जिज्ञासु को शब्द की महिमा समझाई

स्वामी विवेकानंद के प्रवचन ज्ञानयुक्त और तर्क आधारित होते थे।

ज्ञान, भक्ति और कर्म विषयक जटिल से जटिल प्रश्नों का समाधान स्वामी जी अपनी सहज मेघा से कर देते थे।

जिज्ञासुओं का जमावड़ा उनके आसपास हमेशा लगा रहता था।

प्रवचन के दौरान या प्रवचन समाप्ति के उपरांत भी कई बार ऐसा होता था कि जिज्ञासुओं की ओर से प्रश्न आते रहते और स्वामी जी उन प्रश्नों का संतुष्टिजनक उत्तर देते।

एक बार स्वामी जी अपने प्रवचन में भगवान के नाम की महत्ता बता रहे थे।

यह सुनकर एक व्यक्ति ने तर्क दिया - शब्दों में क्या रखा है, स्वामी जी! उन्हें रटने से क्या लाभ होगा ?

तब स्वामी जी उसे प्रमाण सहित समझाने के उद्देश्य से नीच जाहिल मूर्ख आदि अपशब्दों से संबोधित किया। यह सुनकर वह अत्यंत क्रोधित हो गया और कहने लगा - आप जैसे संन्यासी के मुहं से ऐसे शब्द शोभा नहीं देते। आपके इन कुवचनों से मुझ बहुत आघात पहुंचा है।

तब स्वामी जी बोले - भाई! वे तो शब्द मात्र थे। आपने ही कहा कि शब्दों में क्या रखा है ?

मैंने भी तो आपको मात्र शब्द ही कहे, कोई पत्थर तो नहीं मारे। स्वामी जी कि बात सुनकर उस व्यक्ति को अपने प्रश्न का जवाब मिल गया कि अपशब्द क्रोध का सकते हैं तो प्रिय वचन भी आशीर्वाद और कृपा दिला सकते हैं।

वस्तुतः शब्द की महिमा अपरंपार है।

अप्रिय वाणी मर्मभेदी होती है और मधुरवाणी मरहम का काम करती है। इसलिए प्रथम स्थिति में अपयश और दूसरी स्थिति में सम्मान व शुभाशीष मिलती है।