एक बार दो पड़ोसी राज्यों में युद्ध छिड़ गया।
बहुत भयानक युद्ध चल रहा था।
युद्ध में बहुत सारे सैनिक घायल हो जाते थे। दोनों राज्यों की सेना में ऐसी कर्मचारी भर्ती किए गए थे जिनका काम था युद्धस्थल पर जाकर अपनी-अपनी सेना के घायल सैनिकों की मरहम-पट्टी करना और उन्हें पानी पिलाना।
उनमें से एक राज्य की सेना का एक कर्मचारी था पंडवरण युद्धस्थल पर जाता और घायल सैनिकों को पानी पिलाता और उनकी मरहम-पट्टी करता।
उसे जो भी घायल सैनिक नजर आता चाहे वह उसकी अपनी सेना का हो या विरोधी राज्य की सेना का हो, उसकी सेवा करता।
इस बात पर कुछ सैनिक ने राजा को शिकायत की कि पंडवरण विरोधी राज्य के घायल सैनिकों को भी मरहम-पट्टी करता और उन्हें पानी पिलाता है।
राजा ने उसे तुरंत बुलाया और उससे पूछा - पंडवरण तुम्हें घायल सैनिक की सेवा के लिए रखा गया है, किन्तु तुम तो विरोधी राज्य के सेना के घायल सैनिकों को भी सेवा कर रहे हो।
ऐसा क्यों ?
पंडवरण बोला - महाराज मेरा कर्म है कि मैं घायलों की सेवा करूं। मैं जब युद्ध स्थल पर जाता हूँ तो मुझे सिर्फ दर्द से कहारते घायल मानव नजर आते हैं। मुझे उनमें अपना या विरोधी नजर नहीं आता है। मुझे सिर्फ अपना कर्म याद रहता है इसलिए मैं हर घायल की सेवा करता हूँ।
पंडवरण की बात सुनकर राजा ने उसे गले से लगा लिया और कहा - पंडवरण तुम सच्चे सेवक हो।
कथा का सार यह है कि सेवा अपने या पराए को देखकर नहीं की जाती। जिस सेवा में पक्षपात हो वह सेवा नहीं होती।
संपूर्ण मानव जाती की एक दृष्टि से सेवा ही सच्ची सेवा है। वह सहज दयावश और मानवता के नाते की जानी चाहिए।