जाहिल का फेर

जनश्रुति है कि गोनू झा की प्रत्युत्पन्न बुद्धि से प्रसन्न होकर भगवती ने वरदान दिया था कि वैसे तो इन्हें तर्कों में कोई नहीं हरा सकेगा और हार जाने पर इनका प्राणांत ही हो जाएगा।

सुबह का समय था। गोनू झा ने नित्य-क्रिया से निवृत्त होने के लिए लोटा आदि जलपात्र ढूँढा। तत्काल नहीं मिला, इसलिए जलाशय के किनारे ही चले गए।

जलाशय बड़ा था। एक तरफ वह शौच-क्रिया से निवृत हो रहे थे तो दूसरी ओर एक जाहिल भी उसी काम में लगा था। एक-दूसरे पर नजर पड़ी। गोनू झा उठना चाहा तो देखा कि वह जलाशय के समीप बैठा ही हुआ है। मन में आया कि उससे पहले उठने पर वह समझेगा कि कैसा पंडित है? मुझसे पहले उठ गया। यह बात सोच बैठे ही रहे।

उधर उसने सोचा कि पहले उठ जाने पर गोनू झा सभी को कहते फिरेंगे कि आखिर जाहिल है न?

दोनों एक-दूसरे के पहले उठने की प्रतीक्षा करते रहे। मध्याहन हो गया। फिर भी कोई उठने का नाम ही न ले रहा था। अंततः उस मूर्ख से न रहा गया। पत्नी को आवाज लगाई, बिरछी माय, आज खाना यही लेते आओ और खिला भी दो। आज पंडितजी को हराना है।

गोनू झा तब तक काफी ऊब-थक चुके थे और यह सुन हताश हो गए। उन्हें अफसोस होने लगा कि क्यों मूर्ख से बाजी लगाई?

अंत में गोनू झा ही यह कहते पहले उठ गए, 'जाओ रे जाहिल, तुम ही जीते और मैं हारा।

किंवदंती है कि यही हार गोनू झा के प्राणांत का कारण बनी।