लोभ बुद्धि पर पर्दा डाल देता है

यो लौल्यात् कुरुते कर्म, नैवोदकमवेक्षते।
विडम्बनामवाप्नोति स, यथा चन्द्रभूपति॥

बिना परिणाम सोचे चंचल वृत्ति से काम आरम्भ करनेवाला अपनी जग-हँसाई कराता है।

एक नगर के राजा चन्द्र के पुत्रों को बन्दरों से खेलने का व्यसन था।

बन्दरों का सरदार भी बड़ा चतुर था।

वह सब बन्दरों को नीतिशास्त्र पढ़ाया करता था।

सब बन्दर उसकी आज्ञा का पालन करते थे।

राजपुत्र भी उस बन्दरों के सरदार वानरराज को बहुत मानते थे।

उसी नगर के राजगृह में छोटे राजपुत्र के वाहन के लिए कई मेढ़े भी थे।

उनमें से एक मेढ़ा बहुत लोभी था।

वह जब जी चाहे तब रसोई में घुसकर सब कुछ खा लेता था।

रसोइए उसे लकड़ी से मारकर बाहर निकाल देते थे।

वानरराज ने जब यह कलह देखा तो वह चिन्तित हो गया।

उसने सोचा, यह कलह किसी दिन सारे बन्दर-समाज के नाश का कारण हो जाएगा।

कारण यह कि जिस दिन नौकर इस मेढ़े को जलती लकड़ी से मारेगा, उसी दिन यह मेढ़ा घुड़साल में घुसकर आग लगा देगा।

इससे कई घोड़े जल जाएँगे।

जलने के घावों को भरने के लिए बन्दरों की चर्बी की माँग पैदा होगी।

तब, हम सब मारे जाएँगे।

इतनी दूर की बात सोचने के बाद उसने बन्दरों को सलाह दी कि वे अभी से राजगृह का त्याग कर दें।

किन्तु उस समय बन्दरों ने उसकी बात नहीं सुनी।

राजगृह में उन्हें मीठे-मीठे फल मिलते थे। उन्हें छोड़कर वे कैसे जाते!

उन्होंने वानरराज से कहा कि बुढ़ापे के कारण तुम्हारी बुद्धि मन्द पड़ गई है।

हम राजपुत्र के प्रेम-व्यवहार और अमृत-समान मीठे फलों को छोड़कर जंगल में नहीं जाएँगे।

वानरराज ने आँखों में आँसू भरकर कहा-मूर्यो! तुम इस लोभ का परिणाम नहीं जानते।

यह सुख तुम्हें बहुत महंगा पड़ेगा! यह कहकर वानरराज स्वयं राजगृह छोड़कर वन में चला गया।

उसके जाने के बाद एक दिन वही बात हो गई जिससे वानरराज ने वानरों को सावधान किया था।

वह लोभी मेढ़ा जब रसोई में गया तो नौकर ने जलती लकड़ी उसपर फेंकी।

मेढ़े के बाल जलने लगे। वहाँ से भागकर वह अश्वशाला में घुस गया।

उसकी चिनगारियों से अश्वशाला भी जल गई। कुछ घोड़े आग से जलकर वहीं मर गए।

कुछ रस्सी तुड़ाकर शाला से भाग गए।

तब राजा ने पशुचिकित्सा में कुशल वैद्यों को बुलाया और उन्हें आग से जले घोड़ों की चिकित्सा करने के लिए कहा।

वैद्यों ने आयुर्वेदशास्त्र देखकर सलाह दी कि जले घावों पर बन्दरों की चर्बी की मरहम बनाकर लगाई जाए।

राजा ने मरहम बनाने के लिए सब बन्दरों को मारने की आज्ञा दी।

सिपाहियों ने सब बन्दरों को पकड़कर लाठियों और पत्थरों से मार दिया।

वानरराज को जब अपने वंश-क्षय का समाचार मिला तो वह बहुत दुःखी हुआ।

उसके मन में राजा से बदला लेने की आग भड़क उठी।

दिन-रात वह इसी चिन्ता में घुलने लगा। आख़िर उसे एक वन में ऐसा तालाब मिला जिसके किनारे मनुष्यों के पदचिन्ह थे।

उन चिन्हों से मालूम होता था कि इस तालाब में जितने मनुष्य गए, सब मर गए; कोई वापस नहीं आया।

वह समझ गया कि यहाँ अवश्य कोई नरभक्षी मगरमच्छ है।

उसका पता लगाने के लिए उसने एक उपाय किया।

कमल-नाल लेकर उसका एक सिरा उसने तालाब में डाला और दूसरे सिरे को मुख में लगाकर पानी-पानी शुरू कर दिया।

थोड़ी देर में उसके सामने ही तालाब में से एक कण्ठहार धारण किए

हुए मगरमच्छ निकला।

उसने कहा-इस तालाब में पानी पीने के लिए आकर कोई वापस नहीं गया, तूने कमल-नाल द्वारा पानी पीने का उपाय करके विलक्षण बुद्धि का परिचय दिया है।

मैं तेरी प्रतिभा पर प्रसन्न हूँ। जो वर माँगेगा, मैं दूंगा। कोई-सा एक वर माँग ले।

वानरराज ने पूछा-मगरराज! तुम्हारी भक्षण-शक्ति कितनी है ?

मगरराज-जल में मैं सैकड़ों, सहस्रों पशु या मनुष्यों को खा सकता हूँ, भूमि पर एक गीदड़ भी नहीं।

वानरराज-एक राजा से मेरा वैर है।

यदि तुम यह कण्ठहार मुझे दे दो तो मैं उसके सारे परिवार को तालाब में लाकर तुम्हारा भोजन बना सकता हूँ।

मगरराज ने कण्ठहार दे दिया। वानरराज कण्ठहार पहनकर राजा के महल में चला गया।

उस कण्ठहार की चमकदमक से सारा राजमहल जगमगा उठा।

राजा ने जब वह कण्ठहार देखा तो पूछा-वानरराज! यह कण्ठहार तुम्हें कहाँ मिला ?

वानरराज-राजन्, यहाँ से दूर वन में एक तालाब है वहाँ रविवार के दिन सुबह के समय जो गोता लगाएगा उसे यह कण्ठहार मिल जाएगा।

राजा ने इच्छा प्रकट की कि वह भी समस्त परिवार तथा दरबारियों समेत उस तालाब में जाकर स्नान करेगा, जिससे सबको एक-एक कण्ठहार की प्राप्ति हो जाएगी।

निश्चित दिन राजा-समेत सभी लोग वानरराज के साथ तालाब पर पहुँच गए। किसी को यह न सूझा कि ऐसा कभी सम्भव सकता।

तृष्णा सबको अन्धा बना देती है।

सैकड़ोंवाला हज़ारों चाहता है; हज़ारों वाला लाखों की तृष्णा रखता है; लक्षपति करोड़पति बनने की धुन में लगा रहता है।

मनुष्य का शरीर जरा-जीर्ण हो जाता है, लेकिन तृष्णा सदा जवान रहती है।

राजा की तृष्णा भी उसे काल के मुख तक ले आई।

जितने लोग जलाशय में गए, डूब गए, कोई ऊपर न आया।

उन्हें देरी होती देख राजा ने चिन्तित होकर वानरराज की ओर देखा।

वानरराज तुरन्त वृक्ष की ऊँची शाखा पर चढ़कर बोला...महाराज! तुम्हारे सब बन्धु-बान्धवों को जलाशय में बैठे राक्षसों ने खा लिया है।

तुमने मेरे कुल का नाश किया था, मैंने तुम्हारा कुल नष्ट कर दिया।

मुझे बदला लेना था, ले लिया। जाओ, राजमहल को वापस ले जाओ।

राजा क्रोध से पागल हो रहा था, किन्तु अब कोई उपाय नहीं था।

वानरराज ने सामान्य नीति का पालन किया था। हिंसा का उत्तर प्रति-हिंसा से और दुष्टता का उत्तर दुष्टता से देना ही व्यावहारिक नीति है

राजा के वापस जाने के बाद मगरराज तालाब से निकला।

उसने वानरराजा की बुद्धिमत्ता की बहुत प्रशंसा की।

कहानी कहने के बाद स्वर्ण-सिद्ध ने चक्रधर से घर वापस जाने की आज्ञा माँगी।

चक्रधर ने कहा-मुझे विपत्ति में छोड़कर तुम कैसे जा सकते हो ?

मित्रों का क्या कर्तव्य है ? इतने निष्ठुर बनोगे तो नरक में जाओगे।

स्वर्ण-सिद्ध ने उत्तर दिया-तुम्हें कष्ट से छुड़ाना मेरी शक्ति से बाहर है।

बल्कि मुझे भय है कि कहीं तुम्हारे संसर्ग से मैं भी इसी कष्ट से पीड़ित न हो जाऊँ।

अब मेरा यहाँ से दूर भाग जाना ही ठीक है, नहीं तो मेरी अवस्था भी विकाल राक्षस के पंजे में फँसे वानर की-सी हो जाएगी।

चक्रधर ने पूछा-किस राक्षस के, कैसे ?

स्वर्ण-सिद्धि ने तब राक्षस और वानर की यह कथा सुनाई :

भय का भूत यः परैति स जीवति। भागनेवाला ही जीवित रहता है।

एक नगर में भद्रसेन नाम का एक राजा रहता था। उसकी कन्या रत्नवती थी।

उसे हर समय यही डर रहता था कि कोई राक्षस उसका अपहरण न कर ले।

उसके महल के चारों ओर पहरा रहता था, फिर भी वह सदा डर से काँपती रहती थी।

रात के समय उसका डर और भी बढ़ जाता था।

एक रात एक राक्षस पहरेदारों की नज़र बचाकर रत्नवती के घर में घुस गया।

घर के एक अन्धेरे कोने में जब वह छिपा हुआ था तो उसने सुना कि रत्नवती अपनी एक सहेली से कह रही है-यह दुष्ट विकाल मुझे हर समय परेशान करता है, इसका कोई उपाय कर।

राजकुमारी के मुख से यह सुनकर राक्षस ने सोचा कि अवश्य ही विकाल नाम का कोई दूसरा राक्षस होगा, जिससे राजकुमारी इतना डरता है किसी तरह यह जानना चाहिए कि वह कैसा है, कितना बलशाली है

यह सोचकर वह घोड़े का रूप धारण करके अश्वशाला में जा छिपा।

उसी रात कुछ देर बाद एक चोर उस राजमहल में आया।

वह वहाँ घोड़ों की चोरी के लिए ही आया था।

अश्वशाला में जाकर उसने घोड़ों की देखभाल की और अश्वरूपी राक्षस ने समझा कि अवश्यमेव यह व्यक्ति ही विकाल राक्षस है और मुझे पहचानकर मेरी हत्या के लिए ही यह मेरी पीठ पर चढ़ा है।

किन्तु अब कोई चारा नहीं था। उसके मुँह में लगाम पड़ चुकी थी।

चोर के हाथ में चाबुक थी। चाबुक लगते ही वह भाग खड़ा हुआ।

कुछ दूर जाकर चोर ने उसे ठहराने के लिए लगाम खींची, लेकिन घोड़ा भागता ही गया।

उसका वेग कम होने के स्थान पर बढ़ता ही गया।

तब, चोर के मन में शंका हुई, यह घोड़ा नहीं बल्कि घोड़े की सूरत में कोई राक्षस है, जो मुझे मारना चाहता है।

किसी ऊबड़-खाबड़ जगह ले जाकर यह मुझे पटक देगा। मेरी हड्डी-पसली टूट जाएगी।

चोर यह सोच ही रहा था कि सामने वटवृक्ष की एक शाखा आई। घोड़ा उसके नीचे से गुज़रा।

चोर ने घोड़े से बचने का उपाय देखकर शाखा को दोनों हाथों से पकड़ लिया।

घोड़ा नीचे से गुज़र गया, चोर वृक्ष से लटककर बच गया।

की शाखा उसी वृक्ष पर अश्वरूपी राक्षस का मित्र बन्दर रहता था।

उसने डरकर भागते हुए अश्वरूपी राक्षस को बुलाकर कहा :

-मित्र! डरते क्यों हो ? यह कोई राक्षस नहीं, बल्कि मामूली मनुष्य है।

तुम चाहो तो इसे क्षण में खाकर हज़म कर लो।

चोर को बन्दर पर बड़ा गुस्सा आ रहा था। बन्दर दूर ऊँची शाखा पर बैठा हुआ था। किन्तु उसकी लम्बी पूँछ चोर के मुख के सामने ही लटक रही थी।

चोर ने क्रोधवश उसकी पूँछ को अपने दाँतों में भींचकर चबाना शुरू कर दिया।

बन्दर को पीड़ा तो बहुत हुई लेकिन मित्र राक्षस के सामने चोर की शक्ति को कम बताने के लिए वह वहाँ बैठा ही रहा।

फिर भी, उसके चेहरे पर पीड़ा की छाया साफ नज़र आ रही थी, उसे देखकर राक्षस ने कहा : -मित्र!

चाहे तुम कुछ भी कहो, किन्तु तुम्हारा चेहरा कह रहा है कि तुम विकाल राक्षस के पंजे में आ गए हो।

यह कहकर वह भाग गया।

यह कहानी सुनाकर स्वर्णसिद्धि ने चक्रधर से फिर घर वापस जाने की आज्ञा माँगी और उसे लोभ-वृक्ष का फल खाने के लिए वहीं ठहरने का उलाहना दिया।

चक्रधर ने कहा-मित्र! उपालंभ देने से क्या लाभ ?

यह तो दैव का संयोग है। अन्धे, कुबड़े और विकृत शरीर व्यक्ति भी संयोग से जन्म लेते

हैं, उसके साथ भी न्याय होता है।

उसके उद्धार का भी समय आता है। एक राजा के घर विकृत कन्या हुई थी।

दरबारियों ने राजा से निवेदन किया-महाराज! ब्राह्मणों को बुलाकर इसके उद्धार का प्रयत्न कीजिए।

मनुष्य को सदा जिज्ञासु रहना चाहिए; और प्रश्न पूछते रहना चाहिए।

एक बार राक्षसेन्द्र के पंजे में पड़ा हुआ ब्राह्मण केवल प्रश्न के बल पर छूट गया था। प्रश्न की बड़ी महिमा है।

राजा ने पूछा-यह कैसे? तब दरबारियों ने यह कथा सुनाई :