एक बार गोनू झा और उनके परम मित्र फेरन मिश्र बैठे बातें कर रहे थे। "गोनू, इन दिनों तुम्हारी बड़ी चर्चा है। तुम्हारे कौतुक सुन-सुनकर आश्चर्य होता है।' मिश्रा जी ने मुस्कराकर पुछा-'तुम इतनी सारी बुद्धि कहां से लाए। और कैसे तुम हर परिस्थिति पर काबू कर लेते हो।'
'मिश्रा जी, हम ब्राह्मण कुल में जन्मे हैं। बुद्धि तो हमारा पुश्तैनी गुण है। हम लोग मानव वर्ग में श्रेष्ठ यूं ही नहीं कहे जाते।" गोनू झा हंसकर बोले-'हमें तो जन्मजात चतुराई मिलती है। परिस्थिति को पढकर उसके अनुसार ही बुद्धि का प्रयोग करना हमारी विशेषता होनी चाहिए। इसे ही तो संसार में बमनपेंच कहते हैं।'
"कौन-सा पेंच?" मिश्रा जी चौंक पड़े।
'बमन पेंच। दुनिया में दो ही तो पेंच हैं जो कस जाएं तो सरलता से खुल नहीं सकते। एक है क्षत्रिय पेंच, एक है बमन पेंच।'
"कमाल है। हम भी इसी कुल में जन्में हैं और पचास बरस से पंडिताई कर रहे हैं फिर भी इस पेंच की महिमा नहीं जानते।"
"जानते हैं। प्रयोग भी कर रहे हैं पर धर्म और आस्था के आश्रय में। हम बुद्धि और चतुराई के साथ करते हैं।"
"अच्छा! यह तो बताओ कि यह बमन पेंच किसी ब्राह्मण पर भी काम करेगा।"
'पेंच तो मिश्रा जी हर जगह काम करता है। बस कसने वाला चाहिए।'
'तो भई, तुम मुझे दिखाओ कि यह किस तरह का पेंच है। मुझ पर अपनी यह विद्या चलाओ तो जानूं।'
"रहने दो मिश्रा जी। आपस में चतुराई नहीं दिखाई जाती। इससे राम-राम में भी विघ्न आ सकता है।"
"अरे कुछ नहींं होगा। हम दोनों तो मित्र हैं। हमारे बीच मनमुटाव कभी हो की नहीं सकता। यह तो बस सीखने के लिए कह रहा हूं।"
"छोड़ो इस बात को। कोई और बात करो।'
"नहीं भाई। यह बमनपेंच तो तुम्हें दिखाना ही होगा। मैं भी तो बामन हूं। हो सकता है कि पेंच मैं जानता होऊं बस प्रयोग न पता हो। क्या पता मैं तुम्हारे पेंच को काट ही दूं।"
"देखेंगे। फिलहाल इस बात को खत्म करो और कुछ खाने को मंगाओ।'
'मिठाई चलेगी।'
"चलेगी क्या दौड़ेगी। मंगाओ तो सही।"
मिश्रा जी ने अंदर से थाली भरकर मिठाई मंगाई जिसे दोनों खाने लगे।
इस बात को कई हफ्ते बीत गए थे। मिश्रा जी तो बिल्कुल ही भूल गए थे। श्राद्ध पक्ष चल रहा था तो समय ही कहां था। दिन में पिंडदान कराने जाते और गठरी बांधकर शाम को लौटते। कमाई का समय था तो और कोई बात कहां याद रह जाती है। मगर गोनू झा नहीं भूले थे। उन्हें मिश्रा जी को बमनपेंच दिखाने की उत्कंठा हो चली थी। उन्हें मिश्रा जी को दिखाना था कि वह कैसे बुद्धि और अभिनय का प्रयोग करके अपना काम सफल कर लेते थे। और एक दिन वह मिश्रा जी से मिलने शाम ढले पहुंचे।
"अरे आओ गोनू! बड़े दिनों बाद दर्शन हो रहे हैं।' मिश्रा जी चहके।
"आपका तो धनवर्षा पक्ष में समय ही नहीं है। मैं भी इन दिनों एक जरूरी काम में फंसा पड़ा था। मरने की भी फुरसत नहीं है। आपसे सहायता की आशा लेकर आया हूं।" गोनू झा ने कहा।
'अरे, कहो न! और बैठो तो सही।'
'बैठूंगा नहीं। समय नहीं है। एक कार्य सौंपकर जा रहा हूं। मेरे पास हफ्ते भर जरा भी समय नहीं है। आप कल से फुरसत में आ जाएंगे तो आशा है कि आप मेरा काम करके रखेंगे।"
'अरे आदेश करो भई।'
'ऎसा है कि इन दिनों मैं एक विशेष पूजा कर रहा हूं और उसमें मुझे एक हजार मिट्टी के सिक्कों की आवश्यकता है। आपके पड़ोस में कुछ कुम्हार भी हैं। आपकी बात कोई नहीं टालेगा। पांच सौ सिक्के तो मुझे हर हाल में अगले हफ्ते चाहिए। बाकी पांच सौ अगले पंद्रह दिनों में।'
"अरे तो भी कोई काम है। इसके लिए ही इतने व्याकुल हो। तुम्हारा यह काम तो समझो हो भी गया। कल श्राद्धपक्ष का आखिरी दिन है। मैं तो फिर निठल्ला ही हो जाऊंगा।"
"फिर मैं चलता हूं। आपको कष्ट दे रहा हूं पर क्या करूं। किसी और पर भरोसा भी तो नहीं कर सकता।"
'इसमें कष्ट कैसा। मित्र ही तो मित्र के काम आता है।'
"अच्छा मैं चलता हूं।" गोनू झा इतना कहकर वहां से चलते बने।
फिर एक हफ्ते बाद उनके साथ पलटन झा भी थे। वह मिश्रा जी के घर के दरवाजे पर पहुंचे।
'अरे मिश्रा जी, घर पर हैं क्या?' गोनू झा ने हांक लगाई।
मिश्रा जी दौड़कर बाहर आए।
'अरे गोनू झा, अंदर आओ भई। बाहर क्यों खड़े हैं।"
समय की कमी मिश्रा जी। मैंने बताया तो था। मेरा काम हुआ कि नहीं।
'हो गया। अभी लाता हूं। मिश्रा जी अंदर गए। और जब वह बाहर आए तो उनके हाथ में एक मखमल की थैली थी।
'ये लो। पूरे पांच सौ हैं। बाकी पांच सौ जब कहो तब दे दूंगा।'
'ठीक है। पर जल्दी करना। जल्दी ही आवश्यकता होगी।'
'अरे कहा न, जब चाहो तब।'
"धन्यवाद। आओ पलटन भाई।"
दोनों वहां से चल पड़े। रास्ते में पलटन झा ने इस बारे में पूछा।
'अरे कुछ नहीं। मिश्रा जी ने हजार रुपए उधार लिए थे। जरूरी काम था। मेरे पास थे तो समय पर काम चला दिया। आज तुम्हारे सामने पांच सौ रुपए दे दिए हैं। बाकी फिर दे देंगे।"
और इस तरह पंद्रह दिन और बीत गए। इस बीच बरसात हो गई। एक दिन राह चलते मिश्रा जी को गोनू झा चौपाल पर लोगों के बीच गप्प लड़ाते दिखे।
'गोनू, भई कहां रहते हो भलेमानस। कभी तो दर्शन दिया करो।"
'मिश्रा जी, बताया तो था कि व्यस्त हूं। आजकल में आने वाला था वो पांच सौ लेने। सोचा व्यवस्था हो गई होगी।' गोनू झा बोले।
'व्यवस्था तो हो गई थी पर बरसात ने सब गुड़गोबर कर दिया। सब भीग गए। अब तो चार-पांच दिन और लगेंगे।'
'मिश्रा जी, मुझे तो बहुत आवश्यकता है।'
'अरे तो चार दिन ठहरो। मरे जा रहे हो।'
'ठीक है चार दिन और सही।'
मिश्रा जी चले गए तो गोनू झा चुप बैठ गए।
'क्या बात है गोनू झा।' एक बुजुर्ग ने पूछा-"कुछ समस्या है।"
'काका, पैसे का लेन-देन कभी मित्रता में न करें। मिश्रा जी ने हजार रुपए लिए थे। महीना होने आया। पांच सौ रुपए तो पलटन झा के सामने दे दिए थे। बाकी देने का नाम ही नहीं। टालमटोल कर रहे हैं। अभी भी तुम सबके सामने कहकर गए हैं कि चार दिन में दे देंगे। देखता हूं चार दिन और! मित्र हैं ज्यादा तो कह भी नहीं सकता।"
'यही तो।' काका ने कहा-'उधार प्रेम की कैंची है। मित्र को दो तो मित्रता कटे। भाई को दो तो रिश्ता।"
"अब क्या करें। है तो लोगों की सहायता करना भी तो धर्म ही न।"
इतना कहकर गोनू झा उठकर वहां से चले गए। पीछे लोगों में कई तरह की बातें हुई। कोई मिश्रा जी के बारे में कहता कि उन्हें ऎसा नहीं करना चाहिए यह तो मित्रता का नाजायज लाभ है।
"अरे, गोनू झा कौन कम हैं । कहीं से कमाकर लाकर दिए थे ? यह तो ठगी का पैसा है । ऎसे ही लुटेगा । चोरी का माल मोरी में ।" और किसी ने कहा ।
सात दिन और गुजर गए । एक दिन मिश्रा जी अपने द्वार पर सुबह-सुबह बैठे थे कि जोरावर नाइ पहुंच गया ।
"पांय लागू पंडित जी । चौपाल पर पंचायत है । आपको बुलाया है ।"
"पंचायत ! कैसी पंचायत ? किस बात की है ।" मिश्रा जी चौंके ।
"जाकर देखिए सब आंखेंखुल जाएंगी ।" नाई कहकर चला गया ।
मिश्राजी असमंजस मे रह गए । धोती कुर्ता पहना और चौपाल की ओर चले गये । वहां पहुंचे तो सारा गांव वहां उपस्थित था । गोनू झा भी बैठे थे और पंच परमेश्वर भी बैठे थे ।
"आइए मिश्रा जी ।" पंच बोले - "यह क्या मिश्रा जी । मित्रता मे ऎसा करना आपको सोभा नही देता । आप गांव के गणमान्य व्यक्ति हैं । आपही ऎसा करेंगे तो वांकी सब क्या कर डालेंगे ।"
"क्या ` ` ` क्या हुआ ?" मिश्रा जी हकबकाए ।
"गोनू झा ने आप पर आरोप लगाया है कि आप उनके पांच सौ रुपये के देनदार हैं । जिन्हे देने मे आप टालमटोल कर रहे हैं । गवाह भी यहीं हैं । पलटन झा कहते हैं कि आपने अपने हाथो से उनके सामने गोनू झा को पांच सौ रुपये दिए थे और शेष पांच सौ के लिए बाद मे कहा था ।"
"मगर --मगर--- गोनू झा यह सब क्या है भई ।"
"अब क्या करू मिश्रा जी । मित्रता के नाते तकादा ज्यादा तो नही कर सकता था । आप थे कि रोज बहका रहे थे । तब पंचायत की शरण मे आया ।"
"पर वे मिट्टी के हजार सिक्को की बात थी थी भई ।" मिश्रा जी झल्लाए ।
"मिट्टी के ! क्या कह रहे हैं । मिट्टी के भी सिक्के होते हैं । और होते हों तो क्या करुंगा उनका मैं और क्या करेंगे आप । देखा पंचो, अब मिश्रा जी क्या नया गुल खिला रहे हैं ।" गोनू झा बोले ।
मिश्रा जी, वृद्ध काका ने कहा - "हफ्ते भर पहले इसी चौपाल पर हम दस लोगों के सामने आप गोनू झा को चार दिन बाद पांच सौ रुपये देने की बात कहकर गए थे । अब इतने लोग तो झूठे नही हैं ।"
"मिश्रा जी, यह अधर्म मत कमाइए । आप पूजा-पाठ करने वाले सात्विक और धार्मिक ब्राह्मण हैं । पंचायत आपको आदेश देती है कि आज शाम तक गोनू झा के पैसे चुका दें नही तो आप आर्थिक दंड पाएंगे ।"
पंचायत का फैसला सर्वमान्य होता है। मिश्रा जी ने बरछी फेंकती नजरों से गोनू को घूरा जिसने उनके साथ खेल खेला। अरे, पैसे की जरूरत थी तो मांग लेता। उनके मान-सम्मान को ठेस लगा दी। उन्होंने पंद्रह मिनट की मोहलत मांगी और घर से लाकर पांच सौ रुपए गोनू झा को गिन दिए।
गांव भर में इस पक्की मित्रता के टूट जाने पर चर्चा थी। कुछ लोग दुखी थे और कुछ लोग खुश भी थे। मिश्रा जी के पास दोनों तरह के लोग पहुंचते और गोनू झा का जिक्र छेड़ देते। मिश्रा जी गोनू झा को कृतघ्न ठग, लुटेरा आदि कितने ही विशेषणों से नवाजते। दुआ-सलाम बंद!
फिर एक दिन पंचायत हुई। मिश्रा जी फिर बुलाए गए। तब गोनू झा ने सारी बात पंचों को बताई।
"पंच परमेश्वरो, मेरे परममित्र मिश्रा जी को एक दिन जिज्ञासा हुई कि यह बमनपेंच क्या होता है और कैसे मैं इसका प्रयोग करता हूं। यह सच है कि मैंने इनसे मिट्टी के एक हजार सिक्कों की मांग की। पलटन झा के सामने इन्होनें वही पांच सौ मिट्टी के सिक्के मुझे लौटाए थे।' गोनू झा ने कहा-"इस प्रकार मैं इन्हें बमन पेंच का प्रयोग दिखा रहा था। मैंने कहा भी था कि इससे हमारी मित्रता खतरे में पड़ सकती है। और वही हुआ। अब मैं पंचायत के सामने ही अपने मित्र से क्षमा चाहता हूं। और इनके पांच सौ रुपए वापस करता हूं। और यदि मिश्रा से क्षमा जी मुझे अन्य कोई दंड देना चाहें तो मैं उसे भी स्वीकार करता हूं।"
मिश्रा जी हक्के-बक्के रह गए। तो गोनू झा ने उन्हें बमनपेंच का नमूना दिखाया था। कमाल का नमूना था।
'मिश्रा जी, पंचायत के सामने वो सब साफ हो चुका है। अब आपकी क्या राय है?"
'इसमें राय कैसी।' मिश्रा जी तनकर बोले-'मुझे बमनपेंच देखना था, मैंने देख लिया। आप पंचों को दो बार कष्ट हुआ उसके लिए हम दोनों मित्र क्षमाप्रार्थी हैं। आओ गोनू झा, तुम्हारी पीठ ठोंक दूं।'
'मिश्रा जी, कुछ सीखा भी कि देखा ही देखा।' गोनू झा ने हंसकर पूछा।
'सीखा भैये! सही समय पर सही झूठ बोलकर उसके सही साक्ष्य पैदा कर देना ही बमनपेंच है। पर यह मित्रता पर आजमाने की चीज नहीं है।"
'तो इसी बात पर हो जाए मिठाई।'
'मेरी तरफ से।' मिश्रा जी ने कहा-"सारी पंचायत के लिए। हमारी मित्रता के नाम। भेजो किसी को बाजार और मंगाओ मिठाई। पर पैसे तुम दोगे।'
दोनों मित्र हंसकर एक-दूसरे के गले लग गए।