घर का भेद

परस्परस्य मर्माणि ये न रक्षन्ति जन्तवः। त एवे निधनं यान्ति वल्मीकोदरसर्पवत्।

एक दूसरे का भेद खोलने वाले नष्ट हो जाते हैं।

एक नगर में देवशक्ति नाम का राजा रहता था।

उसके पुत्र के पेट में एक साँप चल गया था।

उस साँप ने वहीं अपना बिल बना लिया था।

पेट में बैठे साँप के कारण उसके शरीर का प्रतिदिन क्षय होता जा रहा था।

बहुत उपचार करने के बाद भी जब स्वास्थ्य में कोई सुधार न हुआ तो अत्यन्त निराश होकर राजपुत्र अपने राज्य से बहुत दूर दूसरे प्रदेश में चला गया और वहाँ सामान्य भिखारी की तरह मन्दिर में रहने लगा।

उस प्रदेश के राजा बलि की दो नौजवान लड़कियाँ थीं।

वे दोनों प्रतिदिन सुबह अपने पिता को प्रणाम करने आती थीं उनमें से एक राजा को नमस्कार करती हुई कहती थी-महाराज! जय हो।

आपकी कृपा से ही संसार के सुख हैं। दूसरी कहती थी।

महाराज! ईश्वर आपके कर्मों को फल दे। दूसरी के वचन को सुनकर महाराज क्रोधित हो जाता था।

एक दिन इस क्रोधावेश में उसने मन्त्री को बुलाकर आज्ञा दी-मन्त्री!

इस कटु बोलने वाली लड़की को किसी गरीब परदेशी के हाथों में दे दो, जिससे यह अपने कर्मों का फल स्वयं चखे।

मन्त्रियों ने राजाज्ञा से उस लड़की का विवाह मन्दिर में सामान्य भिखारी की तरह ठहरे हुए परदेशी राजपुत्र के साथ कर दिया।

राजकुमारी ने उसे ही अपना पति मानकर सेवा की।

दोनों ने उस देश को छोड़ दिया।

थोड़ी दूर जाने पर वे एक तालाब के किनारे ठहरे।

वहाँ राजपुत्र को छोड़कर उसकी पत्नी पास के गाँव से घी-तेल अन्न आदि सौदा लेने गई।

सौदा लेकर जब वह वापस आ रही थी तब उसने देखा कि उसका पति तालाब में कुछ दूरी पर एक साँप के बिल के पास सो रहा है।

उसके मुख से एक फनियल साँप बाहर निकलकर हवा खा रहा था।

एक दूसरा साँप भी अपने बिल से निकलकर फन फैलाए वहीं बैठा था।

दोनों में बातचीत हो रही थी।

बिल वाला साँप पेट वाले साँप से कह रहा था-दुष्ट! तू इतने सर्वांग सुन्दर राजकुमार का जीवन क्यों नष्ट कर रहा है ?

पेट वाला साँप बोला-तू भी तो इस बिल में पड़े स्वर्ण कलश को दूषित कर रहा है।

बिल वाला साँप बोला-तो क्या तू समझता है कि तुझे पेट से निकालने की दवा किसी को भी मालूम नहीं ?

कोई भी व्यक्ति राजकुमार को उबली हुई राई की काँजी पिलाकर तुझे मार सकता है।

पेट वाला साँप बोला-तुझे भी तो तेरे बिल में गरम तेल डालकर कोई भी मार सकता है।

इस तरह दोनों ने एक-दूसरे का भेद खोल दिया। राजकन्या ने दोनों की बातें सुन ली थीं।

उसने उनकी बताई विधियों से ही दोनों का नाश कर दिया।

उसका पति भी नीरोग हो गया; और बिल में से स्वर्ण-भरा कलश पाकर उनकी गरीबी भी दूर हो गई।

तब, दोनों अपने देश को चल दिए।

राजपुत्र के माता-पिता ने उनका स्वागत किया।

अरिमर्दन ने भी प्राकारकर्ण की बात का समर्थन करते हुए यही निश्चय किया कि स्थिरजीवी की हत्या न की जाए।

रक्ताक्ष का उलूकराज के इस निश्चय से गहरा मतभेद था। वह स्थिरजीवी की मृत्यु में ही उल्लुओं का हित देखता था।

अतः उसने अपनी सम्मति प्रकट करते हुए अन्य मन्त्रियों से कहा कि तुम अपनी मूर्खता से उलूकवंश का नाश कर दोगे।

किन्तु रक्ताक्ष की बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया।

उलूकराज के सैनिकों ने स्थिरजीवी कौवे को शय्या पर लिटाकर अपने पर्वतीय दुर्ग की ओर कूच कर दिया।

दुर्ग के पास पहुँच स्थिरजीवी ने उलूकराज से निवेदन किया-महाराजा! मुझपर इतनी कृपा क्यों करते हो ?

मैं इस योग्य नहीं हूँ। अच्छा हो, आप मुझे आग में डाल दें।

उलूकराज ने कहा-ऐसा क्यों कहते हो ?

स्थिरजीवी-स्वामी! आग में जलकर मेरे पापों का प्रायश्चित्त हो जाएगा।

मैं चाहता हूँ कि मेरा वायसत्व आग में नष्ट हो जाए और मुझमें उलूकत्व आ जाए, तभी मैं उस पापी मेघवर्ण से बदला ले सकूँगा।

रक्ताक्ष स्थिरजीवी की इन पाखण्ड-भरी चालों को खूब समझ रहा था।

उसने कहा-स्थिरजीवी! तू बड़ा चतुर और कुटिल है। मैं जानता हूँ कि उल्लू बनकर भी तू कौवों का ही हित सोचेगा।

तुझे भी चुहिया की तरह अपने वंश से प्रेम है, जिसने सूर्य, चन्द्र, पवन, पर्वत आदि वरों को छोड़कर एक चूहे का ही वरण किया था।

मन्त्रियों ने रक्ताक्ष से पूछा-वह किस तरह ?

रक्ताक्ष ने चुहिया के स्वयंवर की कथा सुनाई।