गोनू झा चारों धाम का तीर्थाटन कर लौटे थे।
गाँव के लोग गद्गद कि इस बार गोनू झा बच नहीं सकते; भोज तो करना ही होगा और मिठाइयों से कम पर ग्रामवासी मानेंगे नहीं।
गाँव के कुछ प्रतिष्ठित लोग उनके दरवाजे पर पहुँचे और मिठाइयों के भोज के लिए भाँति-भाँति से भूमिका बाँधने लगे।
एक ने कहा, 'आप तो अब पक्के धर्मात्मा हो गए हैं; आपके जैसा पुण्यात्मा कौन होगा, जिसने इसी उम्र में चारों धाम की यात्रा पूरी कर ली हो।
पैसे रखकर ही कौन लाभ! मरने के बाद तो खाली हाथ ही जाना पड़ता है। परंतु बिना ब्रह्मभोज के इस महान तीर्थाटन का क्या महात्म्य!
गोनू झा ने असमर्थता प्रकट करते हुए कहा, 'लेकिन अब मेरे पास तो उतने पैसे हैं नहीं।
लोगों ने उत्साहित करते हुए कहा, 'गोनू बाबू, ब्रह्मभोज के लिए रुपए - पैसे की कमी नहीं रहेगी; आपके सिर्फ 'हाँ' कहने की देर है। आखिर समाज किस दिन के लिए होता है?'
गोनू झा भी उसी समाज में पले-बढे थे, इसलिए उन्हें चराना खेल नहीं था।
जानते थे कि जब तक भोज नहीं हो जाता, तब तक तो ग्रामवासी पैसे उड़ेल देगें, किंतु स्वाद मिटते ही पैसे के तगादे में कलेजे पर चढ जाऍंगे।
ग्रामवासियों की चाल में पड़े तो लोटा-थाली भी बंधक पड़ जाऍंगे। अभी कुछ ही वर्ष हुअ हैं, पिता के श्राद्ध के चक्कर में ग्रामवासियों ने उनकी कैसी हालत कर दी; बंधक छुड़ाने में उन्हें इन पाँच वर्षों में क्या-क्या पापड़ न बेलने पड़े! और अब तो जमीन से भी हाथ धोना पड़ेगा।
फिर भी उन्हें वे दुःखी करना नहीं चाहते थे। आखिर मरना-जीना उन्हीं के साथ है, इसलिए न चाहते हुए भी बात रखनी थी।गोनू झा ने कुटिल मुस्कान के साथ मूँछो पर हाथ फेरा और हामी भरते हुए कहा, 'आप लोगों को रुपए-पैसों का जुगाड़ करने की जरूरत नहीं है। अब मेरी सरस्वती जग गई हैं; मैं कोई-न-कोई उपाय कर लूँगा और आप लोगों को आश्वस्त करता हूँ कि मिठाइयों का ही भोज खिलाऊँगा।
ग्रामवासी बाग-बाग होकर जब उनके दरवाजे से विदा हुए तो उनकी खुशी का पारावार नहीं था।
इसी आशा में कुछ दिन बीत गए।
गोनू झा को चादर तानकर सोते देख अब ग्रामवासी चिंता में पड़ रहे थे कि वह भोज मूल तो नहीं गए?
इसलिए बारी-बारी से सभी लोग कामों में हाथ बॅंटाने के बहाने याद दिलाने आते थे, किंतु गोनू झा यह कहकर विदा कर देते कि 'आप लोग पहले ही बहुत मदद कर चुके हैं; अभी भी इतना ख्याल रखते हैं, इसके लिए बहुत-बहुत आभार; पर अब आप लोगों को कष्ट देने की जरूरत मुझे नहीं पड़ेगी, क्योंकि मिठाइयों का ही तो भोज है; सब रेडीमेड मिल जाऍंगी।'
भोज के कुछ दिन पूर्व से ही हलका भोजन कर सभी अपने पेट को आराम दे रहे थे। किसी-किसी ने तो पाचक का भी प्रबंध कर लिया था।
भोज के लिए न्योतहारी पंक्तियों में बैठ गए। उनकी जीभों से लार टपक रही थी। तभी बड़ी-बड़ी टोकरियाँ पहुँचने लगीं और पत्तल पर ईख के छोटे-छोटे टुकड़े पड़ने लगे। सब चौंके कि यह क्या? गोनू झा भोज के नाम पर न्योतिहारियों को बेइज्जत करवा रहे हैं।
गोनू झा हाथ जोड़ते हुए उपस्थित हुए। मुखिया ने झल्लाते हुए कहा, 'आप ग्रामवासियों को भी ठगने से बाज नहीं आए? हम लोगों को क्या बेवकूफ समझ लिया है?
गोनू झा ने विनम्रतापूर्वक कहा, 'मुखियाजी, आप गरमाइए नहीं; शांति से भोजन कीजिए।
मैं आप लोगों की प्रबल इच्छा से मिठाइयों का ही भोज करा रहा हूँ। मैंने सोचा कि सभी मिठाइयों की जड़ ईख होती है, इसलिए भाँति-भाँति की मिठाइयों के झंझट में ना पड़कर क्यों न सभी का मूल ही खिला दिया जाए ? अब आप लोग मन से खाएँ और मेरे पुण्य के सहभागी बनें । पिता के श्राद्ध में मिठाइयों की कमी आप लोगों को बहुत खटकी थी, इसलिए इस बार उसी कमी को पूरा कर रहा हूँ।'
उस दिन से ग्रामवासियों ने गोनू झा सेजबरदस्ती भोज की उम्मीद छोड़ दी।