सेठ एक बड़ा भोज कर रहा था। गोनू झा सहित अन्य दरबारी और मंत्री भी निमंत्रित थे।
अन्य न्योतहारी आ धमके, किंतु गोनू झा का अता-पता नहीं। उनकी तलाश होने लगी। एक दरबारी ने कुछ खुसुर-फुसुर कर सेठ से कहा, 'सेठजी, गोनू झा की प्रतीक्षा में हम लोगों को क्यों देर कर रहे हैं? वह तो आज के दिन अन्न-जल ग्रहण नहीं करते हैं। हाँ, साथ निभाने के लिए वह कभी भी बैठ जाऍंगे।
तब तक गोनू झा पहुँच गए। उनके पत्तल पर कुछ परोसने के लिए मना कर दिया गया था, क्योंकि धोखे से भी मुँह में चला गया तो पाप का भागीदार सेठ क्यों बनता?
अन्य न्योतहारियों के पत्तल भाँति-भाँति के व्यंजनों से भरे थे, किंतु गोनू झा का पत्तल खाली। वह माँगे भी तो कैसे? क्योंकि मुँह देखकर पत्तल छोड़ा गया था, इसलिए निर्विकार का स्वाँग भरे बैठे सबकुछ देखते रहे। परोसना खत्म हो गया। वह दरबारी गोनू झा से व्यंग्यात्मक लहजे में बोला, 'पंडितजी, भोजन शुरू कीजिए; आप ही से शुरुआत हो।'
इन्हें काटो तो खून नहीं। भोज के कारण बेचारे दिन भर भूखे रहकर पेट को सहलाते रहे थे और यहाँ चारों तरफ तरह-तरह के व्यंजन परोसा देख जीभ लार टपकाने को आतुर थी; गरम-गरम भात-दाल पर कड़कते घी के टघार की खुशबू जठराग्नि को और भरका रही थी। फिर भी बिना विचलित हुए उन्होंने कहा, 'मैं ठहरा पंडित, इसलिए मुझे इस पत्तल पर नहीं परोसा गया। जिन पत्तलों को कुत्तों ने चाट रखा है, उन पर मेरे जैसा पंडित कैसे भोजन कर सकता है? छिः-छिः!
सभी चौंके, क्या हम लोगों के पत्तलों को कुत्तों ने चाटा है?
गोनू झा ने दृढता से कहा, 'और नहीं तो क्या? इसलिए तो मैंने मना कर दिया था। जिस नाद में इन्हें धोया गया, उसमें भी कुत्ते बैठे थे और कुत्तों ने पानी में क्या-क्या किया, उसकी चर्चा मैं यहाँ क्या करूँ?
यह सुनते ही न्योतहारी भड़क गए। सब अपने पत्तल छोड़ भला-बुरा कहते और भाँति-भाँति के शाप देते चल पड़े। भोज का नजारा ही बदल गया। सेठ हक्का-बक्का। किस-किसको रोके?
अंत में गोनू झा का ही ध्यान आया और वह उनके चरणों पर गिरकर गिड़गिड़ाते हुए कहने लगा, 'पंडितजी मैं लुट गया, बरबाद हो गया! न्योतहारी भोजन किए बिना जा रहे हैं। मैं घोर पाप का भागी बनूँगा। क्या आपने सच में देखा था?
उन्होंने झुँझलाते हुए कहा, तभी तो मेरे जैसे पंडित के पत्तल पर कुछ नहीं परोसा गया है!
सेठ चौंकते हुए बोला, 'महाराज, मुझे तो आपके ही साथी ने कहा था कि आज के दिन आप अन्न-जल ग्रहण नहीं करते हैं।'
भेद खुला। गोनू झा ने हाँक लगाकर सभी को रोका। उनके पत्तल पर नहीं परोसने के लिए सेठ ने उनसे माफी माँगी। उस दरबारी की चाल का भंडाफोड़ हुआ।
फिर सभी अपने-अपने पत्तल पर बैठे। गोनू झा के पत्तल पर विशेष रूप से परोसा गया।