गोनू झा और मूर्खों की कविता

जैसा कि बताया जा चुका है कि मिथिलानरेश कला और साहित्य से बड़ा प्रेम करते थे। गूढ अर्थ की कविता तो उन्हें इतनी प्रिय थी कि कवि को मुंहमांगा पुरस्कार देते थे। आए दिन दरबार में कोई न कोई कवि आता और अपनी कविता सुनाकर पुरस्कार प्राप्त करता। एक बार एक गांव में चार मित्र रहते थे। चारों ही निपट गंवार थे। ऊपर से मेहनत वाले काम करने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। वे तो बस खाली बैठे गप्पें हांकने वाले थे। कैसे करके उनका गुजारा होता था, यह तो उनके इस कारनामे से जानिए।

मित्रमंडली एक मंदिर के चबूतरे पर बैठी गहन विचार-विमर्श कर रही थी कि कुछ ऎसा किया जाए कि खाने के लाले न रहें। पर क्या किया जाए, यह किसी की समझ नहीं आ रहा था।

'हम इस मंदिर के पुजारी बन जाते हैं।" एक बोला-"फिर सारा गांव यहां चढावा लेकर आएगा तो हम उससे अपना जीवनयापन कर लेंगे।"

"मूर्ख, एक मंदिर में एक ही पुजारी होता है। पुजारी भी ऎसा जो सब पूजा पद्धति जानता हो। हममें से तो कोई भी नहीं जानता।"

"फिर तो हमें साधु बनना चाहिए और मथुरा चलना चाहिए। बस 'कृष्णा, कृष्णा' कहना होगा।"

"अरे, हमें खेती करनी चाहिए।" चौथा बोला-"इससे गांव में रहेंगे तो हमारे शादी-ब्याह हो जाएंगे। फिर बाल-बच्चे होगें। बच्चे जब बड़े हो जाएंगे तो हमारे भोजन की व्यवस्था करेंगे ही।"

"खेती बहुत परिश्रम का काम है। हमसे कैसे हो सकता है।"

"फिर तो भाई हम कुछ नहीं कर सकते।"

"क्यों न हम गवैये बन जाएं। चारों मिलकर ढोलक, मंजीरे लेकर कीर्तन गाएंगे तो लोग खुद हमें खाने को देगें।"

"अरे, तुम सब बेकार की बात कर रहे हो। मेरे विचार से हमें एक हाथी खरीदना चाहिए। लोग उसे गणेश मानते हैं। वह जहाँ से भी जाता है लोग सिर नवाते हैं और श्रद्धा से कुछ न कुछ देते भी हैं ।"

"यह ठीक रहेगा । पर हाथी को चीटियों से बचाना होता है ।"

"तो पहले चीटियों का ही काम तमाम करते हैं ।"

"यह विचार उत्तम है। पहले चींटियों को मारते हैं, तब हाथी लाएंगे ।"

"चींटियाँ कहाँ मिलती है ?"

"जहाँ मीठा होता है । हमे पहले मीठे का इंतजाम करना होगा ।"

फिर चारों अपने -अपने घरों से शक्कर लाए और यहाँ-वहाँ फैला दी । शाम तक वहाँ हजारों चींटियांँ आ गई । और फिर चारो मूर्ख उन चींटियों पर पिल पड़े ।

"हमारे हाथी की सूंड मे घुसोगी ।" एक गुस्से से बोला ।

"बेचारा कितना तड़पेगा ।" दूसरा बोला ।

"इन्हे क्या ? इनका क्या बिगड़ता है । नुकसान तो हमारा है ।"

"और खाओ मीठा ।"

तभी वहाँ से गाँव के कुछ लोग गुजर रहे थे ।

"अरे, यह मुर्खमंडली चप्पलो से जमीन क्यो पीट रही है ।" एक ग्रामीण आश्चर्य से पूछा ।

"पता नही । इन गंवारों की तो भगवान ही जाने ।"

"चलो देखे तो सही ।"

गाँव वाले उधर आए तो देखा की वह मूर्खमंडली बेजुबान चीटियों को मार रही थी ।

"अरे मूर्खों, इन चीटियों ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है ?"

"बिगाड़ा है !" एक मूर्ख तमक कर बोला - "अरे, नहीं बिगाड़ा तो आगे बिगाड़ सकती थीं । ये हमारे हाथी के सूंड में घुस सकती थीं ।"

"हाथी ! कहाँ है तुम्हारा हाथी ।"

"हमने अभी खरीदा कहाँ है । विचार बनाया ही था कि इन चींटियो का खयाल आया । सोचा पहले इन्ही से निबटते हैं ।"

"अरे दुर्जनो, क्यों जीव हत्याए कर रहे हो । कभी तो मूर्खता के इस आवरण से बाहर आओ । कम्बक्तों, कुछ कमाकर खाना सीखो ।''

"इसीलिए तो हाथी खरीदने का विचार बना है दाऊ ।"

"अबे, हाथी कोई हल्दी की गाँठ है । इतना धन है तुम्हारे पास ।"

"धन तो नही है ।" चारों हक्का-बक्का रह गए ।

"फिर हाथी कहाँ से खरीद लोगे ?"

"ये बात भी सही है ।" चारों विचार करने बैठ गए ।

चारों मित्र इसी उधेड़बुन मे थे कि हाथी खरीदने के लिए धन कहाँ से आएगा । तभी उन्हें लालबहादुर आता दिखाई दिया । लालबहादुर के सिर पर बड़ी-सी पोटली थी और वह मस्ती में कुछ गुनगुनाता हुआ आ रहा था । चारों जानते थे कि लालबहादुर कवि है और मिथला के दरबार में नियुक्त है ।

"ओ भैया लालबहादुर, तनिक इधर तो आ ।" एक ने पुकारा ।

कवि महोदय शंकित भाव से उनके पास आए ।

"तुमने अचानक अकारन पुकारा ।" कवि बोला-"अहित तो नहीं कर रहे हो हमारा ।"

"इस पोटली में तो पुरस्कार में मिला धन होगा ।" एक मूर्ख ने कहा ।

"और इसी को छीनने का तुम चारों का मन होगा ।" कवि ने तुक जोड़ दी-"पर याद रखो कि राजकवि हूं मैं अब । सूलि पर लटकवा दूंगा मानोगे तब ।"

"अच्छा, यह बताओ एक कविता सुनाने का क्या पुरस्कार है ।"

"यह तो कविता पर निर्भर करता है ।" कवि ने बताया- "कविता गूढ हो तो कवि का घर भरता है ।"

चारों ने लालबहादुर को विदा कर दिया ।

"भई, अब तो यही एक मार्ग है धन कमाने का । चलकर दरबार में एक बढिया-सी कविता सुना देते हैं ।" एक बोला ।

"हम कहां से सुना दें । हमको कुछ आता ही कहां है ।"

"अरे, चले चलो । कविता तो बन जाएगी । "

चारों चल पड़े । रास्ते भर सोचते रहे पर कहीं कुछ समझ न आया । रास्ते में चारों एक विशाल गूलर के पेड़ के नीचे सो गए । अचानक एक गूलर का फल टूटकर एक मूर्ख के ऊपर गिरा ।

"पककर गूलर गिर गयौ ।" वह अचानक बोल उठा ।

"अरे वाह, यह तो एक कविता हो गई ।" दूसरा उत्साह से बोला

"कुछ और जोड़ने पर तो बन ही जाएगी ।"

चारों उस एकल पंक्ति को याद करते-करते आगे चल पड़े । रास्ते में एक स्त्री पीपल के पत्ते तोड़कर ले जा रही थी ।

"लायौ पीपरि नारि!" दूसरा मूर्ख बोल पड़ा ।

"पककर गूलर गिर गयौ, लायौ पी परि नारि!"तीसरे ने कहा-"अरे वाह यह तो एक पंक्ति गई ।

"अब कुछ और सोच लेते हैं ।"

चारों आगे बढ चले और एक जामुन के बगीचे में पहुच गए । वहां पेड़ों से टूटकर इतनी जामुन जमीन पर पड़ी थी कि जमीन काली नजर आ रही थी । चारों बीन- बीनकर जामुन खाने लगे ।

"कितनी जामुन हैं। सारा दिन बीनें तो भी खत्म न हों।" एक बोला।

"जामन अंत न पाइयो..." तीसरा साथी बोला-"अरे वाह! मेरे हिस्से का काम भी हो गया। जामन अंत न पाइयो...। कैसी रही?"

"गूलर पककर गिर गयौ, लायौ पी परि नारि। जामन अंत न पाइयौ...। भई, बात तो बनती नजर आ रही है।" पहला मूर्ख बोला-"अब तो बस इस चौथे यार को कुछ सोचना होगा।"

"मैं भी सोच लूंगा।" चौथा बोला-" कुछ नजर तो आए।" फिर चारों वहां से चल पड़े। अब मिथिला नगरी दिखाई देने लगी थी और चौथा अभी तक कुछ सोच नहीं पाया था।

तभी उन्हें दो औरतें लड़ती हुई दिखाई पड़ी। उनमें एक वृद्धा थी और एक युवा स्त्री थी। चारों ने जाकर उनसे आपस में झगड़े का कारण पूछा।

"कारण कैसा?" वृद्धा बोली-"यह मेरी बहू है। सास-बहू तो आपस में झगड़ती ही रहती है। तुम अपना रस्ता नापो।"

"बरबस ढानी रार।" चौथा बोल पड़ा।

"भई वाह, हमारी तो कविता ही पूरी हो गई।" पहला बोला-"अब दरबार चलते हैं।"

"चलो भाई।" चारों मित्र खुश थे कि एक बहुत कठिन काम को वे मिलकर कर चुके थे। अब दरबार में कविता सुनाने की देर थी कि राजा उन्हें ढेर सारा पुरस्कार देगा और वे हाथी खरीद लेंगे।

जब चारों दरबार में पहुंचे तो दरबार पूरी तरह सजा हुआ था। मिथिला नरेश अपने सिंहासन पर बैठे थे।

"महाराज की जय हो! हम चारों संयुक्त कविता के कवि हैं और आज दरबार में स्वरचित एक संयुक्त कविता सुनाने की आज्ञा चाहते हैं।"

महाराज खुश हो गए। कविता तो उनका प्रिय विषय था।

"अवश्य सुनाइए कवि महोदय।" महाराज ने आज्ञा दी।

"महाराज, हमें पुरस्कार में इतना धन तो मिल ही जाएगा कि हम एक हाथी खरीद सकें और अपना जीवन-यापन कर सकें।"

सारे दरबारी हंस पड़े। ऎसे कवि सभा में पहली बार आए थे जो कुछ सुनाने से पूर्व ही पुरस्कार की मांग कर रहे थे।

"पहले आप लोग अपनी कविता तो सुनाएं।" गोनू झा ने कहा जो उस समय दरबार में ही थे-" फिर महाराज स्वयं कविता का मूल्यांकन करेंगे कि वह किसी पुरस्कार योग्य है अथवा नहीं।"

चारों कवि एक-दूसरे का मुंह देखने लगे। गोनू झा समझ गए कि वे कवि तो नहीं थे पर सीधे-सादे लोग थे।

"गूलर पककर गिर गयौ' पहला उच्च स्वर में बोला।

"लायौ पा परि नारि।" दूसरे ने कहा।

"जा मन अंत न पाइयो' तीसरा भी बोल पड़ा।

"बरबस ठानी रार।" चौथे ने समापन किया।

राजा के माथे पर बल पड़ गए। इस तुकबंदी की कविता का अर्थ उनकी समझ से बाहर था। वैसे तो वह कविता बहुत ही गूढ और रहस्यमय अर्थ वाली लग रही थी।

"कवियों, क्या इस कविता का अर्थ आप बताएंगे।'

चारों बेचारे एक-दूसरे को देखकर उदास हो गए।

गोनू झा तो दयालु हृदय थे। वह उन चारों की मनोस्थिति समझ रहे थे। पुरस्कार की अभिलाषा में जाने कितना सफर करके चले आ रहे हैं बेचारे! ज्यादा नहीं तो कुपुरस्कार तो उन्हें अवश्य ही मिलना चाहिए।

"महाराज!" गोनू झा बोल पड़े-"यह कविता बड़े ही गूढ अर्थ में है। और मेरे विचार से तो यह कवि देखना चाहते हैं कि क्या दरबार में कोई ऎसा विद्वान है जो इनकी रचित कविता का अर्थ बता सके। क्यों कवि महोदय मैं बिल्कुल सत्य कह रहा हूं न!"

"हां...हां....हां।" चारों के सिर सहमति में हिले।

अब तो मिथिलानरेश उत्सुक हो उठे कि उस कविता का गूढ अर्थ क्या है? उन्होनें अपने विद्वान दरबारियों की परीक्षा का उचित समय जानकर उन्हें आज्ञा दी कि उस कविता का अर्थ बताएं।

सारे दरबारी असमंजस में पड़ गए। वह एक अर्थहीन तुकबंदी थी जिसका कोई अर्थ ही नहीं था।

"महाराज, यह भी कोई कविता है।" एक दरबारी बोल पड़ा-'इसका क्या अर्थ हो सकता है। यह तो तुकबंदी है।"

महाराज, क्षमा चाहूंगा।' एक अन्य दरबारी बोला-"यह चारों मूर्ख मेरे ही गांव के हैं। कविता और साहित्य से इनका दूर-दूर तक कोई सम्बंध नहीं है। कामचोर, आलसी और निपट गंवार ये चारों परिश्रम करना ही नहीं चाहते और उल्टी-सीधी योजनाएं बनाते रहते हैं।"

अब वो चारों कवि भयभीत भी हो गए। उनके ही गांव का आदमी उनके विरुद्ध बोल रहा था।

अब इनाम तो क्या मिलता, राजदंड मिलेगा। चारों बेचारे थर-थर कांपने लगे।

गोनू झा को उन पर दया आ गई।

"महाराज!" गोनू झा ने कहा-"मुझे खेद है कि हमारे विद्वान दरबारी अपनी असमर्थता को इनकी मूर्खता कहकर छुपा रहे हैं।"

"तो क्या आप इस कविता का अर्थ बताएंगे पंडित जी।" एक विद्वान चिढ गए।

"अवश्य! महाराज, यह कविता रामायण काल में मंदोदरी की व्यथा का संकेत करती है।" गोनू झा ने कहा-'रावण की मृत्यु के पश्चात् मंदोदरी ने कहा था कि 'गूलर पककर गिर गयो' अर्थात् लंका जैसा विशाल महल गूलर की तरह गिर गया। 'लायौ पी परि नारि' अर्थात क्योंकि उसका पति रावण परस्त्री का हरण करके लाया था।"

महाराज मंत्रमुग्ध हो गए। क्या गूढ अर्थ निकला था कविता का।

"जा मन अंत न पाइयौ।' गोनू झा ने आगे स्पष्ट किया-"अर्थात जिन त्रिलोकीनाथ राघवेंद्र राजा राम के मन का योगी, महायोगी भी अंत न पा सके। 'बरबस ठानी रार'। अर्थात उन पुरुषोत्तम से बरबस ही लड़ाई की और काल-कवलित हुए।"

"वाह, वाह! अति उत्तम!" मिथिला नरेश ने कहा-'बहुत गूढ अर्थ और संदेशपूर्ण कविता है यह। इन कवियों को हम पुरस्कार में एक हाथी सहित कुछ धन भी देने का आदेश हैं।"

दरबारी तो सन्न रह गए। एक तो गोनू झा ने उनकी योग्यता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया। दूसरे चार मूर्ख इतना पुरस्कार भी ले गए। ऊपर से मिथिला नरेश के मन में गोनू झा का सम्मान भी बढ गया।

इस प्रकार गोनू झा ने चारों मूर्खों की मनोकामना पूरी कर दी। और दरबार में स्वयं भी सम्मानित हुए। गोनू झा इसी तरह दरबार में आने वाले जरूरतमंदों, गरीबों आदि के गंवारपन के बावजूद मदद करते थे। इसीलिए वे सभी के परमप्रिय साथी थे।