बुद्ध ने आनंद को नियुक्त किया

भगवान् बुद्ध एक बार श्रावस्ती के मार्ग पर थे।

उनके पीछे पात्र और चीवर लेकर शिष्य नागसमाल चल रहे थे।

चलते-चलते नागसमाल ने किसी और मार्ग पर चलने की इच्छा प्रकट करते हुए

बुद्ध से अपना पात्र और चीवर सँभालने का आग्रह किया,

किंतु बुद्ध ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।

यह देखकर नागसमाल पात्र और चीवर धरती पर रखकर दूसरी ओर चले गए।

बुद्ध ने बिना कुछ कहे दोनों वस्तुएँ उठाईं और अपनी राह ली।

श्रावस्ती पहुँचकर बुद्ध आसन पर बैठे ही थे कि नासमाल आ पहुँचे।

उनके सिर पर चोट थी, रास्ते में चोरों ने पात्र-चीवर आदि छीन लिये थे।

नागसमाल ने चरण स्पर्श कर आज्ञा न मानने पर पश्चात्ताप व्यक्त किया।

तब बुद्ध ने स्वयं के लिए उचित परिचारक नियुक्त करने की जरूरत बताई।

80 महाश्रावकों ने बारी-बारी से परिचारक बनने की इच्छा प्रकट की, किंतु बुद्ध ने स्वीकृति नहीं दी।

तब उपस्थित लोगों ने आनंद को प्रोत्साहित किया।

आनंद बोले, ‘“सेवा का अधिकार तो सहज ही मिला करता है।

भगवान् उचित समझेंगे तो स्वयं ही मुझे बुलाएँगे।''

तब बुद्ध ने आनंद को स्वीकृति प्रदान की।

आनंद ने चार प्रार्थनाएँ कीं, ‘“भगवान्! अपने पाए उत्तम चीवर मुझे न दें, भिक्षा न दें, एक गंध कुटी में निवास न दें

और निमंत्रण में लेकर न जाएँ।"

कारण पूछने पर आनंद ने स्पष्ट किया, "यदि आप इन्हें मुझे देंगे तो लोग समझेंगे कि अपने

स्वार्थ के लिए मैं आपका परिचारक बना हूँ।

" बुद्ध ने तत्काल आनंद को परिचारक नियुक्त कर दिया।

वस्तुत:, जिसके मन में निर्मल भावनाएँ और सच्ची निष्ठा हो,

उसे आराध्य पर सर्वाधिकार सहज ही प्राप्त हो जाता है।