मित्र की शिक्षा मानो

यस्य नाऽस्ति स्वयं प्रज्ञा मित्रोक्तं न करोति यः।


स एव निधनं याति यथा मन्थरकौलिकः॥

मित्र की बात सुनो, पत्नी की नहीं।

एक बार मन्थरक नाम के जुलाहे के सब उपकरण, जो कपड़ा बुनने के काम आते थे, टूट गए।

उपकरणों को फिर बनाने के लिए लकड़ी की ज़रूरत थी।

लकड़ी काटने की कुल्हाड़ी लेकर वह समुद्र-तट पर स्थित वन की ओर चल दिया।

समुद्र के किनारे पहुँचकर उसने एक वृक्ष देखा और सोचा कि इसकी लकड़ी से उसके सब उपकरण बन जाएँगे : यह सोचकर वृक्ष के तने में वह कुल्हाड़ी मारने को ही था कि वृक्ष की शाखा पर बैठे हुए एक देव ने उसे कहा-मैं वृक्ष पर सुख से रहता हूँ, और समुद्र की शीतल हवा का आनन्द लेता हूँ!

तुम्हें इस वृक्ष को काटना उचित नहीं।

दूसरे के सुख को छीनने वाला कभी सुखी नहीं होता।

जुलाहे ने कहा-मैं भी लाचार हूँ। लकड़ी के बिना मेरे उपकरण नहीं बनेंगे, कपड़ा नहीं बुना जाएगा, जिससे मेरे कुटुम्बी भूखे मर जाएँगे।

इसलिए अच्छा यही है कि तुम किसी और वृक्ष का आश्रय लो, मैं इस वृक्ष की शाखाएँ काटने को विवश हूँ।

देव ने कहा-मन्थरक! मैं तुम्हारे उत्तर से प्रसन्न हूँ।

तुम कोई भी एक पर माँग लो, मैं उसे पूरा करूँगा, केवल इस वृक्ष को मत काटो।

मन्थरक बोला-यदि यही बात है तो मुझे कुछ देर का अवकाश दो।

मैं अभी घर जाकर अपनी पत्नी से और मित्र से सलाह करके तुमसे वर मागूंगा।

देव ने कहा-मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगा।

गाँव में पहुँचने के बाद मन्थरक की भेंट अपने एक मित्र नाई से हो गई।

उसने उससे पूछा-मित्र! एक देव मुझे वरदान दे रहा है, मैं तुमसे पूछने आया हूँ कि कौन-सा वरदान माँगा जाए ?

नाई ने कहा-यदि ऐसा है तो राज्य माँग ले । मैं तेरा मन्त्री बन जाऊँगा, हम सुख से रहेंगे।

तब, मन्थरक ने अपनी पत्नी से सलाह लेने के बाद वरदान का निश्चय लेने की बात नाई से कही।

नाई ने स्त्रियों के साथ ऐसी मन्त्रणा करना नीति-विरुद्ध बतलाया। उसने सम्मति दी कि स्त्रियाँ प्रायः स्वार्थ-परायण होती हैं।

अपने सुख-साधन के अतिरिक्त उन्हें कुछ भी सूझ नहीं सकता।

अपने पुत्र को भी जब वे प्यार करती हैं, तो भविष्य में उसके द्वार सुख की कामनाओं से ही करती हैं

मन्थरक ने फिर भी पत्नी से सलाह लिए बिना कुछ भी न करने का विचार प्रकट किया।

घर पहुँचकर वह पत्नी से बोला-आज मुझे एक देव मिला है। वह एक वरदान देने को उद्यत है।

नाई की सलाह है कि राज्य माँग लिया जाए। तू बता कि कौन-सी चीज़ माँगी जाए ?

पत्नी ने उत्तर दिया-राज्य-शासन का काम बहुत कष्टप्रद है। सन्धि-विग्रह आदि से ही राजा को अवकाश नहीं मिलता।

राजमुकुट प्रायः काँटों का ताज होता है।

ऐसे राज्य से क्या अभिप्राय जो सुख न दे!

मन्थरक ने कहा-प्रिय! तुम्हारी बात सच है, राजा राम को और राजा नल को भी राज्य-प्राप्ति के बाद कोई सुख नहीं मिला था।

हमें भी कैसे मिल सकता है ? किन्तु प्रश्न यह है कि राज्य न माँगा जाए।

मन्थर की पत्नी ने उत्तर दिया-तुम अकेले दो हाथों से जितना कपड़ा बुनते हो उसमें भी हमारा व्यय पूरा हो जाता है।

यदि तुम्हारे हाथ दो की जगह चार हों और सिर भी एक की जगह दो हों तो कितना अच्छा हो।

तब हमारे पास आज की अपेक्षा दुगुना कपड़ा हो जाएगा।

इससे समाज में हमारा मान बढ़ेगा।

मन्थरक को पत्नी की बात जंच गई।

समुद्र-तट पर जाकर वह देव से बोला-यदि आप वर देना ही चाहते हैं तो यह वर दें कि मैं चार हाथ और दो सिरवाला हो जाऊँ।

मन्थरक के कहने के साथ ही उसका मनोरथ पूरा हो गया।

उसके दो सिर और चार हाथ हो गए। किन्तु इस बदली हालत में वह गाँव में आया तो लोगों ने उसे राक्षस समझ लिया और राक्षस-राक्षस कहकर सब उस पर टूट पड़े।

चक्रधर ने कहा-बात तो सच है। पत्नी की सलाह न मानता, और मित्र की ही मानता, तो उसकी जान बच जाती।

सभी लोग आशा-रूपी पिशाचिनों से दबे हुए ऐसे काम कर जाते हैं, जो जगत् में हास्यास्पद होते हैं; जैसे सोमशर्मा के पिता ने किया था।

स्वर्णसिद्धि-किस तरह ? तब चक्रधर ने यह कहानी सुनाई :