सदारायता से दुर्जनता को जीता

प्राचीन समय की बात है मगध के नगरसेठ थे अंगपाल।

वे जितने मृदु स्वभाव के थे, उनकी पत्नी उतनी ही कटु प्रकृतिवाली थी।

इस कारण उनके घर कोई नौकरानी टिक नहीं पाती थी।

इतने विशाल घर की साज-संभाल पत्नी से अकेले जब नहीं हो पाती थी तो उसका सारा क्रोध पति पर निकलता।

बेचारे सेठ जी नई नौकरानी की खोज में सदा लगे रहते ताकि घर में शांति रहे। एक दिन सौभाग्य से उन्हें एक सेविका ऐसी मिली, जिसने कर्कष परिजनों के ही बीच जीवन गुजारा था।

इसलिए वह जब सेठ जी के घर आई, तो घबराई नहीं, बल्कि दृढ़तापूर्वक रुकी रही। उसका नाम था विशाखा।

नगरसेठ की पत्नी अपने कटु स्वभाव के कारण विशाखा को अत्यंत कड़वी बात भी कह देती और खूब काम भी कराती, किन्तु विशाखा हंसकर सबकुछ सहन करती।

अतः उसकी मृदुलता और श्रमशीलता ने सेठ जी के साथ ही इनकी पत्नी का भी मन जीत लिया। अब सेठ जी की पत्नी का कटु स्वभाव बदल गया था। वह अब सबसे प्यार से बात करती और कभी कड़वा वचन नहीं बोलती।

जब सबकुछ ठीक हो गया तो विशाखा ने जाने की आज्ञा चाही। हालाँकि सेठ जी ने उसे सभी सुविधाएं दे रखी थीं, किन्तु विशाखा रुकने को तैयार नहीं हुई।

विशाखा कलह व अशांति वाले दूसरे घर की खोज ने निकल पड़ी।

उसका कहना था कि विपन्नों के साथ रहकर उन्हें अपनी सदाशयता के सहारे सुधारा जा सकता है।

अतंतः वह ब्रह्मवर्त क्षेत्र की प्रसिद्ध संत के रूप में ख्यात हुई। वस्तुतः दुर्जनों को अपने सद्गुणों के संपर्क में रखकर सुधारने का सेवाकार्य पत्थर को पानी से काटने जैसा जटिल है किन्तु असंभव नहीं है।