राजा अपने पिता की समाधि पर प्रतिदिन श्रद्धा निवेदित करने जाता था।
एक दिन उसे वहाँ एक पत्र मिला। उसमें लिखा था, 'चिरंजीवी पुत्र, मैं स्वर्ग में सकुशल ही हूँ। अगर कोई अभाव खटकता है तो सिर्फ गोनू झा का।
उनके बिना मेरा यहाँ मन नहीं लगता है, इसलिए यथाशीघ्र भेजने के लिए मेरी समाधि से दक्षिण स्थित टीले पर उन्हें चढाओ और दो टाल पुआल से ढककर आग लगवा दो। वह सदेह मेरे पास पहुँच जाऍंगे। अगर उनके बिना तुम्हारा भी काम नहीं चलता हो, तो कुछ ही महीने में उन्हें वापस भेज दूँगा।
राजा विस्मय में पड़ गया। उसने दरबारियों से पूछा। सभी एक स्वर से गोनू झा के भाग्य की सराहना करने लगे। कुछ दरबारी इस पुनीत कार्य के लिए स्वयं आगे बढे, परंतु गोपाल नाई ने टॊकते हुए कहा, 'महाराज, उचित तो यह होगा कि जिसका बुलावा आया है वही जाए, अन्यथा बड़े महाराज कहीं कुपित न हो जाऍं?
राजा को बात जॅंची। गोनू झा को बुलाकर पूछा गया।
एक पल के लिए तो वह भौचक्के रह गए, किंतु तुरंत ही प्रसन्नता का स्वाँग भरते हुए सॅंभल गए और विश्वासपूर्वक कहा, 'महाराज, मुझे बड़ॆ महाराज के पास जाने में कोई आपत्ति नहीं है, यह तो मेरे लिए सौभाग्य की बात होगी।
परंतु मेरी कुछ विवशताऍं हैं, अगर उन्होंने मुझे वहीं रोक लिया, तो मेरे परिवार का भरण-पोषण कैसे होगा? इसलिए पहले मुझे एक हजार स्वर्ण मुद्राऍं दी जाऍं, ताकि मैं अपना घर दुरुस्त कर लूँ।
दूसरी बात यह कि जब तक न लौटूँ, तब तक मेरे परिवार को प्रतिमाह सौ स्वर्ण मुद्राऍं भिजवाने की व्यवस्था कर दी जाए और अंतिम बात यह कि परिवार को सुव्यवस्थित करने के लिए मुझे तीन मास की मोहलत मिले।
राजा ने सभी शर्तों को मान लिया। तीन महीने बाद पत्र में वर्णित तरीके और गाजे-बाजे के साथ गोनू झा को स्वर्ग भेज दिया गया।
इधर राजा को अपनी भूल का एहसास हो गया कि गोनू झा से छुटकारा पाने के लिए दरबारियों ने प्रपंच रचा था। वह उदास और दरबारी खुश रहने लगे, लेकिन अब किया ही क्या जा सकता था!
एक दिन राजा अपनी उदासी का कारण बता ही रहा था कि तभी सूचना मिली, गोनू झा दरबार में हाजिर होना चाहते हैं। राजा के आश्चर्य और खुशी का ठिकाना न रहा, किंतु गोपाल नाई सहित दरबारियों के होश उड़ने लगे।
हष्ट-पुष्ट होकर आए गोनू झा ने प्रसन्न मुद्रा में दरबार में प्रवेश किया। राजा ने अपने पूज्यवाद पिता का समाचार पूछा। उन्होंने गदगद स्वर में कहा, 'महाराज, वह तो बहुत प्रसन्न हैं पर वहाँ नाई नहीं रहने के कारण महाराज को हजामत बनाने में बड़ी कठिनाई होती है और वह कोई ऋषि-मुनि तो हैं नहीं कि जटाजूट और मूछ-दाढी बढाते जाऍं। मैं इस काम में बिलकुल अनाड़ी हूँ। एक दिन प्रयास भी किया तो वह लहूलुहान हो गए, इसलिए गोपाल नाई को शीघ्र भेज देने के लिए कहा है।
यह सुनते ही गोपाल नाई का चेहरा फीका हो गया; वह दरबार से भागने लगा, लेकिन सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया। राजा ने क्रोध से कहा, 'गोपाल, तुम्हें डरने की जरूरत नहीं है। उस दिन तो तुम लोग स्वर्ग जाना सौभाग्य की बात समझते थे। दूसरी बात कि गोनू झा अभी वहाँ से भले-चंगे लौट आए हैं।
अब गोपाल नाई ने सच्चाई उगलते और गिड़गिड़ाते हुए कहा, 'महाराज, क्षमा करें। आपको बड़े महाराज की समाधि पर मिला पत्र मैंने ही लिखा था। हम लोगों ने ईर्ष्यावश गोनू झा को यहाँ से हटाने की चाल चली थी। यह तो जादू से बच गए, परंतु मैं टोना-टोटका नहीं जानता इसलिए मारा जाऊँगा। मुझे माफ करें।
राजा गोनू झा की ओर मुखातिब हुआ। गोनू झा ने सहजता से कहा, 'महाराज, यह ठीक कहता है। मैं तो उसी समय जान गया था कि यह गोपाल और दरबारियों का षड्यंत्र है। फिर भी छानबीन कर पता लगा लिया और उन तीन महीने में घर से टीले तक सुरंग बनवा दी। आग लगते ही सुरंग द्वारा सकुशल घर पहुँच गया, लेकिन यह तो सचमुच मारा जाएगा।
गोपाल नाई गोनू झा के पाँवों पर गिर पड़ा। राजा ने गोनू झा की बुद्धिमता का लोहा माना और उन्हें उपहार प्रदान किए। उधर गोपाल नाई सहित कई दरबारियों को कारागार में डाल दिया।