पहुनाई

मिथिला में अकाल पड़ा था। लोग दाने-दाने को मुहताज होने लगे। गोनू झा भी कुछ दिन परेशानी में रहे, परंतु बुद्धि दौड़ाई तो दुर्भिक्ष से बचने का उपाय सूझ गया कि कम-से-कम अपने पेट की तो व्यवस्था हो जाएगी। अतः उसी दिन दो-चार दिनों के लिए कहकर एक संबंधी के यहाँ विदा हो गए।

वहाँ उन्होंने दस दिन लगा दिए। लौटते समय कुछ विदाई मिली ही। गोनू झा बहुत खुश कि आखिर इस विकट अकाल में दस दिन ठाट से कट गए और ऊपर से विदाई भी मिली। यह चतुराई मेरे ही बस की बात है। घर जाकर खूब बखान करूँगा और सभी की जीभों से लार टपकेगी और फिर मैं पड़ोसियों को बिना बताए; चुपके से दूसरे संबंधी के यहाँ प्रस्थान कर जाऊँगा।

लेकिन अब कौन बहाना बनाकर विदा होऊँगा? -यह सब सोचते हुए कदम बढाते जा रहे थे कि उनका हलवाहा खेत की आड़ पर अनमने भाव से बैठा दिखा। उन्होंने हालचाल पूछा।

उसने कहा, 'मालिक, मेरा हालचाल क्या रहेगा, लेकिन आपका तो और खराब है। दस संबंधी आपके यहाँ ठहरकर हाट-बाजार करने के लिए आए हुए हैं।

गोनू झा अवाक कि मैंने तो सब संबंधियों के यहाँ जाने के लिए सोचा ही था, पर वे लोग तो बोरिया-बिस्तर समेत पधार भी चुके हैं। खैर, घर तो जाना ही है; नहीं जाने से परिवार पर क्या गुजरेगा!

घर आते ही दरवाजे पर बैठे मेहमानों को अनसुना करते द्वार के अंदर गठरी पटकी और बाहर से ही बेटे को अवाज लगाई, 'रे बसुआ, जल्दी आओ; अभी मैं अंदर नहीं जा सकता। अपनी माँ को कहो कि जल्दी-जल्दी सामान बाँधे; पूर्वार्द्ध के बाद जो इस घर में रहेगा, उसका महा अनिष्ट अवश्यंभावी है।

संबंधी हक्के-बक्के हो गए और गोनू झा से प्रश्नों की झड़ी लगा दी, 'क्या बात है? क्या हुआ? आदि-आदि।

गोनू झा ने हड़बड़ाए हुए कहा, 'अभी मुझे माफ करें! एक क्षण भी यहाँ बात करना खतरे से खाली नहीं है, इसीलिए मुझे आना पड़ा। बात यह है कि आज से एक मास अर्थात अमावस्या से अमावस्या तक इस घर के लक्षण ठीक नहीं हैं, इसलिए पहले गाँव की सीमा से निकलने दीजिए, फिर मैं सब बताऊँगा। अच्छा हुआ कि सारे अपने संबंधी यहीं मिल गए। आप ही लोगों में से किसी के यहाँ एक मास रह लूगा; आखिर संबंधी किस दिन काम आते हैं!

यह कहकर एक बार फिर घर में हाँक लगाने लगे, 'झटपट तैयार हॊओ, समय बीता जा रहा है।'

इधर सभी संबंधी नौ दो ग्यारह। उन्हें तिरछी नजरों से गोनू झा तब तक देखते रहे, जब तक वे ओझल न हो गए।

पत्नी सामान बाँध चुकी थीं, लेकिन गोनू झा अब चैन से बैठ गए और गठरी खोलकर दिखाने को कहा कि क्या-क्या सहेजकर रखी हो। पत्नी ने झुँझलाते हुए कहा, आप तो घोड़े पर सवार होकर आए थे; ऎसे में क्या रखती! और अब यह देखने की फुरसत आपको हो गई?

गोनू झा ने हॅंसते हुए कहा, अरी मानिनी, अभी तक तुम मुझे नहीं पहचान पाई हो! यह तो बिन बुलाए मेहमानों को भगाने की चाल थी।

पत्नी माथे पर हाथ रखकर बैठ गईं और झुझलाते हुए कहा, 'अब मैं भी इस घर में एक मास नहीं रहूँगी; आपने अनिष्ट की चर्चा करके मेरा मन शंकित कर दिया।

गोनू झा ने प्यार से समझाया, यह अकाल तो अनिष्ट ही है न! चलो, असत्य के प्रायश्चित्तस्वरूप गंगा-स्नान कर आते हैं।