गोनू झा और पाखंड का खेल

गोनू झा गांव के नए-नए मुखिया बने और अपनी क्षमताओं और बुद्धि से उन्होंने गांव को काफी खुशहाल बना दिया। हर तरफ अमन-चैन था। गोनू झा के प्रयासों से मूला मांझी के नेतृत्व में एक युवा संगठन गांव के हित में कार्यरत रहता था। उन्हीं दिनों गांव के बाहर मंदिर पर एक साधु आया। शिवभक्त वह साधु मंदिर पर ठहर गया तो गांव के लोग उसके दर्शनों को जाने लगे। वह साधु बहुत कम बातें करता था। इतना अवश्य था कि वह जब उपदेश देता था तो उसकी वाणी बड़ी मुखर हो जाती। कुछ ही दिनों में कुछ लोग उसके शिष्य भी बन गए। पर उसके शिष्यों में अधिकतर नशेड़ी लोग थे। खुद वह साधु भी भांग पीने का शौक रखता था।

'यह भोले का प्रसाद है। भोलेबाबा इसका सेवन इसलिए करते हैं कि उनकी तीसरी आंख निद्रा में लीन रहे। सब जानते हैं कि तीसरी आंख खुली नहीं कि प्रलय आई नहीं।' साधु महाराज कहते।

'महाराज, तो क्या प्रलय आने की आशंका है।' एक शिष्य ने पूछा।

'आशंका! अरे जैसे-जैसे कलियुग बढेगा, पाप बढेंगे। धरती माता को कष्ट होगा तो वह भोलेनाथ से ही पुकार करेगी और तब वह अपना तीसरा नेत्र खोलकर पापियों को भस्म कर देंगे।'

'महाराज, प्रलय आने की पूर्वसूचना आपको तो हो जाएगी।'

'अवश्य। जिस दिन प्रलय होगी या होने वाली होगी उस दिन, मेरा यह त्रिशूल कम्पन करने लगेगा।' साधु ने अपने सामने जमीन में गड़ रहे त्रिशूल को छुकर कहा-"यह रुद्र भगवान का अस्त्र है और सबसे पहले यही संकेत करेगा कि भोलेनाथ रुष्ट हो गए है।'

शिष्यगण पूर्ण श्रद्धा से साधु महाराज को नमन करते।

और एक दिन ऎसा ही हुआ। साधु महाराज के सामने गड़ा हुआ त्रिशूल कांप उठा। वह धीरे-धीरे हिल रहा था।

"प्रलय!" साधु चीख पड़ा- 'प्रलय! विनाश! भगवान शंकर रुष्ट हो गए।" भक्तों ने भी देखा। घोर आश्चर्य! त्रिशूल अपने आप हिल रहा था। सबके हृदय कांप उठे। संसार अब नष्ट होने वाला है।

पलभर में यह खबर गांव में पहुंच गई और जो जैसे बैठा था, वैसा ही उठकर चल पड़ा। लोग गिरते-पड़ते जाते थे और त्रिशूल के कम्पन को देखकर उनकी आंखें फटी रह जातीं।

लोग भगवान भोलेनाथ के प्रकोप से भयभीत हो उठे।

"महाराज, अब क्या होगा।"

'प्रलय होगी। कुपित भोलेनाथ का क्रोध सबको भस्म कर देगा।' साधु ने कहा।

"तो क्या महाराज अब संसार नष्ट हो जाएगा।"

'यदि भोलेबाबा यही चाहते हैं तो अवश्य होगा। उन्हें किसी ने रुष्ट किया है।"

'महाराज, किसी एक ने रुष्ट किया है तो उसे ही भस्म करें न! बाकी संसार को क्यों! उनके परमभक्त भी तो हैं।'

"यह कांपता त्रिशूल उनके क्रोध का संकेत है। स्पष्ट है कि भगवान शंकर क्रोध में है और क्रोध में कुछ नहीं सूझता।"

'कोई तो उपाय अवश्य होगा महाराज!'

"भोले तो बड़े भोले हैं। सेवाभाव से ही प्रसन्न हो जाते हैं। उन्हें प्रसन्न करना होगा। हम सब मिलकर उन्हें मनाएंगे। भजन करेंगे, कीर्तन करेंगे।"

और उसी समय ढोलक, झांझ, मजीरे, खंजरी, करताल आ गए। लोग समूहों में बैठकर भजन कीर्तन करने लगे। अब खबर आसपास के गांवों में भी पहुंच गई थी। लोग दौड़े आते थे और कांपते त्रिशूल को देखकर दंडवत हो जाते।

'यहां भोलेनाथ का मंदिर बनना चाहिए। इस पुराने मंदिर का पुनर्निमार्ण होना चाहिए। यह भूमि पवित्र है। सभी भक्तों को चाहिए कि भगवान के घर के निर्माण में जितना हो सके सहयोग करें। साधु महाराज ने उच्च स्वर में कहा- "आज साक्षात् भोले का दर्शन है। जो एक देगा, भोलेभंडारी उसे दो देंगे। भक्तो यह पुण्य का समय है। पुण्य-दान से ही कुपित भगवान मनाए जाते हैं,।

साधु महाराज के कहने भर की देर थी कि लोग अपनी-अपनी जेबें खाली करने लगे। स्त्रियां अपने जेवर तक उतारने लगीं और त्रिशूल के पास रखने लगीं। कांपते त्रिशूल के पास रखने लगीं। कांपते त्रिशूल और एक का दो मिलने की आशा में वह भोले-भाले लोग धन से भगवान को प्रसन्न करने लगे।

'जिसके पास यहां न हो, वह घर से लाए।' साधु के शिष्यों ने कहा-'सब इस पवित्र कार्य में योगदान करो।'

फिर क्या था! लोग घर को जाते और लौटकर आते तो घर में जो भी मिलता, लाकर वहां चढा देते। जेवरों का ढेर लग गया था। सिक्कों की ढेरी लग गई थी और अभी भी चढावा जारी था। साधु महाराज नेत्र बंद किए 'बम-बम भोले' का जयघोष कर रहे थे। शिष्य-मंडली इधर-उधर दौड़ी फिर रही थी। भीड़ को अनुशासन में किए जाने के निर्देश दिए जा रहे थे।

शाम होने तक इतने सिक्के हो चुके थे कि एक बोरी भरी जा सकती थी। इतने ही जेवर भी इकट्ठे हो चुके थे। साधु महाराज नेत्र खोलकर उस धन को देखते और उनके होंठो पर मुस्कान तैर उठती।

उधर गोनू झा को गांव में यह खबर मिली तो वह शंकित हो उठे। वह ताड़ गए कि श्रद्धा के नाम पर अंधविश्वास में फंसे लोगों को मूर्ख बनाया जा रहा था। भोले लोग क्या जानते थे कि ठग क्या कर सकते हैं। उन्होंने मूला और उसके चार-साथियों को बुलाया।

'गांव के बाहर वाले पुराने मंदिर पर पाखंड का बड़ा जाल रचा पड़ा है। लोग अंधविश्वास में फंसकर अपना धन लुटा रहे हैं।' गोनू झा चिंतित स्वर में बोले-'हमें कुछ करना होगा।'

"आप आदेश करें पंडित जी।" मूला बोला।

'हम वहां चलकर देखते हैं कि त्रिशूल कांपने का क्या रहस्य है। जब तक उस पाखंड की पोल नहीं खुलेगी तब तक जनता की अंधी श्रद्धा उस ढोंगी महाराज से न उठेगी। मैं जैसा कहुं वैसा करना।"

गोनू झा योजना के मुताबिक अकेले वहां पहुंचे और कांपते त्रिशूल के पास लम्बवत् लेट गए। उन्होनें धीरे से कांपता त्रिशूल पकड़ा।

"अरे, क्या करता है बच्चा!" महाराज चीख पड़ा।

'जय भोले भंडारी की!' गोनू झा झट से उठ खड़े हुए और इधर-उधर देखने लगे।

साधु महाराज तिरछी दृष्टि से उन्हें ही देख रहे थे। गोनू झा समझ गए कि गड़बड़ तो जरूरी ही थी। साधु महाराज की बढती बेचैनी इस बात का संकेत थी कि उन्हें गोनू झा का त्रिशूल छूना अखर गया था। जहां साधु बैठा था, पुराना मंदिर वहां से दस-पंद्रह कदम दूर था। और साधु बार-बार उधर ही देखता था।

गोनू झा वहां से अलग हो गए। उनकी नजर अभी भी साधु पर थी। तभी उन्हें साधु के पास गांव का नशेड़ी युवक युवक फुसफुसाकर बतियाता दिखाई दिया जो उठकर मंदिर की ओर चला गया।

गोनू झा ने भी देर न लगाई और वह भी मंदिर में जा घुसे। वहां कोई न था। पर वह जानते थे कि मंदिर में एक गर्भगृह था। वह सीधे वहां उतर गए तो सारा माजरा समझ गए। वहां तीन-चार युवक बैठे थे जिनमें से एक रस्सी खींच रहा था। वह रस्सी जमीन में छेद करके जरूर ही त्रिशूल में बंधी थी। गोनू झा तत्काल ऊपर आए।

मूला और उसके साथी आ चुके थे। गोनू झा के आदेश पर गर्भगृह में जाकर चारों युवकों को पकड़ लिया गया।

और गोनू झा स्वयं साधु के पास गए। त्रिशूल का कम्पन बंद हो चुका था। साधु ने सकपकाकर अपने सिर पर खड़ा गोनू झा को देखा।

'महाराज, भगवान प्रसन्न हो गए। त्रिशूल अब नहीं कांप रहा।' गोनू झा ने कहा-'भक्तों की श्रद्धा और चढावे ने भोले को खुश कर दिया।'

'उनकी महिमा अपरम्पार है।'

'और उनकी मेहनत का क्या महाराज जो गर्भगृह में बैठे रस्सी खींच रहे थे।' गोनू झा ने मुस्कुराकर कहा।

साधु के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं। वह व्याकुल भाव से इधर-उधर देखने लगा। तभी मूला के साथी उन चारों युवकों को पकड़कर बाहर ले आए जिनमें एक तो भरौरा का मटरू ही था। चारों की ठीक प्रकार से धुनाई हो गई थी। साधु ने भागने का विचार किया ही था कि गोनू झा ने अडंगी लगा दी। साधु औंधे मुंह जमीन पर गिरा।

फिर गोनू झा ने उपस्थित भीड़ को उस पाखंड की पोल बताई। उन शातिर ठगों ने मंदिर के गर्भगृह से लेकर त्रिशूल वाले स्थान तक एक सुरंगनुमा छेद कर लिया था और उसमें एक रस्सी डालकर त्रिशूल के साथ बांध दी थी। रस्सी खींचने से त्रिशूल हिलता था और गड़ा होने के कारण उसमें कम्पन होता था।

लोग अचम्भित रह गए उस पाखंड को जानकर। गोनू झा ने सारा जेवर और पैसा अपने कब्जे में कर लिया।

"भाइयो, यह भगवान का स्थान है। इस पाखंडी ने जैसा जाल रचा उससे रुष्ट होकर भगवान इसे दंडित कर रहे हैं। देखो।"

गोनू झा के संकेत पर साधु की पिटाई शुरू हो गई। वह क्षमा मांगने लगा। जब ठीक से उसकी खातिर हो गई तो गोनू झा ने उसे बचा लिया और सब दुष्टों को अगले दिन हवालात पहुंचाने का विचार कर लिया। मूला और उसके साथियों ने उन्हें बांधकर डाल दिया।

'भाइयो, आप सबने यहां जो धन और जेवर चढाया है, वह सब तुम्हारा है। अब रात हो चुकी है। कल प्रातः सब आना और अपना धन और जेवर ले जाना। याद रहे जिसका जितना हो उतना ही ले।'

'पंडित जी, कैसे पता चलेगा कि किसने कितना चढाया?' मूला ने पूछा।

'भोलेनाथ हैं न! एक-एक करके सबको अंदर भगवान के सामने लाया जाएगा, तब पूछा जाएगा कि किसने क्या चढाया।'

"इस काम में तो बहुत समय लगेगा।"

कोई बात नहीं । भले काम में समय लगता है।

फिर प्रातः काल यही हुआ। और गोनू झा की यह युक्ति काम कर गई। सारा धन और जेवर ठीक उसी प्रकार बंट गए जिस प्रकार आए थे। किसी ने भी मंदिर में आकर झूठ बोलकर ज्यादा लेने का साहस न दिखाया।

मूला और उसके साथी अपने गुरु के बुद्धिबल पर अचम्भित थे जिन्होंने बड़ी सहजता और सरलता से एक कठिन कार्य को कर दिखाया था। सब लोग गोनू झा की जय-जयकार कर उठे।

इस प्रकार एक साधारण व्यक्ति ने अपने बुद्धिबल से स्वयं को इतना सम्मानित कर लिया था कि मिथिलांचल आज भी उसके किस्से बड़े चाव से सुनता है। गोनू झा ने समस्याओं पर विनोदपूर्ण प्रहार करके उनका समाधान निकाला था। लोग अचम्भित रह जाते और उनकी बुद्धि का लोहा मान जाते थे।

मिथिला नरेश ने सदैव उनका सम्मान किया। बिहार के बीरबल कहे जाने वाले गोनू झा आज भी अपने चुटीले कारनामों के लिए जनश्रुति बने हुए हैं। उनकी कहानियां आज भी जनमानस में कही-सुनी जाती हैं।