूब गए।
अंत में बीरबल ने कहा, 'सोचने की बात कुछ नहीं।
बादशाह आएँगे ही। अगर वे हँसते हुए आए तो सब हँसेंगे, यदि रोते हुए आए तो सब रोने लगेंगे। जैसा वे करेंगे, वैसा ही हम भी करेंगे।'
समस्या का समाधान हो गया था। सब मिलकर बीरबल की प्रशंसा कर रहे थे।