गोनू झा और नौ का सौ

जिन दिनों गांव में गोनू झा खेती करते थे, उन दिनों उनके कारनामे भी सुनने को मिलते थे। जैसा आसपास होता था, वह वैसा ही करने में भरोसा रखते थे। 'शठे शाठ्यम समाचरेत' जैसे उनका मूलमंत्र था। उन दिनों देहात में चोरी और ठगी तो आम घटनाएं थी। लोग एक-दूसरे पर अपनी बुद्धि का प्रयोग करते। गोनू झा भी कई बार इस तरह माल बना लेते थे पर उन्होनें हमेशा उसे ही निशाना बनाया जो किसी कारण उन्हें या किसी और को सता चुका होता था। एक बार गोनू झा एक बैल मर गया। दो बैलों की उनकी जोड़ी सारे गांव में प्रसिद्ध थी। जैसे मुंशी प्रेमचंद की 'दो बैलों की कथा' के बैल हीरा-मोती थे, वैसे ही गोनू झा के बैल थे। उनके नाम राका, शाका थे। पर होनी की बात थी कि राका मर गया। जोड़ी बिछड़ी तो शाका ने भी खाना-पीना छोड़ दिया। बड़ी कठिन परिस्थिति थी। तब अपनी पत्नी की सलाह पर गोनू झा ने शाका को बेचने का विचार किया।

"इसने दाना-पानी छोड़ दिया है।" पत्नी ने कहा-"और यही हाल रहा तो कुछ ही दिन में यह पिंजर हो जाएगा। अच्छा यही है कि इसे बेचकर दो छोटे बछड़े ले आओ। इतनी कीमत तो अभी इसकी है कि दो छोटे बछड़े आ जाएगें। उन्हें पालेंगे तो कुछ दिनोंं मे जोड़ी बन जाएगी ।"

"बात तो तुम्हारी बिल्कुल ठीक है । मैं कल ही इसे पैठ में ले जाकर बेच देता हूं और वही से दो बछड़े भी लेता आऊंगा ।" गोनू झा ने कहा ।

और अगले ही दिन सुबह-सुबह वह चल पड़े । बैल देखने मे बहुत आकर्षक था और अपने जोड़ीदार बैल के साथ तो उसकी जोड़ी बड़ी ही शानदार थी। गोनू झा मुंह अंधेरे ही बाजार की तरफ चल पड़े।

बाजार दूर था। बैल क्यौंकि पहली बार अकेला जा रहा था तो वह भी मुश्किल से कदम उठा रहा था। एक जगह ठहर जाता जो दस-पांच डंडे खाकर ही आगे बढता। उसने गोनू झा की नाक में दम कर दिया। कई बार तो उन्होंने वापस चलने का निर्णय कर लिया था। पर अब धूप भी निकल आई थी और एक तिहाई रास्ता तय भी हो गया था। वह जैसे-तैसे बैल को हांके ले जा रहे थे। तभी उन्हें मार्ग में एक कुएं पर बैठा नौजवान मिला जो दातुन कर रहा था।

"राम-राम भाई! बैल को क्या बाजार ले जा रहे हो?" युवक ने पूछा।

"हां भई!" गोनू झा ने कहा।

'अच्छा कर रहे हो। इसके पैरों में घुमाव है। जब तक इसकी जोड़ी का बैल साथ न हो यह अपने मालिक ले लिए अशुभ है। यह चार कदम आगे चलेगा और छह कदम पीछे।" युवक ने कहा।

गोनू झा उसकी बात सुनकर आगे बढ चले। यद्यपि उनका दिमाग तो कुलबुला गया था। वास्तव में जोड़ के बिना शाका अपने मालिक के लिए मुसीबत ही था। बस बाजार तक पहुंच जाए। सौ रुपए में तो बिक ही जाएगा। तीस-तीस,चालीस-चालीस रुपए में बछड़े आ जाएंगे।

तभी मार्ग में एक और नौजवान एक बकरी के साथ बैठा मिला।

"पैंठ चल रहे हो भई ।" युवक बोला - मैं भी अपने बकरी ले जा रहा हूं ।

अरे, इस बैल को बेच रहे हो या इसकी जोड़ी का दूसरा लाओगे ।"

"बेचने जा रहा हूं ।"

'मेरे पास इसकी जोड़ी का बैल है। चाहो तो खरीद सकते हो। एक बैल मेरे किसी काम का नहीं है। सस्ता दे दूंगा। तुम्हारी जोड़ी बन जाएगी।"

'कहां है तुम्हारा बैल?"

"घर पर है। यहां से बारह मील दूर है।"

गोनू झा ने विचार किया कि अब बारह मील कौन जाए। बाजार कौन दूर था। वैसे भी जेब में कुछ नहीं था। ऊपर से कोई गारंटी नहीं थी उनका बैल दूसरे बैल के साथ ठीक से रह पाता। वह तो अपने पुराने जोड़ीदार के गम में डुबा पड़ा था।

'भई, अब तो इसे बेचूंगा।"

"तो मुझे दे दो। मेरी जोड़ी बन जाएगी।"

"हां यह कर सकता हूं।'

"तो फिर कीमत बोलो। देखो कीमत ठीक से बताना। मैं भी बकरी बेचने जा रहा हूं। नौ रुपए मांगता हूं।"

गोनू झा ने बकरी देखी। बकरी बीस रुपया से कम न थी।

"भई, मैं तो बैल को सौ रुपए से कम का न दूंगा।" वह बोले।

"ज्यादा मांग रहे हो भई! यह बेचने वाली बात तो नहीं है।'

'इससे कम में तो मैं नहीं दूंगा।'

"अच्छा! ऎसा करते हैं बाजार चलते हैं। कोई और मिलता है उसे अपने सौदे का बिचौलिया बना लेंगे। वह जो भी कीमत रखे।'

'ठीक है। यही करते हैं।'

दोनों चल पड़े। कुछ दूरी पर चलने पर उन्हें एक झोपड़ी दिखाई दी जिसके सामने एक बुड्ढा हुक्का पी रहा था।

'इस बूढे से पूछते हैं। अनुभवी लगता है। किसान भी है।"

चलो पूछ लो।

दोनों ने बुड्ढे के पास जाकर उसे प्रणाम किया।

'आओ भई, अरे यह बकरी क्या बेचने जा रहे हो! भलेमानस, ऎसी बकरी कहीं बेची जाती हैं। घर की लक्ष्मी समझो। धनिक वर्ण की है। हर बार दो बच्चे देती होगी। क्षीर जाति की है। आठ लीटर से क्या कम दूध देगी।"

"सो तो है बाबा!" युवक बोला-"मेरे पास इसी के सात बच्चे हैं जिनमें तीन तो बकरी हैं और अच्छा दूध दे रही हैं। चार बकरे हैं।'

"वही तो, फिर तुझे क्या सुझी । अरे, इसके बिना तो सातों बेकार और यह एक अकेली किसी भी घर मे भंडार भर देगी ।"

"अब बाबा, किसी का तो भला होगा ।" युवक हंसा ।

गोनू झा का मन ललचा उठा । ऎसी बकरी रोज कहां मिलती है ।

"तुम इस बैल को ले जा रहे हो ।" वृद्ध ने बैल को देखा ।

"इस बैल को तो मैं ही खरीदने वाला हूं ।" युवक जल्दी से बोला ।

"भई, इसकी जोड़ी का बैल मिलना मुश्किल लगता है । इसके पांवो मे घुमाव है । खैर ले लो । कोई बात नहीं ।शायद खूटा बदलने से सुधर जाए ।"

गोनू झा को लगा कि उनका बैल अमंगलकारी है ।

"तो बाबा आप ही इसकी कीमत बताइए । यह तो सौ रुपया मांगते हैं जबकी मै अपनी बकरी को नौ रुपए मांग रहा हूं ।"

"भाई, कीमत तो दोनो की बराबर सी है । नौ का सौ में, सौ का नौ में। घाटा तो किसी को नही। बकरी तो एक बार बच्चे देगी तो सौ की हो जाएगी। और बैल का तो भई, कहा नहीं जा सकता।' वृध्द ने कहा।

'क्या कहते हो भई बाबा की बात में दम लगता है। बुजुर्ग हैं और सबसे बड़ी बात कि समपक्षीय हैं। न तुमसे कुछ लेना, न मुझसे कुछ लेना।'

गोनू झा सोच में पड़ गए। बैल तो वाकई उनका भरोसे का न रहा था। बकरी में उन्हें मुनाफा दिखाई देने लगा था।

'बताओ भई।" युवक ने कहा-"नही तो बाजार चलते हैं।"

"अब भई, पशु-पक्षी के सौदे तो ऎसॆ ही होते हैं। जुबान तो आदमी की है। मेरे विचार से तो तुम दोनों ही घाटे में नही हो।"

"ठीक है।" गोनू झा ने एक बार बकरी की तरफ देखा। नौ रुपए में बकरी। और बैल के बदले बकरी लेकर वह घर लौट आए। घर पहुंचे तो पंडिताइन ने बकरी देखो और चिंहुक पड़ी।

"अरे यह बांझ बकरिया कहां से ले आए?"

"ब....बांझ? क्या...क्या कहती हो?" गोनू झा हक्के-बक्के रह गए।

"और क्या? अंधे को भी दिखाई दे रही है। दोनों दुध सूखे पड़े है। और बैल का क्या कर आए। गए तो बछड़े लेने थे।'

"यह...यह बकरी बैल के बदले ही तो लाया हूं।'

"हाय राम! किसी ने खूब उल्लू बनाया। कहां फंस गए थे।"

गोनू झा ने विस्तार से सारी बात बताई।

"जय काली मां! पूरी ठगमंडली के हाथों में पड़ गए। अरे, वे तीनों ही एक थे।' अब गोनू झा के नेत्र खुल गए। उन्हें खुद पर गुस्सा आ रहा था।

"वाकई, मैं तो समझता था कि मैं चतुर हूं पर उन सबने तो मुझे उल्लू बना दिया। अब तुम देखना कि मैं क्या करता हूं।"

'अब रहने दो। ऎसे लोगों से भिड़ना ठीक नहीं होता।'

"घबराओ मत। मैंने भी उन्हें छठी का दूध याद न करा दिया तो मेरा नाम गोनू झा नहीं। तुम जरा अपने एक जोड़ी कपड़े दो।"

पंडिताइन समझ गई कि पंडित जी बदले की भावना में हैं और ऎसे में उनका दिमाग बहुत तेज चलता है। उन्होंने अपने एक जोड़ी कपड़े उन्हें लाकर दिए। उस रात गोनू झा की आंख ही न लगी। सारी रात वह अपनी योजना को सजाते-संवारते रहे। सवेरे मुंह अंधेरे ही वह जनाना वेश धरकर घर से निकल पड़े। मां काली की कृपा से अभिनय तो उनकी नस-नस में बसा था। और मजे की बात यह रही कि पहला जवान ठग उन्हें दूर से ही दातून करता दिखाई पर गया। गोनू झा ने वहीं से नाटक शुरू किया। वह सुबकने लगे और धोती की पल्लू से बार-बार आंसू पोंछने लगे। जवान के पास से गुजरते हुए उन्होनें एक बार जोर की सुबकी ली और चाल तेज कर दी।

'अरे सुनिए।' पीछे से जवान लपकता आया-"आप तो मुझे बहुत परेशान लग रही हैं। कोई गलत कदम उठाने जा रही लगती हैं। क्या बात है?"

क्या बताऊं भैया? सास तो सास,आदमी भी राक्षस है। मार-पीटकर घर से निकाल दिया है। अब तो कुंआ, खाई ही मेरा सहारा है।"

'ऎसा क्यों कहती हो। भैया कहती हो और ऎसी बात करती हो। मेरे घर चलो।

भगवान की कृपा से सबकुछ अपने पास है। बस कोई बहन नहीं। घर में बूढे पिता और बड़ा भाई है। तुम हमारा भोजन भी बना दिया करोगी तो भी बड़ी बात है।"

"भैया, तीन मर्दों के बीच रहकर..."

'अरे, दुनिया तो कहती ही है। और वैसे भी हम तो दूर जंगल में रहते हैं। दुनिया से क्या लेना-देना। और फिर मेरे पिता से मिलना। वह कोई न कोई रास्ता जरूर बताएंगे । बुजुर्ग और अनुभवी हैं।

'ठीक है भैया। चलती हूं। तुम्हारा बहुत धन्यवाद!"

युवक, गोनू झा को लेकर आगे बढा तो रास्ते में दूसरा ठग मिला, जिसके साथ एक भेड़ का बच्चा था।

'यह मेरा बड़ा भाई है।" पहला युवक बोला-'बहुत अक्लमंद है।'

'अरे छोटे, यह कौन है?' बड़े ने पूछा।

'यह एक दुखियारी है भाई। सास और पति ने घर से निकाल दिया है। मैंने इसे धर्मबहन बना लिया है। आज से यह हमारे साथ रहेगी। हमें भी बना बनाया भोजन मिल जाएगा और इसका भी समय कट जाएगा।"

'ठीक है भाई। यह तूने पुण्य का काम किया। काका बहुत खुश होगा।'

काका वाकई बहुत खुश हुआ। शातिर ठग था। बेटों का विवाह तो होने वाला नहीं था। घर में स्त्री के बिना क्या है। खुशी से घर में रख लिया। घर जंगल में इकलौता था। शाम को भोजन की बात आई।

'रसोई तो खाली पड़ी है। आटे में रेत मिला है। मसाला कोई है नहीं। सब्जी भी कुछ नहीं है। मैं क्या पकाऊं।" स्त्री रूपी गोनू झा ने कहा।

"तुम सामान लिख दो। मैं अभी दो घंटे में बाजार से लाया।" बड़ा बोला।

गोनू झा ने पचासों सामान गिनवा दिए। अब घर में स्त्री की रसोई तो इतने ही सामान से बनती है। बाजार चला गया।

मुझे तो घर में उपले भी नहीं दिख रहे।' गोनू झा ने कहा।

'उपले कौन बनाता। अब तुम खुद ही बनाना। दो-चार भैंस ले लेंगे।'

"पर उपलों के बिना दाल-भात, रोटी-साग क्या अच्छा पकता है।"

"मैं लाता हूं। पड़ोस के गांव से।" छोटा भी चला गया।

तब गोनू झा अपने असली रंग में आए। उन्होंने एक मोटा डंडा उठाया और बूढे को ठोकना शुरू किया।

अरे...अरे... तू कौन है? बूढा चीखा-चिल्लाया।

"नौ का सौ और सौ का नौ।" गोनू झा ने पिटाई जारी रखी-"मेरा बैल ठगकर बांझ बकरी दे दी कमीने। बता ठगी का माल कहां है वरना प्राण ले लूंगा।'

'मुझे मत मार। उस कोने में हंडिया रखी है। खोद ले जा।'

बूढे को बुरी तरह धुनकर रोता-कराहता छोड़ गोनू झा ने हंडिया खोदी और सारा माल पोटली में बांधकर चले अपने घर। माल काफी था। नगदी, जेवर आदि थे। गोनू झा अभी उनका पीछा न छोड़ने का मन बना चुके थे।

अगली सुबह ही वैद्य का भेष बनाया और चल पड़े। इस बार दोनों युवा ठग अपने घर के सामने चिंतित बैठे मिले।

'अरे ओ वैद्य जी! वैद्य ही हो न!" बड़ा भाई लपककर आया।

"हां भैये! क्या परेशानी है। कोई बीमारी है क्या?"

"हमारे काका छत से गिर गए हैं। सारे शरीर में नीले निशान पड़े हैं। दर्द के मारे बुरा हाल है। चलकर कोई दवा-दारू करें तो कृपा होगी।'

वैद्य जी अंदर पहुंचे। बूढे को कसकर हाथ परे थे। अभी तक कराह रहा था। सारा शरीर सूज गया था।

'राम राम! लगता है गिरकर भी लुढकते रहे हैं। बूढा शरीर है। कमलगट्टा और मकोय के बीज लाने होंगे। जल्दी आराम मिल जाएगा।" वैद्य जी बोले।

बड़ा लड़का तत्काल बाजार चला गया। करीब दस मिनट बाद।

'घर में तिल का तेल और मुल्तानी मिट्टी तो होगी।' वैद्य ने पूछा-'घरों में आम पाई जाती है।'

'हमारे घर में तो नहीं है। बड़े भैया को बता देना था।" छोटा भन्नाया।

'मैं समझा कि मामूली चीजें हैं, घर में होगी। जाकर देखो, तुम्हारा भाई अभी दूर न निकला होगा। उसे बोलना, जल्दी लौटे। मुझे मरीज देखने जाना है।'

छोटा घर से निकल गया। गोनू झा ने फिर डंडा उठाया और कसकर बुड्ढे के घुटने में दिया।

"अरे मर गया रे!"

"क्यों? नौ का सौ और सौ का नौ न करेगा।"

"भैये! मर जाऊंगा। मुझे क्षमा कर। जीवन में पहली बार गलत आदमी ठगा है। दूसरे कोने में भी एक हंडिया है। ले जा पर मुझे न मार।'

गोनू झा ने देर नहीं की और वहां से माल समेटकर चल पड़े। घर जाकर विचार बनाया कि ठ्गों के घर में अभी दो कोने और बाकी थे। और भी इधर-उधर माल होगा। गांव के हीरन के पास पहुंचे।

"हीरन चल मेरे साथ । पांच सौ कमाएगा ।" गोनू झा बोले ।

"गोनू झा ! तुमसे तो अब भय लगने लगा है ।" हीरन बोला - "तुम तो हमारे गुरु हो । ऎसा फंदा कसते हो कि जान ही सांसत मे आ जाती है ।"

"अरे उस बात को भूल जा । तू चाहे पहले अपने पांच सौ रुपया ले फिर मेरा काम कर देना । काम मामूली है । आराम से कर लेगा ।"

'पहले काम बताओ गुरु!'

'तुझे जंगल में एक जगह हांक लगानी है कि नौ का सौ, सौ का नौ। और फिर वहां से भाग लेना है । शर्त यह है कि भागने मे कोताही नही करनी । तेरे पीछे दो लोग दौड़ेगें । पकड़ाई मे आ गया तो संकट मे पड़ जाएगा । बस दौड़ने पर निर्भर करता है ।"

"दौड़ने में गुरु मै चीता हूं । जानते नही क्या ?"

"इसीलिए तेरे पास आया हूं । बोल दू पांच सौ रुपया ।"

"काम अगर यहीं है तो बाद मे दे दीजिएगा । आप भले आदमी हैं । हम तो उठाई गिरे हैं । पैसे लेकर काम न किया तो । "

एक ही धंधे मे ईमानदारी तो होनी ही चाहिए ।"

हीरन को मानना पड़ा । दोनो चल पड़े । जंगल मे घर के पिछवारे जाकर गोनू झा ने बताया कि वहां से हांक लगाते ही दौड़ लेना है ।

हीरन घर के सामने पहुंचा। "ले लौ नौ का सौ में, सौ का नौ में।' हीरन ने जोर से आवाज दी और वहां से हिरन की तरह कुलांचे भरकर घने जंगल की ओर दौड़ पड़ा।

"आ गया। पकड़ो। मारो।' भीतर से कोलाहल हुआ। गोनू झा देख रहे थे।

दोनों भाई लाठियां लेकर हीरन के पीछे थे। हीरन उनसे चार खेत आगे दौड़ रहा था। गोनू झा ने तत्काल घर में प्रवेश किया डंडा उठाकर बूढे को टहोका।

"बाबा, मैं फिर आ गया। नौ का सौ, सौ का नौ।'

'अरे बाप रे! भैये मारना मत। सारा माल ले जा।" बूढा रो पड़ा और उसने एक ही सांस में सब बक दिया।

गोनू झा ने अपना तहमद बिछाया और सारा माल समेटकर बांधा। और उन्होनें जरा भी देर न करके घर का रास्ता पकड़ा।

घर पहुंचे तो हीरन हांफता हुआ दरवाजे पर बैठा मिला।

'आ गया हीरन! पकड़ाई में तो नहीं आया।' गोनू झा मुस्कराए।

"राम भजो पंडित जी। सालों को इतना दौड़ाया कि थककर गिर ही पड़ॆ। आपका काम हुआ कि नहीं।' हीरन ने पूछा।

गोनू झा ने जेब से पांच सौ रुपए निकालकर उसे दिए। हीरन खुश हो गया। पहली बार ईमानदारी देखने को मिली उसे, जिसमें भरपूर मुनाफा हुआ।

"गुरु, अब चक्कर भी बता दो तो कृपा हो।" हीरन ने पूछा।

गोनू झा ने सब कुछ बता दिया।

'मैं फीरन के साथ जाकर टटोलता हूं। ठगों के पास माल की क्या कमी होगी।'

"देख लो। खतरा बढ गया है। इस बार वे गफलत न करेंगे।'

अगले दिन हीरन-फीरन पहुंचे तो ठग मंडली घर छोड़कर वहां से भाग गई थी। खूब तलाशी और खोज करने पर रसोई में मिर्च-मसाले के सिवा उन्हें कुछ न मिला। उन्होंने उसी पर सब्र कर लिया।

पर साथ ही यह इरादा कर लिया कि गोनू झा को गुरु बना लिया।

गोनू झा एक बैल के बदले बैलों की नई जोड़ी ले आए और कच्चे मकान का अगला हिस्सा पक्का बनवा लिया। और फिर दस किलो मिठाई लाकर सारे गांव में बांट दी। यह किस्सा गांव के बच्चे-बच्चे को हीरन-फीरन की जुबानी सुनने को मिल गया था। सारा गांव गोनू झा को मान गया।