झूठ जब सच जैसा लगे, धोखा न खाएं

एक समय की बात है एक गाँव में एक ब्राह्मण रहता था।

एक बार किसी परिवर ने उसे अपने यहा ब्राह्मण भोज पर बुलाया और दान में उसे एक बकरा दिया।

बकरे को पाकर वो बड़ा खुश हुआ और खुशी से अपने घर जाने लगा। रास्ता लम्बा और सुनसान था। रास्ते में ब्राह्मण के कंधे पर बकरे को देखकर तीन ठग के मन में उस बकरे को चुराने का विचार आया। तीनों ने उसे हथियाने की योजना बना ली। तीनों अलग-अलग हो गए।

ब्राह्मण के पास से गुजरते हुए एक ठग ने उनसे कहा: क्या पंडितजी एक ब्राह्मण होकर एक कुत्ते को अपने कंधो पर उठा रखा है आपने!

ब्राह्मण ने कहा: अंधे हो क्या? कुछ भी अनाप-शनाप बोल रहे हो? तुम्हें दिखाए नहीं देता ये कुत्ता नहीं बकरा है। इस पर ठग ने कहा: मेरे काम था आपको बताना, आगे आपकी मर्जी!

थोड़ी दूर चलने के बाद ब्राह्मण को दूसरा ठग मिला।

उसने ब्राह्मण से कहा: पंडितजी क्या आप नहीं जानते उच्च कुल के लोगों को अपने कंधो पर कुत्ता नहीं लादना चाहिए। ब्राह्मण ने उसे भी झिड़का दिया और आगे बढ़ गया।

थोड़ी और दूर आगे जाने के बाद ब्राह्मण को तीसरा ठग मिला और उसने पूछा: पंडितजी इस कुत्ते को पीठ पर लाद के जाने का क्या कारण है ?

इस बार ब्राह्मण के मन में शक आया कि कही उसकी ही आंखे तो धोखा नहीं खा रही है, इतने लोग तो झूट नहीं बोल सकते। और उसने रास्ते में थोड़ा आगे जाकर बकरे को अपने कंधे से उतार दिया और अपने घर की ओर आगे बड़ गया।

उसके आगे जाते ही तीनों ठग बकरे को वहां से उठा ले गए और उसे मार कर उसकी दावत खाई। तो दोस्तों इस कहानी से यह सीख मिलती है कि कई बार झूट को भी मेजोरिटी में बोलने पर वह सच जैसा मालूम पडता है और लोग धोखे का शिकार हो जाते है।