पुरुषोत्तमदस टंडन एक उदार राजनेता थे।
उनकी धन संग्रह में जरा भी रूचि नहीं थी। उनके हाथ सदैव दान की मुद्रा में रहते थे।
यह घटना उन दिनों की है, जब श्री टंडन राज्यसभा के सद्स्य्ह थे।
यहाँ भी लोग उनकी निरासक्त प्रवृत्ति से काफी प्रभावित थे। यह उल्लेखनीय है कि श्री टंडन अपनी इस उदारता पर तनिक भी अहंकार नहीं करते थे।
एक दिन उन्हें किसी ने आकर कहा कि वें अपना भत्ता राज्यसभा कार्यालय से आकर ले लें।
वे कार्यालय में पहुंचे। जब उन्हें चेक दिया गया तो उन्होंने किसी से पेन लेकर अपने चेक को लोक सेवा मंडल के नाम समर्पित कर दिया।
वहीं खड़े एक व्यक्ति ने जब उन्हें ऐसा करते देखा, तो उससे रहा नहीं गया और वह उनसे पूछ बैठा - टंडन जी!
इतनी मुश्किल से मात्र सौ रुपए मिले थे, उन्हें भी आपने दान में क्यों दे दिया ?
टंडन जी सहजता से बोले - भाई! मेरे सात बेटे हैं।
मैं उन सातों से प्रतिमाह सौ-सौ रुपए लेता हूँ। मेरे लिए, तीन-चार सौ रुपए पर्याप्त होते हैं, शेष को भी मैं एक लोक सेवा मंडल को दे देता हूँ।
फिर यह तो अतिरिक्त आय है। इसे अपने पास क्यों रखूं ?
सार यह है कि धन की तीन गतियां होती हैं - दान, भोग और नाश। इनमें भोग, धन की मध्यम गति है।
नाश अधम गति है और दान उत्तम गति है। इसलिए अपने आय का एक हिस्सा दान अवश्य करना चाहिए, तभी उस धन की सार्थकता है।