एक बार गोनू झा मिथिला से अपने गांव जा रहे थे। पैदल का रास्ता था तो उन्हें रुक-रुककर विश्राम करना पड़ता था। रास्ते में खाने के लिए उनके पास थोड़ा सत्तू और लड्डू थे। उस दिन करी धूप पड़ रही थी। गोनू झा पसीने से तरबतर थे। रास्ते में एक सुंदर जलाशय पड़ता था जिसके आसपास सैकड़ो छायादार वृक्ष थे। ऎसे मनोरम स्थान किसी भी पथिक की थकान को दूर करने में सक्षम थे। जब गोनू झा वहां पहुंचे तो उनका हृदय प्रसन्न हो गया। उन्होनें अपना गमछा एक वृक्ष के नीचे बिछाया और लेट गए। उनका विचार था कि पसीना सूखने के बाद वह स्नान करेंगे। लेटते ही उन्हें गहरी नींद आ गई और वह काफी देर तक सोए। उसके बाद उन्होंने जागकर स्नान किया और फिर लोटे में पानी भरकर सत्तू घोले। फिर थैले में से दो लड्डू निकालकर सामने रखे। अभी वह खाने ही जा रहे थे कि सामने से एक थका-हारा पसीने से लथपथ लड़खड़ाता पथिक आता दिखाई दिया। उन्होंने अभी खाना टाला और पथिक की ओर देखने लगे। आने वाला पथिक शाही वस्त्रों से सुसज्जित युवक था।
'आओ भाई, बहुत दूर से पैदल आ रहे लगते हो।" गोनू झा ने अपनत्व से कहा-'आओ बैठो। पहले पसीना सुखा लो।"
"आहा, कितना रमणीय स्थल है।' आगंतुक ने चैन की सांस ली।
जब उसका पसीना सूख गया तो गोनू झा ने उसे सत्तू पीने को दिया जिसे उसने बड़ी कृतज्ञता से पिया। तब दोनों का आपस में परिचय हुआ। संयोग से नाम से दोनों एक-दूसरे से परीचित थे।
"आपका बहुत नाम सुना है पंडित जी।" आगंतुक, जो मगध का राजकुमार चंद्रदत्त था, बोला-'मगध के दरबार में आपकी विद्वता की चर्चा होती रहती है। धन्य है मिथिला जहां आप जैसा मनीषी जन्मा।'
'राजकुमार, प्रभु की कृपा से मुझे आप सबका सम्मान प्राप्त है और मैं इसके लिए सदैव प्रभू का आभारी हूं।" गोनू झा बोले-"अब आप बताएं कि आप इस जंगल में पैदल कहां से चले आ रहे हैं।"
"पंडित जी। मैं अपने अश्व पर सवार कुछ साथियों सहित आखेट पर निकला था। एक हिरण का पीछा करते-करते मैं साथियों से बिछुड़ गया। हिरन एक घने जंगल मे प्रवेश कर गया था। मैं उसके पीछे था। हिरन तो गुम हो गया था और मैं एक सरोवर देखकर रुक गया। मैं और मेरा घोड़ा दोनों ही प्यासे थे। मैंने अश्व को पानी के लिए छोड़ा। पर उस जलाशय में एक विशाल मगरमच्छ था जिसने मेरे घोड़ॆ को दबोच लिया।'
"ओह, बेचारा घोड़ा!"
"मैंने बहुत प्रयास किया पर घोडे को न बचा सका।' चंद्रदत्त उदास स्वर में बोला- "हारकर मैं वहां से चल पड़ा और यहां आ पहुंचा।"
"बहुत कष्ट पाया राजकुमार। खैर, सब प्रभु की इच्छा से होता है। अब आप कुछ खा लीजिए।'
गोनू झा ने बड़े प्रेम से चंद्रदत्त को दो लड्डू दिए। और स्वयं भी दो लड्डू निकाले और खाने के बाद पानी पिया। तत्पश्चात् दोनों लेट गए और बतियाने लगे। चंद्रदत्त अपने राज्य के विषय में बता रहा था।
अचानक गोनू झा की दृष्टि सरोवर किनारे बैठे एक कौए पर पड़ी। कौआ विचित्र हरकत कर रहा था। वह अपनी चोंच को पत्थर पर घिस रहा था। बार-बार पानी में चोंच भिगोता और पत्थर पर घिसता। अचानक गोनू झा के उद्गार फूट पड़ॆ।
'घिसता है घिसता है रुक-रुक लगता पानी, तेरे मन की बात कालिया मैने सब कुछ जानी ।'
राजकुमार चंद्रदत्त ने आश्चर्य से गोनू झा को देखा ।
"अरे पंडित जी, असमय और अकस्मात कविता पाठ ! आप तो कवि भी हैं । सत्य ही आपकी प्रशंसा दूर-दूर तक होती है ।"
"अरे राजकुमार जी, मै कवि नही । मुझे तो उस कौए की चतुराई देखकर अनायास ही यह पंक्तियां याद आ गई ।"
"फिर भी यह रचनात्मकता का अनूठा दृश्य है । और आपकी पंक्तियां भी तो बिल्कुल सटीक और अर्थपूर्ण है । कृपा करके पुनः दोहराए । मैं इन्हे याद रखना चाहता हूंँ ताकि स्मरण रहे कि कभी आपसे भेंट हुई थी ।"
गोनू झा ने पंक्तियां दोहराई जिन्हे चन्द्रदत्त ने रट लिया ।
फिर दोनो ने विदा ली और अपने-अपने मार्ग चल पड़े ।
चंद्रदत्त मगध पहुंचा तो उसने गोनू झा की वह पंक्तियां एक दिवार पर लीख ली और यदा-कदा उन्हे गुनगुनाता रहता । उसे उन पंक्तियों मे कवि की दृष्टव्य कल्पना की अभिव्यक्ति दिखाई देती थी । किस प्रकार एक कौए को कौतुक करते देख कल्पना ने सुन्दर पंक्ति रच दी थी ।
चंद्रदत्त एक योग्य और प्रजावत्सल राजकुमार था । मगध का भावी राजा था । मगध नरेश अब वृद्ध थे कि शीघ्र ही चंद्रदत्त को राज्य की बागडोर सौप दी जाय ।
परंतु यह कार्य खुशी से सम्पन्न न हो सका । मगध नरेश का आकस्मिक निधन हो गया । युवराज चन्द्रदत्त को राज्य की बागडोर संभालनी पड़ी ।
उधर कुछ कुटिल मंत्रियों ने मगध की सत्ता को हथियाने के लिए षडयंत्र रच दिया । वे नये राजा चंद्रदत्त की हत्या की योजना बना चुके थे । राज्य का साही हज्जाम गोपाल नाई भी इस षडयंत्र में उनके साथ था ।
"गोपाल, यही उचित समय है कि हम मगध में सत्ता परिवर्तन कर सकते हैं । भूतपूर्व राजा के समय हमने बड़े घोटाले किए हैं । अब चन्द्रदत्त को उनके बारे मे पता चल गया तो हमे कारागार मे डाल देगा । वह बहूत दूरदर्शी और युवा राजा है । प्रजा पर उसका प्रभाव भी है ।" षडयंत्रकारी मंत्री ने चिन्तित स्वर मे कहा- "इसलिए शीघ्र ही उसे परलोक के लिए विदा कर देना चाहिए ।"
"आप निश्चिन्त रहें मंत्री जी ।" काला भुजंग गोपाल नाई बोला - जल्दी ही मुझे चंद्रदत्त की सेवा मे जाना होगा । वहां मैं उसकी दाढी बनाऊंगा और मेरा पैना उस्तरा एक झटके मे हमारी समस्या दूर कर देगा ।"
"शाबाश! हम तुझे इतना पुरस्कार देंगे कि तूने कल्पना भी न की होगी।"
"अब मैं चलता हूं। किसी ने देख लिया और चंद्रदत्त को बता दिया तो मेरी जान मुश्किल में पड़ जाएगी।"
गोपाल नाई वहां से चला गया।
इस षडतंत्र से अनभिज्ञ परंतु व्यवस्था में फैले भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए चंद्रदत्त नये-नये नियम बना रहा था। वह सब भ्रष्ट अधिकारियों को अपने मंत्रिमंडल से निकालना चाहता था। और एक दिन चंद्रदत्त ने गोपाल नाई को बुला भेजा। गोपाल नाई तो बहुत प्रसन्न हुआ। इस अवसर की प्रतीक्षा में तो वह कई दिनों से था। आज उसका और उसके साथियों का मनोरथ पूरा हो जाएगा।
यह सोचकर वह कुटिल नाई अपने पैने उस्तरे को लेकर राजमहल पहुंच गया जहां चंद्रदत्त उसकी प्रतीक्षा में था।
"महाराज की जय हो। कई रोज बाद सेवक को याद किया।"
"समय का अभाव है गोपाल। राज्य में कुछ अराजक लोगों ने भीतरी उत्पात कर रखा था। सबको उसका दंड देकर ही चैन आएगा।'
"महाराज, क्या आप जानते हैं कि वे कृतघ्न कौन हैं?"
"हमारे गुप्तचर इसी कार्य में लगे हैं। तुम जरा शीघ्र अपना कार्य करो।' गोपाल ने पानी लेकर अपने उस्तरे को भिगाया और अपने पत्थर पर उसे घिस-घिस उसकी धार तेज करने लगा।
तभी वहां एक गुप्तचर आया जिसने राजा चंद्रदत्त से गुप्त मंत्रणा की और चला गया। गोपाल नाई कुछ सुन तो नहीं पाया पर उसे शंका हो उठी। उसे अपना कार्य शीघ्र कर देना चाहिए। उसने अपने उस्तरे की धार देखी और उसे पानी में भिगोकर पुनः घिसा।
'घिसता है घिसता है रुक-रुक लगाता पानी। तेरे मन की बात कालिया मैंने सब कुछ जानी॥
चंद्रदत्त अनायास ही कह उठा। नाई के हाथ से उस्तरा छूट गया। वह कंपकंपा उठा। उसे लगा कि अभी-अभी गया गुप्तचर उसके ही बारे में कुछ कहकर गया है और राजा को सबकुछ पता चल गया है। अब उसके प्राण नहीं बचने वाले। मृत्युदंड निश्चित है। वह तत्काल उस्तरा छोड़कर राजा चंद्रदत्त के पैरों से लिपट गया और बिलख पड़ा।
"क्षमा महाराज क्षमा! मैं लालच में आ गया था। लालच ने मुझे अंधा कर दिया और मैं षडयंत्रकारियों के साथ हो लिया। मैं नही जानता था कि आप इतनी शीघ्र जान जाएंगे।"
राजा चंद्रदत्त उस स्थिति पर हक्के-बक्के थे।
"उठ और सब कुछ साफ-साफ बता।' चंद्रदत्त ने कहा।
"महाराज, आज मैं इस उस्तरे से आपके प्राण लेने आया था। परंतु आप जान गए। आपने कविता कहकर बता दिया कि आपसे कुछ नहीं छुपा। मुझे क्षमा करें महाराज। मैं बहक गया था।"
"क्षमा चाहता है तो शीघ्र अपने सभी साथियों का नाम बता।'
नाई ने तोता की तरह सारी जानकारी बता दी। राजा ने तत्काल सैनिकों को बुलाकर षड्यंत्रकारियों की गिरफ्तारी का आदेश दिया। सारे शत्रु बंदी बना लिए गए और भरे दरबार में प्रजा के सामने नाई ने साक्षी बनकर सबका भेद खोल दिया। चंद्रदत्त ने सबको बंदीगृह में डलवा दिया और नाई को राज्य से बाहर निकाल दिया।
और जब वह सारे कार्यों से निवृत्त हुआ तब सोच में पड़ा।
आज एक कविता ने उसे जीवन ही नहीं दिया था बल्कि उसके शत्रुओं को भी सदैव के लिए मार्ग से हटा दिया था। वह कविता तो जैसे जीवनदायिनी थी। आज उसका हृदय गोनू झा के प्रति कृतज्ञता से भर उठा और वह उनके दर्शन को लालायित हो उठा। और अगले ही दिन चंद्रदत्त अपने कुछ विश्वसनीय साथियों सहित घोड़ों पर सवार होकर गोनू झा के गांव भरौरा चल पड़ा। जब मगध की शाही सवारी गोनू झा के घर के सामने रुकी तो सारा गांव आश्चर्य में पड़ गया। गोनू झा ने मगध नरेश और उनके साथियों का भरपूर स्वागत किया। फिर मगध नरेश ने एकांत में उनसे बात करने की इच्छा व्यक्त की।
दोनों एकांत में पहुंचे।
'पंडित जी, यह तो मैं जानता था कि आप विद्वान हैं परंतु यह मुझे अब पता चला कि आप कोई अलौकिक आत्मा हैं।' चंद्रदत्त साभार बोला-'आपकी वह कविता मात्र आपका उद्गार न थी बल्कि भविष्य की चेतावनी थी। आज उसके कारण मैं आपके समक्ष जीवित हूं।
"मैं समझा नहीं महाराज।' गोनू झा मुस्कराए।
तब चंद्रदत्त ने अपने साथ घटे घटनाक्रम को सुनाया। गोनू झा भी आश्चर्यचकित रह गए।
'महाराज, यह मां काली की असीम अनुकम्पा आप पर हुई है। यह आपकी उदारता है कि इसका श्रेय आप मुझे दे रहे हैं।'
"पंडित जी, मैं बहुत प्रसन्न हूं कि आप जैसे परमविद्वान के अल्पसमय के सान्निध्य ने मेरा जीवन भी बचाया और मेरे शत्रुओं का भी सफाया किया।'
'यह सब ईश्वर का चमत्कार है।"
पंडित जी, मैं आपसे एक विनती करना चाहता हूं।'
"आदेश करें मगध नरेश।"
आप मेरे साथ मगध चलें। मैं आपको अपने राज्य का प्रधानमंत्री बनाकर मगध की प्रगति का स्वप्न देख रहा हूं।"
"महाराज, आपका यह सम्मान मुझे अभिभूत कर गया। परंतु मैं आपकी यह सेवा करने में असमर्थ हूं। मैं अपनी जन्मभूमि मिथिला का ऋणी हूं और उसका ऋण तो उसकी सेवा द्वारा चुकाना होगा। मुझे अन्य कोई आदेश करें।"
"धन्य है मिथिला, जहां आप जैसे विद्वान और देशभक्त ने जन्म लिया। मैं आशा करता हूं कि आप एक विद्वान होने के नाते आवश्यकता पड़ने पर मुझ नए शासक का मार्गदर्शन अवश्य करेंगे।"
"अवश्य राजन्! यह मेरा सौभाग्य होगा।"
तत्पश्चात् राजा चंद्रदत्त भावभीनी विदा लेकर और गोनू झा को ढेरों उपहार देकर मगध को लौट गए। सारा गांव आश्चर्यचकित भी था और गर्व से फूला जा रहा था कि उनके गोनू झा की ख्याति मगध तक फैल गई थी।
और गोनू झा की पत्नी तो ऎसे पति को पाकर अति प्रसन्न थी ही।