बहुतों से वैर न करो

बहवो न विरोद्धव्या दुर्जया हि महाजनः।

बहुतों के साथ विरोध न करें।

एक वल्मीक में बहुत बड़ा काला नाग रहता था।

अभिमानी होने के कारण उसका नाम था अतिदर्प।

एक दिन वह अपने बिल को छोड़कर एक और संकीर्ण बिल से बाहर जाने का यत्न करने लगा।

इससे उसका शरीर कई स्थानों से छिल गया। जगह-जगह घाव हो गए, खून निकलने लगा।

खून की गन्ध पाकर चींटियाँ आ गईं और उसे घेरकर तंग करने लगीं।

साँप ने कई चींटियों को मारा। किन्तु कहाँ तक मारता।

अन्त में चींटियों ने ही उसे काट-काटकर मार दिया।

स्थिरजीवी ने कहा-इसीलिए मैं कहता हूँ, बहुतों से विरोध न करो।

मेघवर्ण-आप जैसा आदेश करेंगे, वैसा ही करूँगा। स्थिरजीवी-अच्छी बात है।

मैं स्वयं गुप्तचर का काम करूँगा। तुम मुझसे लड़कर, मुझे लहू-लुहान करने के बाद इसी वृक्ष के नीचे फेंककर स्वयं सपरिवार ऋष्यमूक पर्वत पर चले जाओ।

मैं तुम्हारे शत्रु उल्लुओं का विश्वासपात्र बनकर उन्हें इस वृक्ष पर बने अपने दुर्ग में बसा लूँगा।

और अवसर पाकर उन सबका नाश कर दूंगा।

तब तुम फिर यहाँ आ जाना।

मेघवर्ण ने ऐसा ही किया। थोड़ी देर में दोनों की लड़ाई शुरू हो गई। दूसरे कौवे जब उसकी सहायता को आए तो उन्हें दूर करके कहा-इसको मैं स्वयं दण्ड दे लूँगा।

अपनी चोंचों के प्रहार से घायल करके वह स्थिरजीवी को वहीं फेंकने के बाद अपने-आप परिवार सहित ऋष्यमूक पर्वत पर चला गया।

तब उल्लू की मित्र कृकालिका ने मेघवर्ण के भागने और अमात्य स्थिरजीवी से लड़ाई होने की बात उलूकराज से कह दी।

उलकराज ने भी रात आने पर दल-बल समेत पीपल के वृक्ष पर आक्रमण कर दिया।

उसने सोचा-भागते हुए शत्रु को नष्ट करना अधिक सहज होता है।

पीपल के वृक्ष को घेरकर उसने शेष रह गए सभी कौवों को मार दिया।

अभी उलूकराज की सेना भागे हुए कौवों को पीछा करने की सोच ही रही थी कि आहत स्थिरजीवी ने कराहना शुरू कर दिया।

उसे सुनकर सबका ध्यान उसकी ओर गया। सब उल्लू उसे मारने झपटे।

तब स्थिरजीवी ने कहा-इससे पूर्व कि तुम मुझे जान से मार डालो, मेरी एक बात सुन लो। मैं मेघवर्ण का मन्त्री हूँ।

मेघवर्ण ने ही मुझे घायल करके इस तरह फेंक दिया था।

मैं तुम्हारे राजा से बहुत-सी बातें कहना चाहता हूँ। उससे मेरी भेंट करवा दो।

सब उल्लुओं ने उलूकराज से यह बात कही।

उलूकराज स्वयं वहाँ आया; स्थिरजीवी को देखकर वह आश्चर्य से बोला-तेरी यह दशा किसने कर दी ?

स्थिरजीवी-देव! बात यह हुई कि दुष्ट मेघवर्ण आपके ऊपर सेनासहित आक्रमण करना चाहता था।

मैंने उसे रोकते हुए कहा कि वे बहुत बलशाली है; उनसे युद्ध मत करो, उनसे सुलह कर लो।

बलशाली शत्रु से सन्धि करना

ही उचित है; उसे सब कुछ देकर भी वह अपने प्राणों की रक्षा तो कर ही लेता है।

मेरी बात सुनकर वह दुष्ट मेघवर्ण ने समझा कि मैं आपका हितचिंतक हूँ।

इसीलिए वह मुझपर झपट पड़ा। अब आप ही मेरे स्वामी हैं। मैं आपकी शरण आया हूँ।

जब मेरे घाव भर जाएँगे तो मैं स्वयं आपके साथ जाकर मेघवर्ण की खोज निकालूँगा और उसके सर्वनाश में आपका सहायक बनूँगा।

स्थिरजीवी की बात सुनकर उलूकराज ने अपने सभी पुराने मन्त्रियों से सलाह ली।

उसके पास भी पाँच मन्त्री थे। रक्ताक्ष, क्रूराक्ष, दीप्ताक्ष, वक्रनास, प्राकारकर्ण।

पहले उसने रक्ताक्ष से पूछा-इस शरणागत शत्रु-मन्त्री के साथ कौन-सा व्यवहार किया जाए ?

रक्ताक्ष ने कहा कि इसे अविलम्ब मार दिया जाए।

शत्रु को निर्बल अवस्था में ही मार देना चाहिए, अन्यथा बली होने के बाद वही दुर्जेय हो रहा है।

इसके अतिरिक्त एक और बात है; एक बार टूटकर जुड़ी हुई प्रीति स्नेह के अतिशय प्रदर्शन से भी बढ़ नहीं सकती।

उलूकराज ने पूछा-वह कैसे ? रक्ताक्ष ने तब ब्राह्मण और साँप की यह कथा सुनाई :