शरणागत के लिए आत्मोत्सर्ग

प्राणैरपि त्वया नित्यं संरक्ष्यः शरणागतः।

शरणागत शत्रु का अतिथि के समान सत्कार करो, प्राण देकर भी उसकी तृप्ति करो।

एक जगह एक लोभी और निर्दय व्याध रहता था।

पक्षियों को मारकर खाना ही उसका काम था। इस भयंकर काम के कारण उसके प्रियजनों ने भी उसका त्याग कर दिया था।

तब से वह अकेला ही हाथ में जाल और लाठी लेकर जंगलों में पक्षियों के शिकार के लिए घूमा करता था।

उस खोल में वही कबूतर रहता था, जिसकी पत्नी को व्याध ने जाल में फँसाया था।

कबूतर उस समय पत्नी के वियोग से दुःखी होकर विलाप कर रहा था।

प्रति को प्रेमातुर पाकर कबूतरी का मन आनन्द से नाच उठा।

उसने मन ही मन सोचा, मेरे धन्य भाग्य हैं जो ऐसा प्रेमी पति मिला है।

पति का प्रेम ही पत्नी का जीवन है। पति की प्रसन्नता से ही स्त्री-जीवन सफल होता है।

मेरा जीवन सफल हुआ। यह विचारकर वह पति से बोलीः

पतिदेव! मैं तुम्हारे सामने हूँ।

इस व्याध ने मुझे बाँध लिया है। यह मेरे पुराने कर्मों का फल है।

हम अपने कर्म-फल से ही दुःख भोगते हैं। मेरे बन्धन का चिन्ता छोड़कर तुम इस समय अपने शरणागत अतिथि की सेवा करो।

जो जीव अपने अतिथि का सत्कार नहीं करता।

उसके सब पुण्य छूटकर अतिथि के साथ चले जाते हैं और सब पाप वहीं रह जाते हैं ।

पत्नी की बात सुनकर कबूतर ने व्याध से कहा-चिन्ता न करो वधिक!

इस घर को भी अपना ही जानो। कहो, मैं तुम्हारी कौन-सी सेवा कर सकता हूँ ?

व्याध-मुझे सर्दी सता रही है, इसका उपाय कर दो

कबूतर ने लकड़ियाँ इकट्ठी करके जला दी और कहा-तुम आग सेंककर सर्दी दूर कर लो।

कबूतर को अब अतिथि-सेवा के लिए भोजन की चिन्ता हुई।

किन्तु उसके घोंसले में तो अन्न का एक दाना भी नहीं था। बहुत सोचने के बाद उसने अपने शरीर से ही व्याध की भूख मिटाने का विचार किया।

यह सोचकर वह महात्मा कबूतर स्वयं जलती आग में कूद पड़ा।

अपने शरीर का बलिदान करके भी उसने व्याध के तर्पण करने का प्रण पूरा किया।

व्याध ने जब कबूतर का यह अद्भुत बलिदान देखा तो आश्चर्य में डूब गया।

उसकी आत्मा उसे धिक्कारने लगी।

उसी क्षण उसने कबूतरी को जाल से निकाल कर मुक्त कर दिया और पक्षियों को फँसाने के जाल व अन्य उपकरणों को तोड़-फोड़कर फेंक दिया।

कबूतरी अपने पति को आग में जलता देखकर विलाप करने लगी।

उसने सोचा-अपने पति के बिना अब मेरे जीवन का प्रयोजन ही क्या है ?

मेरा संसार उजड़ गया, अब किसके लिए प्राण धारण करूँ ?-यह सोचकर वह पतिव्रता भी आग में कूद पड़ी।

इन दोनों के बलिदान पर आकाश से पुष्पवर्षा हुई। व्याध ने भी उस दिन से प्राणी-हिंसा छोड़ दी।

क्रूराक्ष के बाद अरिमर्दन ने दीप्ताक्ष से प्रश्न किया।

दीप्ताक्ष ने भी यही सम्मति दी।

इसके बाद अरिमर्दन ने वक्रनास से प्रश्न किया।

वक्रनास ने भी कहा-देव! हमें इस शरणागत शत्रु की हत्या नहीं करनी चाहिए। कई बार शत्रु भी हित का कार्य कर देते हैं।

आपस में ही जब उनका विवाद हो जाए तो एक शत्रु दूसरे शत्रु को स्वयं नष्ट कर देता है।

इसी तरह एक बार चोर ने ब्राह्मण के प्राण बचाए थे, और राक्षस ने चोरों के हाथों ब्राह्मण के बैलों की चोरी को बचाया था। अरिमर्दन ने पूछा-किस तरह ?

वक्रनास ने तब चोर और राक्षस की यह कहानी सुनाई :