दरबार में गोनू झा की प्रतिष्ठा बढती जा रही थी और उसी अनुपात में उनेक ईर्ष्यालु प्रतिद्वंद्वी भी बढ रहे थे। अब तो स्वयं मिथिला नरेश हर बात में गोनू झा से परामर्श लेते थे। यह बात कई दरबारियों को जरा भी पसंद नहीं आ रही थी। वे लोग ईष्या के मारे किसी ऎसे अवसर की तलाश में थे जब दरबार में गोनू झा को नीचा दिखाया जा सके। ऎसे दरबारियों का एक गुट बन गया था जो गोनू झा से जलते थे। इसी गुट में भूखन मिश्र नाम का एक दरबारी था। यह दरबारी गोनू झा से कुछ अधिक ही शत्रुता मानता था। पर उसका कोई जोर तो गोनू झा पर चलता नहीं था। भूखन मिश्रा की एक आंख बचपन में ही बंद हो गई थी। वह सिर्फ एक आंख से देखता था। अक्सर एक आंख होने के कारण वह उपहास का पात्र भी बनता था। एक दिन इसी विरोधी गुट ने आपस में विचार-विमर्श किया।
"देख लेना, एक दिन गोनू झा महाराज के प्रमुख सेनापति का पद प्राप्त कर लेगा।" भूखन मिश्र ने कहा-"मुझे तो साफ दिखाई दे रहा है।"
'आश्चर्य है!" एक दरबारी हंसकर बोला-"हमारी दो-दो आंखे हैं तब हमें दिखाई नहीं दे रहा और आप एक आंख से साफ देख रहे हैं।"
"मजाक मत करो गोपलाल।" मिश्रा जी तिलमिला गए-"मैं आपको भविष्य की तस्वीर दिखा रहा हूं। वह कल का आया गोनू झा हम सब पुराने दरबारियों पर भारी पड़ रहा है। देख लेना, एक दिन आएगा जब वह महाराज को एक अद्भुत परामर्श देगा।"
"कैसा....कैसा अद्भुत परामर्श!"
"महाराज, परामर्श के लिए मैं अकेला ही काफी हूं।' मिश्रा जी ने गोनू झा की नकल करने का प्रयास किया-'इतने सारे दरबारियों का खर्चा उठाने से अच्छा है कि उस खर्चे को प्रजाहित में लगाया जाए।"
सारे दरबारी आश्चर्यचकित रह गए।
"यह क्या कह रहे हैं आप?"
"देखना, वह दिन दूर नहीं जब गोनू झा मिथिला के अकेले परामर्शदाता और सेनापति होंगे। हम लोग या तो सैनिक होंगे या पूजा करने वाले ब्राह्मण! तब मानोगे इस मिश्रा जी कि एक आंख की भविष्यवाणी।"
"यह तो उचित कह रहे हैं मिश्रा जी। गोनू झा अब कुछ ज्यादा ही महाराज से चिपका जा रहा है। महाराज उसकी हर बात मान रहे हैं। हमें आने वाले संकट पर नजर रखनी होगी।"
"नजर क्या। मै तो कहता हूं कि संकट की उस जड़ को ही उखाड़ फेंकने का प्रयास करो।" मिश्रा जी ने कहा।
"हम उसका क्या बिगाड़ सकतें हैं ।"
"प्रयास करने से क्या नहीं हो सकता । उसे महराज की दृष्टि में गिराने के लिए कुछ सोचना होगा ।"
"मिश्र जी, आपने हमें आने वाले संकट से आगाह कर दिया है । अब हम कुछ न कुछ अवश्य सोचेंगे । सबने कहा ।
"और मैं सबसे पहले सोचूंगा । सोचूंगा क्या सोच भी चुका हूं । वैसे भी मैं बुद्धि में उससे कतैइ कम नहीं हूँ । जिस (घाल) इलाके का वह है, उसका मैं भी हूं । हम दोनों बहुत दिन साथ-साथ खेले हैं ।" मिश्रा जी बोले ।
"क्या मतलब? वह आपका परिचित है?"
"अरे, उसका और मेरा गांव एक-दूसरे से सटा है । दोनों गांवों के बीच खेल का मैदान है जिसमें हम रोज गुल्ली डंडा खेलते थे । मेरी यह आंख गुल्ली धंस जाने से ही तो खराब हुई थी ।"
"तो क्या वह गुल्ली भी गोनू झा ने ही मारी थी ।"
"नहीं। पर था इसका ही साथी। इसी के गांव का।"
"अब ऎसे खेल में तो चोट-फेंट लग ही जाती है।"
"वह अलग बात है। अब अलग बात है। अब तो रोजगार ही जाने की सम्भावना है। हमें अपना भला-बुरा सोचना चाहिए।"
"तो आपने क्या सोचा है गोनू झा को नीचा दिखाने के लिए।" "मैं उसकी सारी चतुराई उसके हलक में ठुंस दूंगा। ऎसा फंदा डालूंगा कि वह बिलबिलाता रह जाएगा।" मिश्रा जी ने कहा।
"फिर तो हम भी देखेंगे आपकी कलाकारी।"
सब दरबारी आश्वस्त थे कि मिश्रा जी ने कुछ सोच लिया है।
अगले दिन दरबार लगा हुआ था। कोई फरियादी नहीं था तो महाराज ने गोनू झा को कुछ मनोविनोद करने का आदेश दिया।
"महाराज!" मिश्रा जी उठ खड़े हुए-"क्षमा चाहूंगा। बहुत दिनों से मेरे हृदय में एक बात है जो आज मैं कहना चाहता हूं।"
"अरे तो कहिए मिश्रा जी। आज तो वैसे भी कोई मुकद्दमा नहीं है।"
"मेरी यह बात किसी मुकद्दमामे से कम नहीं है महाराज।" भूखन मिश्र ने कहा-"मैं गोनू झा के बारे में एक शिकायत लेकर आया हूं।'
गोनू झा सतर्क हो गए। वह तो पहले ही दिन दरबार में आए थे तो मिश्रा जी को देखकर समझ गए थे कि वह 'काना' किसी दिन उलझेगा। बचपन में गुल्ली-डंडे के खेल में गोनू झा ने उसे इतना पदाया था कि वह तभी से उनसे खुन्नस खाता था।
"महाराज! आपको जानकर हैरानी होगी कि मैं और गोनू झा बचपन से ही एक-दूसरे को जानते हैं।" मिश्रा जी ने बताया।
"इसमें हैरानी क्यों होगी मिश्रा जी। यह बात तो पंडित जी ने हमें पहले ही बता दी थी आप उनके पड़ोसी गांव के हैं। "महाराज बोले।
"लेकिन यह तो इन्होंने नहीं बताया होगा कि दरबार में आने से पहले ये सूदखोरी का काम करते थे।" मिश्रा जी ने कहा-'लोगों की चीजें गिरवी रखकर उन्हें धन देते थे और ब्याज वसूलते थे। क्यों गोनू झा, मैं ठीक तो कह रहा हूं ना!"
"आप कहते रहिए।' गोनू झा आराम से बोले।
"महाराज, एक बार मुझे भी कुछ पैसों की आवश्यकता पड़ी थी।" मिश्रा जी ने कहा-"मेरी बहन का विवाह होने वाला था। अब विवाह में तो आप जानते ही हैं कि धन की आवश्यकता होती है। तब मैंने भी गोनू झा के पास अपनी एक बेशकीमती चीज पांच सौ रुपये में गिरवी रखी थी। उस बात को आठ साल हो गए। अब मैं उस चीज का ब्याज सहित धन देकर वापस चाहता हूं तो गोनू झा इनकार करते हैं, टालमटोल करते हैं। कल आना, कल आना कहते हैं।"
"मिश्रा जी, क्या मैं उस बेशकीमती चीज का नाम जान सकता हूं ?' गोनू झा शायद सारी जालसाजी सामझ लेना चाहते थे।
"आप भूल भी गए गोनू झा। कमाल है।"
"भई, वो क्या है कि मेरे यहां हजारों लोग अपनी चीजें गिरवी रख कर जाते हैं। अब मैं किस-किसका ध्यान रखूं। बही-खातों में तो सब लिख रखा है।" गोनू झा ने कहा।
'तो सुनिए। महाराज, इनके पास गिरवी रखी चीज मेरी बाईं आंख है जिसे मैं अब वापस चाहता हूं।' मिश्रा जी ने कहा।
महाराज सहित सब दरबारी उछल पड़े। मिश्रा जी के गुट ने तो मिश्रा जी की बुद्धि का लोहा भी मान लिया।
'पंडित जी।"मिथिला नरेश ने हैरानी से पूछा-'यह कैसी अविश्वसनीय बात कह रहे हैं। भला आंख भी कही गिरवी रखी जाती है।"
"हमारे देहात में रखी जाती हैं।' गोनू झा ने कहा-'बड़ी सरल विधि से एक नुकीले चिमटे से आंख निकाल ली जाती है और आदमी को कोई पीड़ा भी नहीं होती। है न मिश्रा जी।'
'हां...हां। इसी प्रकार तो आपने मेरी आंख गिरवी रखी थी।' मिश्रा जी प्रसन्न थे कि गोनू झा सरलता से उसके फंदे में फंस रहा था।
'यह तो बड़ा अनैतिक और घृणित कार्य है गोनू झा।" महाराज ने जरा क्रोध में भरकर कहा-'हम तो समझ रहे थे कि आप एक सात्विक ब्राह्मण हैं परंतु आप तो जल्लाद भी हैं।"
'महाराज, क्षमा करें। इस पीड़ारहित कार्य को आप अपराध की श्रेणी में नहीं ले सकते।" गोनू झा ने कहा-"और यदि यह अपराध है तो इसका दंड अकेले मैं ही नहीं भुगत सकता। मिश्रा जी भी तो इसमें बराबर के साझीदार हैं। मैं इनके घर तो नहीं गया था इनकी आंख लेने। यह स्वयं मेरे पास आए थे।'
'महाराज!' मिश्रा जी घबराए-"यह बहुत पुराना देहाती धंधा है जो अब बंद भी हो गया है। मैं अपराध और दंड की बात नहीं कर रहा। मुझे तो मेरी आंख दिला दी जाए।
'क्या कहते हो गोनू झा?" महाराज बोला।
"महाराज आपके आदेश का पालन होगा पर मिश्रा जी की आंख तो मेरे घर पर है। उझे जाकर लानी होगी। तीन दिन इस कार्य में लग जाएंगे। तब तक मिश्रा जी मेरे पांच सौ रुपए और ब्याज की व्यवस्था कर लें।"
"ठीक है। तीन दिन बाद आप इनकी आंख इनकी पलकों में उसी प्रकार लगाएंगे, जैसे निकाली थी। उस आंख से इन्हें दिखाई भी देना चाहिए।"
"अवश्य महाराज। आप मेरा जादू देखेंगे।" गोनू झा ने कहा।
सभा विसर्जित हो गई। गोनू झा उसी दिन अपने गांव रवाना हो गए। जबकि मिश्रा जी विजेता बना अपने गुट में अपनी ही प्रशंसा में गीत गा रहा था।
"देखा, एक ही दांव में कर दिया न चित्त!" मिश्रा जी बोला-"बेचारा, महाराज की दृष्टि में सूदखोर, निर्दयी और बेईमान सिद्ध हो गया। मुझे साफ दिख रहा है कि अब वह मिथिला की तरफ मुड़कर भी नहीं आएगा।"
"पर मिश्रा जी, यह आंख वाली बात कुछ हजम नहीं हुई।'
"हा....हा....हा। मैनें फंदा ही ऎसा डाला था कि गोनू झा उलझ गए। आंख का जिक्र तो मैंने बाद में किया था, पहले तो उन्हें धनी महाजन बनाया और स्वयं को खानदानी धनवान सिद्ध कौन नहीं करना चाहत।"
'पर उन्होनें आपकी गिरवी आंख की भी पुष्टि क्यों की?"
"बुद्धि किनारा कर गई। बुरा वक्त आता है तो ऎसा ही होता है। अब प्राण बचाकर यह बहाना किया कि तीन दिन में लौटेगा। लौटेगा कैसे! कोई आंख होगी तो लौटेगा न!"
सब मिश्रा जी के दिमाग की प्रशंसा करने लगे। तीन दिन तो मिश्रा जी दराबार के नायक ही रहे। वह महाराज को गोनू झा की सूदखोरी के झूठे किस्से सुनाते रहे।
बिल्कुल ही कसाई सिद्ध कर दिया गोनू झा को। पर तीसरे दिन दरबार में गोनू झा एक हंडिया लेकर उपस्थित हो गए। उनके हाथ में हुक्के की चिलम भरने वाला चिमटा भी था।
"गोनू झा, क्या मिश्रा जी की आंख ले आए।" महाराज आश्चर्य से बोले।
"बिल्कुल महाराज! जब आपकी आज्ञा हो गई तथा मिश्रा जी बमय ब्याज मेरा धन लौटाने के लिए तैयार हैं तो फिर ऎसी धृष्टता मुझसे कैसी हो सकती थी कि इनकी आंख नहीं लाता।" गोनू झा ने हंडिया दिखाई-"इसमें मिश्रा जी की आंख है पर मैं यह नहीं जान पा रहा कि इसमें कौन-सी आंख उनकी है। बात यह है कि इस हंडिया में सैकड़ो आंखें हैं। भिन्न रंग, भिन्न आकार, भिन्न पुतली की। अब मैं मिश्रा जी की दूसरी आंख निकालकर उसे इस हंडिया की प्रत्येक आंख से मिलाऊंगा। जो दो आंखें एक जैसी होंगी, उन्हें मिश्रा जी को लगा दूंगा। मिश्रा जी जरा आगे तो आइए।"
गोनू झा ने चिमटे को चार बार जमीन में घिसा तो मिश्रा जी के तोते उड़ गए। उन्हें लगा कि गोनू झा चतुर ही नहीं बल्कि बहुत ही खतरनाक आदमी हैं जो उसे उसी के जाल में फंसाकर निपट अंधा बनाने को आतुर है। मिश्रा को बचने की कोई सम्भावना नजर न आ रही थी।
"मिश्रा जी, आप जल्दी करें।" महाराज ने कहा-'हम भी यह पीड़ारहित कार्य देखने को उत्सुक हैं। कोई कुशल वैद्य भी ऎसा नहीं कर सकता।"
और मिश्रा को मंद-मंद मुस्कराते गोनू झा किसी कसाई से कम नहीं लग रहे थे। मिश्रा जी ने तत्काल गोनू झा के चरण पकड़ लिए।
'त्राहिमाम् गोनू झा त्राहिमाम्!" मिश्रा जी रो पड़े और महाराज के सामने अपना अपराध कबूल कर लिया। गोनू झा की ही प्रार्थना पर मिश्रा जी को क्षमादान मिला। और मिथिला नरेश एक बार फिर गोनू झा की बेमिसाल बुद्धि के कायल हो गए, जिन्होंने अपराधी को स्वयं अपना अपराध कबूल कराया।