टोकरी-भर धान

बाढ के कारण गोनू झा के पसिड़ोयों के खेत दह चुके थे; उनके अधिकांश खेत जिस 'बाध'(उपजाऊ क्षेत्र) में थे, वहाँ भी पानी पहुँच चुका था, पर फसल डूबी नहीं थी।

गोनू झा नदी किनारे खड़े होकर विनती करने लगे, 'हे कमला मैया, मेरे खेतों को बचा लीजिए और शीघ्र वापस चली जाइए, तो मैं एक सौ आठ रक्तधारी जीवों की बलि दूँगा।

संयोगवश पानी घटने लगा और उनके खेत बच गए; थोड़ा-बहुत पानी खेतों में रह जाने के कारण धान की फसल के लिए वरदान ही सिद्ध हुआ।

वर्षों बाद अच्छी फसल हाथ लगी थी। उस खुशी में उन्हें मनौती का ध्यान ही नहीं रहा।

एक दिन पत्नी ने उलाहना देते हुए कहा, 'कमला मैया ने फसल तो हाथ उलीचकर दी और मनौती भी भूलते जा रहे हैं! मनौती का स्मरण आते ही गोनू झा चिंतित हो उठे, मनौती भी छोटी-मोटी नहीं थी-108 जीवों की बलि, इसलिए गोनू झा पछताने लगे।

इसी उधेड़बुन में रात में नीद नहीं आ रही थी। दो-ढाई पहर बीत चुके थे। ऊपर से उन पर चारों तरफ से खटमलों का छापामार युद्ध जारी था। पकड़ में आए खटमलों को वह गुस्से से स्पॉट पर ही खत्म कर देते थे।

मारते-मारते उनके हाथ लहूलुहान हो गए और लगा कि क्रोध में कितने जीवों की हत्या हो गई। तभी सहसा 108 जीवों की बलि देने की मनौती याद आई और वह खुशी से झूम उठे। तुरंत वह एक साफ-सुथरी ढक्कन वाली बोतल लाए और गिन-गिनकर उसमें खटमलों को रखने लगे। 108 के बाद 11 और डाल दिया ताकि भूल- चूक, घटी-बढी और दक्षिणा भी पूरी हो जाए।

सुबह नहा-धोकर और उस बोतल पर फूल-माला चढाकर कमला मैया को मनौती स्मरण कराया। फिर उसे जल में विसर्जित कर दिया।

बोतल कुछ क्षण तो तैरती रही और फिर डूब गई। उन्होंने राहत की साँस ली कि माता कमलेश्वरी ने मनौती स्वीकार ली।

गोनू झा प्रसन्नतापूर्वक घर लौटकर माता कमलेश्वरी से उऋण होने की बात पत्नी को सुनाई। पत्नी को विश्वास नहीं हुआ, इसलिए व्यंग से कहा, 'यद्यपि आपने भगवती को बलि देने की झूठी बात की है, तथापि उन्हें खुशी ही हुई होगी कि आखिर मौखिक दरिद्रता तो नहीं दिखाई.

इधर उनका खलिहान धान के बोझों से लद चुका था। गोनू झा ने स्वप्न देखा कि कमला मैया रुष्ट होकर कह रही हैं-'गोनू , तुमने मेरे साथ छल किया है; बलि-प्रदान के नाम पर खटमलों को चढाया है, इसलिए शाप देती हूँ कि तुम्हें टोकरी-भर से अधिक धान नहीं मिलेगा।'

पहले तो गोनू झा चिंतित हो गए। तभी एक विचार कौंधा और फौरन 108 मन धान अँटने लायक एक बड़ा गड्ढा बनवाने में जुट गए। गड्ढे के मुँह पर एक टोकरी रखकर बंद करवा दिया और फिर टॊकरी की पेंदी काट दी।

पेंदी कटी टोकरी में वह धान डलवाने लगे। कितना भी डाला जाता, धान का अता-पता नहीं, क्योंकि नीचे गड्ढे में वह समा जाता था। जब तक गड्ढा भरा नहीं तब तक टोकरी खाली ही रही। अंततः वह समय भी आया, जब टोकरी भरी।

गोनू झा ने रात्रि में फिर स्वप्न देखा। माता कमला वात्सल्य भाव से कह रही थीं, 'गोनू, आखिर तुम ही जीते। मैं तुम्हारी चतुराई से प्रसन्न होकर वरदान देती हूँ कि तुम हमेशा चिंता-मुक्त रहोगे।