राजा ने गोनू झा की राजभक्ति से प्रसन्न होकर पुरस्कारस्वरूप एक हजार मोहरें दीं। यह कुछ दरबारियों को नागवार गुजरा।
गोनू झा दरबार से विदा हुए। एक अत्यंत ईर्ष्यालू दरबारी उनके पीछे लग गया और रास्ते में आगे बढकर एक मोहरा गिरा दी।
गोनू झा ने मोहर गिरी देखकर झट से उठा ली और झा-पोंछकर जेब में रख ली।
दूसरे दिन वही दरबारी नमक-मिर्च लगाकर दरबार में शिकायत करते बोला, 'महाराज, गोनू झा राजपथ पर कुछ गिरा देखकर झट से उठा लेते हैं और राजकोष में जमा भी नहीं करते हैं। कल मैंने परीक्षा ली और मेरी शंका सही निकली।
राजा ने गोनू झा से पूछा, गोनू झा, आप ऎसी गलतियाँ क्यों करते हैं?
गोनू झा ने स्वीकार करते हुए कहा, महाराज, शिकायतकर्ता मेरे आगे-आगे चल रहे थे और भलीभाँति देखकर कुछ फेंका। मैं अपनी धुन में जा रहा था। वहाँ पहुँचा, तो पाँव पड़ते-पड़ते बच गया। उठाया तो राजकीय मोहर दिखी; एक ओर आपकी तसवीर और दूसरी तरफ वर्ष अंकित थे। आपका अपमान मुझसे कैसे देखा जाता! इसलिए मैंने ससम्मान मुद्रा को उठा लिया और राजकोष में इस कारण जमा नहीं कर पाया कि इन्होंने कचरा समझकर फेंका था।
राजा ने गोनू झा की राजभक्ति और बुद्धिमत्ता से प्रसन्न होकर उन्हें एक हजार मोहरें और इनाम में प्रदान कीं और उस दरबारी को राजकीय मुद्रा का अपमान करने के कारण कारागार मिला।