किसका बटुआ

एक बार हम्पी के बाजार में किसी का बटुआ गिर गया जो एक भिखारी को मिला।

बटुआ खोलने पर भिखाड़ी ने पाया कि उसमे सौ स्वर्णमुद्राएँ थी।

तभी भिखारी ने एक व्यापारी को चिल्लाते हुए सूना, जो कह रहा था, मेरा बटुआ खो गया है। जो ढूंढ कर देगा मैं उसे ईनाम दूंगा।

भिखारी ईमानदार इनसान था। वह व्यापारी के पास गया और उसे बटुआ वापस करके अपना ईनाम माँगा।

ईनाम! व्यापारी जल्दी-जल्दी स्वर्णमुद्राएँ गिनता हुआ बोला, तुझे इनाम नहीं, तुझे तो मैं पुलिस को दूंगा। इस बटुए में दो सौ स्वर्णमुद्राएँ थी। तू पहले ही इसमे से सौ स्वर्णमुद्राएँ चुरा चुका है। तेरा ईनाम कैसा ?

मैं ईमानदार आदमी हूँ, चोर नहीं। भिखारी बहादुरी से बोला, चलिए मैं खुद ही राजदरबार में चलता हूँ। महाराज ही इसका न्याय करेंगे।

दोनों राजदरबार में पहुंचे और वहां जाकर अपनी-अपनी बात राजा कृष्णदेव राय के सम्मुख कही। सारी बात सुनकर महाराज ने तेनालीराम से इसका फैसला करने को कहा।

तेनालीराम ने कुछ देर पुरे मसले पर विचार किया, फिर बोला, महाराज मेरे विचार से ये दोनों ही सच बोल रहे है।

व्यापारी तुमने कहा कि तुम्हारे बटुए में दो सौ स्वर्णमुद्राएँ थी, जबकि इस बटुए में मात्र सौ स्वर्णमुद्राएँ ही हैं। भिखारी स्वर्णमुद्राएँ इतनी जल्दी कहीं नहीं छुपा सकता और वह भी गिनकर पूरी सौ।

तो मेरे विचार में यह बटुआ ही तुम्हारा नहीं है।

महाराज ने तेनाली के फैसले को सही ठहराते हुए सौ स्वर्णमुद्राओं से भरा बटुआ भिखारी को सौंप दिया।