एक किसान की फसल पाले ने बर्बाद कर दी।
उसके घर में अन्न का एक दाना भी नहीं बचा। गांव में ऐसा कोई नहीं था, जो किसान की सहायता करे।
किसान सोच्त्र रहा कि वह क्या करे ?
जब कोई उपाय नहीं सूझा तो वह एक रात जमींदार के बाड़े में जाकर उसकी एक गाय चुरा लाया।
जब सुबह हुई तो उसने गाय का दूध दूहकर अपने बच्चों को भरपेट पिलाया। उधर जमींदार के नौकरों को जब पता चला कि किसान ने जमींदार की गाय चुराई है तो उन्होंने जमींदार से शिकायत की।
जमींदार ने पंचायत में किसान को बुलाया। पांचों ने किसान से पूछा - यह गाय तुम कहाँ से लाए ?
किसान ने उत्तर दिया - इसे मैं मेले से खरीदकर लाया हूँ।
पंचों ने बहुत घुमा-फिरकर सवाल किया, किन्तु किसान इसी उत्तर पर अडिग रहा।
फिर पंचों ने जमींदार से पूछा क्या यह गया आपका ही है ?
जमींदार ने किसान की और देखा तो किसान ने अपनी आँखे नीची कर ली।
तब जमींदार ने किसान ने कहा - पंचों मुझसे भूल हुई। यह गाय मेरी नहीं हैं।
पंचों ने किसान को दोषमुक्त कर दिया। घर पहुंचने पर जमींदार के नौकरों ने झूठ का बोलने का कारण पूछा तो जमींदार बोला - उस किसान की नजरों में उसका दर्द झलक रहा था।
मैं उसकी विवशता समझ गया। यदि मैं सच बोलता तो उसे सजा हो जाती।
इसलिए मैंने झूठ बोलकर एक परिवार को और संकटग्रस्त होने से बचा लिया।
इतने में किसान जमींदार की गाय लेकर उसके घर पहुंच गया और जमींदार के पैरों में गिरकर माफ़ी मांगने लगा। जमींदार ने उसे गले से लगाकर माफ़ कर दिया और उसकी आर्थिक सहायता की।
वस्तुतः किसी के भले के लिए बोला गया झूठ पूर्णतः धार्मिक है, क्योंकि संकटग्रस्त की सहायत के लिए साधना की पवित्रता नहीं, बल्कि साध्य की सात्विकता देखि जाती है।