झूठ का सच

गोनू झा का एक लॅंगोटिया यार था; वह उनके दुख-सुख का साथी था। उससे कभी मनमुटाव भी नहीं हुआ था।

एक दिन उसने गोनू झा से कहा, 'मीत, सभी लोग तुम्हारा लोहा मानते हैं। तुम कैसे किसी दोस्त को दुश्मन, दुश्मन को दोस्त, मूर्ख को विद्वान, साधु को ठग और बेईमान को ईमानदार सिद्ध कर देते हो, यह बात मेरी समझ में नहीं आती?

गोनू झा ने सहज भाव से कहा, 'मैं किसी को एक नजर में ही पहचान जाता हूँ कि आदमी अच्छा है या बुरा। तदनुसार उस पर मेरी धारणा बद्धमूल होती है। उसी के स्वभावानुसार मैं निर्णय लेता हूँ। अगर कोई परिस्थितिवश झूठा अथवा बेईमान बन भी जाता है जबकि उसका चरित्र वैसा नहीं होता, तो मैं उसे सुधरने का अवसर देता हूँ। उसी प्रकार कोई मक्कार अगर पाखंडी-महान बना रहता है तो मैं उसे उद्घाटित करके ही दम लेता हूँ।

उसने उत्सुकता से पूछा, 'मेरे बारे में तुम्हारी क्या धारणा है?"

गोनू झा ने अनमने भाव से कहा, 'तुम तो अजीत दोस्त हो, इसलिए तुम्हारे बारे में क्या धारणा बनानी है?

उसने जोर देते हुए कहा, 'फिर भी!

गोनू झा ने चिंता प्रकट करते हुए कहा, 'तब मुझे शंका हो रही है कि हमारी दोस्ती दुश्मनी में न बदल जाए? ना-ना, इतने दिनों की यारी और तुमसे दुश्मनी?'

तो ठीक है; मैं सोच रहा हूँ। गोनू झा ने सहजता से कहा।

वह दोस्त अकसर गोनू झा से यही प्रश्न कर देता और गोनू झा यह कहकर टाल देते, 'मैं अपने कामों में लगा हूँ; समय आने पर बता दूँगा। तब तक तुम मुझे मिट्टी के एक हजार सिक्के दे सकते हो? अभी पाँच सौ ही चाहिए और शेष बाद में दे देना।'

मित्र ने पहले तो बात टालनी चाही, किंतु काम कोई बड़ा नहीं था और गोनू झा जैसा परम मित्र, जो न जाने कैसा-कैसा स्वाँग भरता रहता है, इसलिए उसने हामी भर दी।

मित्र शीघ्र ही पाँच सौ सिक्के देने आ गया। गोनू झा ने चौंकते हुए कहा, 'मीत, तुम भी सब दिन नालायक ही रहे; इतने सिक्के दे रहे हो तो आकर्षक बटुवे में दो।'

वह यह भी मान गया।

गोनू झा ने कुछ दिनों के लिए शेष सिक्कों का तगादा छोड़ दिया। फिर किसी के समक्ष दोस्त को देख कह उठते, 'याद है न? पाँच सौ सिक्के बाकी हैं।'

मित्र कभी हॅंसकर तो कभी खीजते हुए कह देता, हाँ-हाँ रोज-रोज क्या तगादा करते हो! कभी दे दूँगा न।

एक दिन गोनू झा ने पंचायत बुलाई। गणमान्य लोग उपस्थित हुए। गोनू झा ने अपनी फरियाद की, 'यह मेरा लॅंगोटिया यार है; इसने शीघ्र लौटाने की शर्त पर छह महीने पूर्व मुझसे एक हजार सिक्के लिए। पाँच सौ तो शीघ्र ही लौटा दिए और शेष से मुकर रहा है।'

अभी तक चैन से बैठे मित्र ने अपने ऊपर लगे गंभीर आरोप से चौंकते हुए कहा, 'मीत, यह क्या बक रहे हो? यह भी कोई पंचायत में कहने की बात है? तुम्हारा सिर तो नहीं फिर गया है?

गोनू झा ने झुँझलाते हुए कहा, 'तो मैं क्या करूँ? और कोई रास्ता ही नहीं बचा है; मैं प्रतिदिन तगादा करते-करते ऊब चुका हूँ।

और उपस्थित लोगों की ओर मुखातिब होते हुए कहा, 'भाई-बंधुओ, आप लोग जानते ही हैं कि इससे जब-जब मेरी मुलाकात हुई, तब-तब मैं तगादा करता रहा हूँ!

यह सुनकर कुछ लोग मौन रहे और कुछ ने हाँ में हाँ मिलाकर समर्थन किया। फिर तो वह दोस्त गोनू झा को बेईमान, ठग, धूर्त इत्यादि अपशब्दों से विभूषित करने लगा और विस्मित होते हुए पूछा, 'कब मैंने तुमसे सिक्के लिए और कब लौटाए भी?

गोनू झा ने अपने थैली से वही आकर्षक बटुआ निकाला; उसी में दोस्त ने मिट्टी के सिक्के दिए थे। उन्होंने पंचों को वह बटुआ दिखाते हुए कहा, 'पंच परमेश्वर, इसी से पुछिए कि यह बटुआ किसका है? उसने बेहिचक कहा, 'है तो मेरा ही, पर इसमें मैंने मिट्टी के सिक्के दिए थे।

गोनू झा ने उपहासात्मक मुद्रा में कहा, लिजीए, मेरी मति मारी गई है या बच्चा हूँ कि मिट्टी के सिक्कों से खेल करूँ!

उनका समर्थन करते हुए सरपंच ने कहा, गोनू जी ठीक कहते हैं; भला यह मिट्टी के सिक्के लेकर क्या करेंगे? इसलिए यथाशीघ्र इन्हें शेष सिक्के वापस कर दें, अन्यथा सूद समेत लौटाने पड़ेंगे।

क्षुब्ध और क्रुद्ध होने के बावजूद उसे सिक्के वापस करने पड़े। बदनामी और बेइज्जती हुई, सो अलग।

उस दिन से वह गोनू झा का मुँह नहीं देखना चाहता था। इतना ही नहीं, उनका नाम सुनकर भी भड़क उठता था।

दोस्त की किराने की दुकान थी। कुछ दिनों बाद दुकान के अहाते में गणमान्य लोगों को पहुँचते देख उसे उत्सुकता हुई कि माजरा क्या है! यह पता चलने पर कि सभी को गोनू झा ने बुलाया है, दोस्त का माथा ठनका कि मक्कार को फिर क्या खुराफात सूझी? पर वह गाँव के मातबर व्यक्तियों को भगाए तो भगाए कैसे?

गोनू झा भी उपस्थित हुए। उन्हें देखते ही वह दोस्त दुकान छोड़ बाहर जाने लगा। गोनू झा ने अपने पुराने लँगोटिया यार को बाहर निकलते देख चौंकते हुए कहा, 'पहले उसे बुलाइए तभी कुछ मुनासिब होगा।

पंचों के बुलावे पर अंततः वह आया। गोनू झा ने मिट्टी और असली सिक्कों के दोनों बटुवे निकालकर बीच में रखते हुए कहा, 'पंच परमेश्वर, मेरे इस अजीज दोस्त को यह जानने की यह जानने की दिली ख्वाहिश थी कि सच को झूठ और झूठ को सच कैसे परिवर्तित कर देता हूंँ । मैने इसे आगाह भी किया था, लेकिन इसने जिद पकड़ ली, इसलिए असत्य का सहारा लेकर दोस्ती को दुश्मनी मे बदलना पड़ा । ये सिक्के मैं चुपचाप भी वापस कर सकता था किन्तु सभी के सामने यह जलील हुआ था, इसलिए आप लोगों के समक्ष ही लौटाना उचित समझा ।'

और फिर मित्र की पीठ पर एक धौल जमाते हुए कहा, 'अब तो मुझे समझने मे देर न लगेगी ?'

दोनो खुशी के आँसू पोछते हुए गले मिल गए ।