गोनू झा यजमान के घर से लौट रहे थे। विदाई भी अच्छी मिली थी। रास्ते में ताजा मछली बिकती देख मुँह में पानी आ गया । जेब में पर्याप्त रुपय थे ही,सो मछली खरीद ली ।
खुशी-खुशी वह घर की ओर कदम बढाए जा रहे थे और मन में लावा फूट रहा था कि मछली देखकर ओझाइन खुश हो जाएँगी ।
कुछ दूर आगे बढने पर एक परिचित व्यक्ति मिला। वह फोड़ा-फुंसी आदि को चीर-फाड़ का काम करता था। उसने प्रणाम-पाती किया । नजर गोनू झा की मछली पर पड़ी और तुरत ही गंभीर हो गया।
गोनू झा ने उसकी गंभीरता पर गौर करते हुए पूछा, 'भाई, सब कुशल है न?
उसने दुःखी होने का स्वाँग भरते हुए कहा, 'पंडितजी, और सब तो ठीक है; सिर्फ एक बड़ी बुरी खबर है।
गोनू झा ने शंकित होते हुए पूछा, 'कहो, ऎसी कौन-सी बुरी बात हो गई?
उसने कहा, पंडितजी, पंडिताइन अब इस संसार में नही रहीं। उन्हीं का दाह-संस्कार कर लौट रहा हूँ।
गोनू झा हक्का-बक्का! कदम अब उठ ही नहीं रहे थे। मछली फेंक दी। खैर, किसी प्रकार घर तो पहुँचना ही था।
उन्होंने उदास मन से अँगने में पैर रखे कि ओझाइन सामने दिख गईं। गोनू झा ने बार-बार आँखों को मलकर देखा कि भ्रम तो नहीं हो रहा है। तब तक पत्नी पास पहुँचकर चहकती हुई बोलीं, 'यहाँ क्यों खड़े हो गए? ऊपर चलिए। हाथ-पाँव धोइए।
गोनू झा समझ गए कि जर्राह ने मछली ठगने के लिए ऎसा अशुभ संवाद कहा। खैर, उनका स्वभाव विनोदी था, इसलिए उसके साथ व्यवहार पूर्ववत ही रहा। कुछ दिनों के बाद गोनू झा के मल-द्वार में घाव हो गया। उन्हें खटिया पकड़नी पड़ी। उसी जर्राह को बुलबा भेजा गया।
उसके आते ही गोनू झा और कराहने लगे। फिर पास बिठाकर बड़ॆ प्यार से बोले, भाई, मेरा घाव शायद पक गया है। उसका मुँह निकाल दीजिए, ताकि बह जाए। मैं खटिया से उठ नही सकता, इसलिए आप को ही देखना परेगा।
वह नीचे घाव देखने लगा। गोनू झा ने देखा कि अब मुँह ऊपर करके घाव में चाकू लगाने ही वाला है कि उस पर मल उत्सर्जित कर दिया।
वह छीः-छीः करता नदी की ओर भागा।