शेखर ने अपने दादाजी से यह सवाल पूछा - सभी भी अपने जीवन में आगे बढ़ना चाहते हैं, लेकिन बहुत काम लोग ही अपने लक्ष्य तक पहुंच पाते हैं। अगर अपने लक्ष्य तक पहुंचना है तो क्या करना चाहिए।
शेखर स्नातक अंतिम वर्ष का छात्र हैं और प्रतियोगिता परीक्षाओं की तयारी कर रहा है, उसके दादाजी प्राइमरी स्कूल से रिटायर्ड शिक्षक हैं, उन्होंने शेखर का सवाल सुनने के बाद कहा - अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए व्यक्ति को सबसे पहले खुद को असफलताओं को स्वीकार करने के लिए तैयार करना चाहिए।
दादाजी का जवाब सुनने के बाद शेखर ने पूछा - मैं आपकी बात समझ नहीं पाया।
आखिर अपने आप को असफलता के लिए तैयार कर सफलता कैसे पायी जा सकती है।
शेखर का सवाल सुनने के बाद दादाजी ने कहा - इस बात को मैं तुम्हारा ही उदाहरण देकर समझता हूँ।
तुम इस समय प्रतियोगिता परीक्षाओं की तयारी कर रहे हो। तुम अगले वर्ष होने वाली परीक्षाओं में बैठोगे। तुम यही सोचकर बैठोगे कि तुम्हें सफलता मिलेगी। दादाजी की बात पर शेखर ने हाँ में सिर हिलाया।
इसके बार दादाजी जी ने कहा - मान लो तुम अपने पहले प्रयास में असफल हो जाते हो तो तुम क्या करोगे ?
शेखर ने कहा - मुझे बहुत निराशा होगी। मैं तैयारी में अपनी तरफ से कही कमी नहीं छोड़ रहा हूँ।
दादाजी ने कहा - निराशा ही असफलता की जड़ है।
वह कैसे, शेखर ने सवाल किया।
दादाजी बोले तुम्हें लगता है कि तुम्हारी तैयारी मुकम्मल है लेकिन परीक्षा तो दूसरे की इच्छा पर निर्भर है।
अगर तुम पहले प्रयास में असफल होने के बाद निराश हो जाते हो तो तुम्हारी आगे की तैयारी प्रभावित होगी।
अगर तुम असफलता को अपनी कमियों को दुरस्त करने का मौका मानोगे तभी आगे की तैयारी में उन्हें दूर कर पाओगे।
हर परीक्षार्थी यही सोचता है कि उसकी तैयारी पूरी है, लेकिन सफलता कुछ लोगों को ही मिलती है।
ये वही लोग होते हैं जो अपनी असफलता से सीखते हैं ही और दूसरों की असफलता से भी सीखने की कोशिश करते हैं।