निन्यानवे का फेर

सेठ धनीराम हमेशा पैसे कमाने में लगे रहते और परिवार पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाते।

उनकी पत्नी अपनी हवेली के सामने रहने वाले मजदूर मोहन के परिवार की ख़ुशी देखकर उन्हें उलाहना देती - तुम हमेशा काम में लगे रहते हो, तुम्हें न अपनी फ़िक्र है और न ही परिवारवालों की।

मोहन के परिवार को देखो, कितना खुशहाल है।

यह सुनकर सेठ जी बोले - मोहन कभी निन्यानवे के फेर में नहीं पड़ा, वरना इसकी सारी हंसी और मस्ती चली जाती।

सेठानी ने निन्यानवे के फेर का आशय पूछा तो सेठ जी ने समय आने पर उन्हें दिखाने का वायदा किया।

एक रात सेठ जी ने रुपयों की एक पोटली मोहन के आँगन में चुपचाप फेंक दिया।

सुबह मोहन की निगाह उस पर पड़ी। खोलने पर उसमें रुपए देख परिवार बहुत खुश हुआ।

पोटली में निन्यानवे रुपए थे।

सभी विचार करने लगे कि इसमें जो एक रुपया कम है, उसे भी कमाकर सौ रुपए पूरे कर लिए जाएं।

सबने निश्चय किया कि अधिक मेहनत करेंगे और पैसे बचाएंगे। यही किया गया।

सौ रुपए तो पुरे हो गए, लेकिन इच्छाएं और बलवती हो गई।

अब मोहन, उसकी पत्नी और बच्चे रुपए बचाने के फेर में व्यस्त रहने लगे।

रात को सभी देर से आते और थके -मांदे सो जाते।

सुबह फिर कमाने के लिए निकल पड़ते। अब न वे परस्पर बातचीत करते और न हंसी ख़ुशी रह पाते। इस परिवार का यह परिवर्तन दिखाकर सेठ जी ने सेठानी से खा - इसे ही कहते हैं निन्यानवे का फेर।

वस्तुतः अधिक पाने की चाह व्यक्ति का सुख-चैन हर लेती है। इसलिए जितना है, उसी में संतुष्ट रहना चाहिए।