अपनी भरी जवानी के दिनों से ही मैं उसे जानता था, क्योंकि वह मेरे पापा के जूते बनाया करता था।
अपने बड़े भाई के साथ ही लन्दन के वैस्ट एण्ड की एक गली में उसकी दूकान थी, जो दो दुकानों को मित्रा कर एक कर दी गई थी। आज वह दुकान वहां नहीं है, लेकिन उस जमाने में वह वैस्ट एण्ड की सबसे ज़्यादा फैशनेबुल दुकानों में से एक थी।
उस दूकान की एक ख़ास बात यह थी कि उसमें तड़क भड़क नहीं थी। उसके साइनबोर्ड पर यह नहीं लिखा था कि इंगलैण्ड के राजवंश के लिए जूते यहीं बनते हैं। उसपर सिर्फ लिखा था उसका जर्मन नाम “गैसलर ब्रदर्स”, और सामने खिड़कियों में शो के लिए दस पांच जोड़ी जूते रखे थे।
मुझे याद है कि इन जोड़ियों को देखकर मेरे मन में एक सवाल उठा करता था-आखिर ये इस तरह क्यों रखी हैं, क्या बेकार हैं?
क्योंकि वह हमेशा आर्डर पाने पर ही जूते बनाता था; न कम न ज़्यादा; जितनी जोड़ियों का आर्डर मिलता था, उतनी ही बनाता था और उनमें से कोई भी बच भी सकती थी, यह कल्पना से परे की बात थी, क्योंकि उसका बनाया हुआ जूता पैर में फिट न उतरे, यह असंभव था। तो फिर ये बेकार जूते अलमारी में क्यों रक्खे रहते थे।
और यह भी नहीं हो सकता कि वे किसी दूसरे कारीगर के बनाए हुए हों, क्योंकि वह अपनी दुकान में चमड़े की एक पट्टी भी ऐसी देखना नहीं सहन कर सकता था, जो उसने खुद न बनाई हो।
उसके अतिरिक्त वे जूते निहायत खूबसूरत थे-एक जनाने पंप शू की जोड़ी-उफ कैसी लोच थी उसमें!
और वह पेटेन्ट लैदर की बनी हुई जोड़ी » ऐसी चमचम करती थी कि देखकर मुंह में पानी भर आता था और भी । एक जोड़ी थी लंबे ब्राउन रायडिंग बूट की जिसकी चमक में कुछ काली सी झलक दिखाई देती थी, जिससे यह मालूम होता था कि यह जूते हालांकि नए थे, पर जैसे सौ बरस से पहने जा रहे हों।
क् ऐसे जूते वही बना सकता था, जिसके सम्मुख जैसे जूते की आत्त्मा ही मूर्तिमती होकर खड़ी हो जाती हो-उन जूतों का सौंदर्य और कारीगरी ऐसी संपूर्ण थी कि मानो संसार के समस्त जूतों मात्र की आदर्श कल्पना ही उनमें सजीव सी साकार हो उठी हो।
इस प्रकार की भावनाएं तो सचमुच मेरे मन में बाद को ही उठी थीं, _ लेकिन शायद 14 वर्ष की उम्र में जब पहले पहल मैं उसकी दूकान पर गया था, तभी से उसकी और उसके भाई की वह शान कुछ कुछ मेरे मन में समा गई थी और तबसे हमेशा आज तक याद रही है; क्योंकि जूते बनाना-ऐसे जूते बनाना जैसे कि वह बनाता था-जैसा तब मुझे बड़ा रहस्यमय और अदूभुत-सा लगता था-वैसा ही आज भी लगता है।
बा कुछ वर्ष बाद एक दिन की बात है-मेरा जवानी का जिस्म था और भरा हुआ पैर, जिसे दिखाते हुए मैंने उससे कुछ हिचकिचा कर कहा था-“मिस्टर गैसलर, ऐसे सख्त पैर का जूता बनाना बहुत मुश्किल होगा न?”
उसने उत्तर दिया, “यह सख्ट तो नहीं है बाबू?” और यह कहने के साथ ही उसकी खिज़ाब से रंगी हुई दाढ़ी के लाल रंग में से एकाएक मुसकान फूट पड़ी।
उसकी दूकान में कोई ऐसे नहीं घुसता था जैसे कि मामूली तौर से और दूकानों में, “कि मेहरबानी करके जल्दी दीजिए, मुझे जाना है ” किनतु वह कुछ ऐसी ही भावना से जैसे कि आदमी गिरजे में पैर रखता है।
उसकी दूकान में काठ की एक ही कुर्सी पड़ी रहती थी-जिस पर ग्राहक आकर बैठ जाता था और इंतजार करता था, क्योंकि दूकान पर बैठता कोई नहीं था। किंतु शीघ्र ही खंदक-सी अंधेरी, और चमड़े की भीनी भीनी गंध से भरी हुई उस दूकान के ऊपर मचान से वह या उसका बड़ा भाई झांकता हुआ दिखाई पड़ जाता था।
एक भराई हुई-सी आवाज़, लकड़ी के तंग जीने पर सिलीपरों की खर और बस वह आपके सामने बिता कोट पहने, छुछ कमर शुकाए-सा, चपडेः का एपरन बदन पर डाले हुए, जिसको बाहें ऊपर को मुट्ठी हुई है, आज मिचमिचाता हुआ मौजूद है। जैसे बह जूतों का ही कोई सपना देखकर उद्य हो, या जैसे उल्लू की तरह दिन का उजाला देखकर चौक उठा हो और विध्न पड़ने से झुंझला गया हो।
और मैं पूछता हूं “क्या हालचाल है भिस्टर गैसलर? कया मेरे लिए रूसी चमड़े का जूता बना सकोगे?"'
बिना एक शब्द बोले वह दूकान के अंदर, जहां से बह आया था, वहीं फिर चला जाता है और मैं वहीं काठ की कुर्सी पर बैठा-बैठा उसके व्यापार की खुशबू सूंघता रहता हूं। कुछ मिनट बाद ही बह लौट आता है अपने हाथों में, जो पतले हैं और जिनमें नीली-नीली नसे उभरी हुई हैं, सुनहरे भूरे रंग के चमड़े का एक दुकड़ा लिए हुए।
इसी टुकड़े पर नजर - गड़ाए गड़ाए वह कहता है-“किटना खूबसूरट है।” उत्तर में मैं कहता हूं-“बेशक !!”
वह फिर बोलता है-“कब चाहटा है दुम ?”
मैं कहता हूं-“ओह, जब तुम असानी से दे सको।”
और वह जवाब देता है-“अगले पखबारे में ।” कितु अगर वह न होकर उसका बड़ा भाई हुआ, तो कहता-“हम भाई से पूछ कर बटाएगा ।” तब मैं उठकर चल दूता हूं-“अच्छा, धन्यवाद! गुड मार्निंग।” “गुड मार्निंग”” वह उत्तर देता है, कितु अपने हाथ में लिए चमड़े को बराबर एकटक देखता ही रहता है।
और जैसे ही मैं दरवाज़े की तरफ चल देता हूं कि वह फिर अपने सिलीपरों की खटपट-खटपट करता हुआ लकड़ी के तंग जीने से चढ़कर ऊपर अपने जूतों के स्वर्ग में पहुंच जाता है।
लेकिन अगर कोई नए फैशन का जूता हुआ, जैसा कि उसने अभी तक नही बनाया है, तब वह जरूर कुछ तकुल्लुफ और कायदा बर्तता था-मेरे . पैर से जूता खुलवा कर, जो उसके ही हाथ का बनाया हुआ होता, वह अपने ही हाथों में ले लेता और उसे वह एक साथ ही स्नेह और समालोचना भरी बड़ी ममता की दृष्टि से निहारने लगता था, जैसे वह उसके उस सौन्दर्य की कल्पना कर रहा हो, जो इसे बनाते वक़्त उसने इसमें भर दिया था, और साथ ही इस पर भी रोष और दुःख प्रकट कर रहा हो कि इसके पहनने वाले को जूता पहनने की तमीज नहीं है, और उसने उसकी कारीगरी की बिलकुल रेड़ मार दी है।”
फिर पतले काग्रज़ के एक टुकड़े पर वह मेरा पैर रखवाता और तीन या चार बार अपनी घिसी-घिसाई पेन्सिल से उसे उतारता । जब उसकी कांपती हुई उंगलियां मेरे पंजे को छूकर निकलती, तो मुझे ऐसा लगता था जैसे वह मेरी ठीक-ठीक आवश्यकता के अंतर तक को टटटोल लेना चाहती है।
मैं वह दिन कभी नहीं भूलूंगा जब मैंने उससे यह कहने का अवसर पाया था-“जानते हो मि. गैसलर, वह जूता जो तुमने टहलने के लिए पिछली बार बना कर दिया था, सो चटख गया।
यह सुनकर वह मेरी तरफ कुछ देर तक अवाक देखता रह गया और कोई उत्तर नहीं दिया। जैसे वह मुझसे कह रहा हो, “यह हो ही नहीं सकता, अपनी शिकायत वापस लो-या फिर बात ठीक-ठीक बतलाओ।”
कुछ देर बाद उसने उत्तर दिया था-“चटखना टो नहीं चाहिए था।” “लेकिन फिर भी चटख गया।”
“बिना अच्छी टरह पहने टुमने उसको पानी में भिगो डिया होगा।” “नहीं तो, यह बात तो नहीं हुई।”
यह सुनकर उसने अपनी पलकें नीची कर लीं, जैसे वह सोच रहा हो “कौन से जूटे थे वे?”
किंतु मुझे फिर बड़ा अफुसोस हुआ कि मैंने व्यर्थ ही यह सब कह कर इस बेचारे का दिल दुखा दिया।
“टो उनको वापस कर डो”, वह बोला, “हम फिर डेखेगा।”
जब अपने जूतों के चटख जाने से मेरा ही दिल पसीज उठा, तब मैं यह अच्छी तरह अनुमान कर सका कि मि. गैसलर को जिसने कि, उसे इतने अरमानों से बनाया है, कितना दुःख हुआ होगा और वह उसके विषय में जानने के लिये कितना व्यग्र होगा।
“कुछ जूटें”” उसने कहा,-“पैडा ही खराब होटे हैं। अगर दुम्हारा जूटा हमारे से ठीक नहीं हो सकेगा, टो हम उसका सब डाम वापस कर डेगा।”
क बार की बात है कि मुझे एक नया जूता जल्दी ही चाहिए था, इसलिए मैंने एक बड़ी दूकान में जाकर खरीद लिया ।
एक दिन यों ही अनजाने में उसे पहन कर मि. गैसलर की दूकान में चला गया। उसने मेरे जूतों का आर्डर तो ले लिया, लेकिन कोई चमड़ा नहीं दिखाया। उसकी आंखें मेरे फैक्टरी के बने हुए नए जूते पर गड़ी हुई थी। आखिर उससे रहा न गया; कहने लगा-“यह जूटा टो हमने नहीं बनाया है।”
उसके स्वर में क्रोध नहीं था, दुःख नहीं था, घृणा नहीं था, रोष भी नहीं था, फिर भी उसमें कोई ऐसी तीव्र मूक प्रतारणा अवश्य थी, जिससे मैं सन्न हो उठा!
इसके बाद उसने मेरे बाएं पैर के जूते की एक जगह, जो फैशन की ख़ातिर कुछ खूबसूरत बनी हुई थी, अपनी उंगली से दबा दी और कहा- “टुमको यहां काटता है।.....यह बड़ा-बड़ा डूकान अपने इज्जट का भी ख्याल नहीं करटा। बिल्कुल रही।”
इसके बाद और भी बहुत सी कड़वी-कड़वी बातें वह कह गया। जैसे उसके अंदर की कोई घुटन बांध तोड़कर निकल चली हो। आज पहली बार मैंने उसके मुंह से जूतों के व्यापारी की ख़राब हालत और मुसीबतों के बारे में कुछ सुना था
“वह बड़ा-बड़ा कंपनी विज्ञापन से पैडा करता है,अपने माल का अच्छाई से नहीं-अपनी मेहनट से नहीं! इसी का नटीजा है कि अब हमारे पास काम बिल्कुल नहीं है और दिन-दिन कम होटा जाटा है...।”
और आज उसके सझुर्रियोंदार चेहरे पर मैंने ऐसी-ऐसी भावनाएं देखीं जिन पर पहले कभी ध्यान नहीं दिया था-विकट संघर्ष और उसकी कड़ुवाहट, जिनमें वह वर्षों से पिस-पिस कर मर-पिच कर काम कर रहा था और आज ही मुझे उसकी लाल दाढ़ी में सफेद बालों के गुच्छे दिखाई पड़े, जिनमें उसकी सारी व्यथा क्रंदन कर उठी।
जैसे भी हो सका मैंने उसे यह समझाने की कोशिश की कि किन- किन मजबूरियों की वजह से मैंने वे जूते ख़रीद लिए थे; पर उसकी मुद्रा और स्वर मेरे दिल पर अपना ऐसा असर कर गए कि थेड़ी ही देर में मैंने उसे कई जूतों का आर्डर दे दिया।
वे जोड़े तैयार हो गए। और निमिसिस' भी हार गई उनसे । घिसाई ने भी उनसे हार मान ली। उफ, पहले जूतों से भी ज़्यादा वे चले और दो बरस तक, सच ही, फिर जूते बनवाने के लिए उसके पास जाना नहीं पड़ा।
लेकिन एक दिन जब गया भी, तो देखा कि उसकी दो दूकानों में एक पर किसी दूसरे नाम का साइनबोर्ड लगा था-हां, वह भी जूतेवाला था और राज-कूटुंब के लिए जूते बनाता था-और वहां बाहरखाली खिड़की में अपनी शान की निराली जूतों की वे तीन चार जोड़ियां भी नहीं थी। दूकान अकेली रह गई थी, इसलिए और भी अन्धेरी, छोटी और खाई की तरह मालूम पड़ रही थी।
चमड़े की गन्ध भी घनीभूत हो गई थी।
पर वह काठ की कुर्सी अब भी वैसे ही पड़ी थी। मैं जाकर उस पर बैठ गया, लेकिन जितनी देर लगा नहीं करती थी, आज उतनी देर बाद ऊपर से एक शक्ल ने झांका और फिर अपने उन्हीं सिलीपरों से काठ के तंग जीने पर “खटपट-खटपट' करता हुआ आख़िर मेरे सामने वह आ ही खड़ा हुआ और जंग लगी कमानी में से मुझे घूरते हुए पूछा-““मिस्टर....है न?”
“हां हां, मैं ही हूं.” मैंने हिचकिचा कर कहा, “पर मिस्टर गैसलर, आपके जूते तो तोड़े नहीं टूटते! देखो न इसकी अभी सूरत भी नहीं बिगड़ी है.” कहकर मैंने अपना पैर आगे बढ़ा दिया। उसने मेरे जूतों पर एक नजर डाली ।
“हां! उसने कहा-“पर लोग टो अच्छा जूटा नहीं चाहटा है।”
उसकी कड़ी नजर और शिकायतों से बचने के लिए मैंने जल्दी से पूछा-“लेकिन तुमने अपनी दूकान का यह क्या हाल कर डाला है?”
उसने शांति से उत्तर दिया--“बहुट खर्च होटा था। क्यों टुमको जूटा चाहिए?”
मैंने तत्काल ही तीन जोड़ी का आर्डर दे दिया, हालांकि मुझे जरूरत सिर्फ दो ही जोड़ी की थी और बस जल्दी से वहां से चल दिया। लेकिन मैं ठीक नहीं कह सकता कि उसके मन में यह कैसे धारणा पैदा हो गई कि मेरे हृदय में उसके प्रति, या स्वयं उसके प्रति इतनी नहीं जितनी कि उसके जूतों के आदर्श के प्रति कोई विरोध भावना है। लेकिन मैं समझता हूं कि कोई भी इस प्रकार सोचना नहीं चाहता होगा, क्योंकि जब मैं कुछ दिनों पहले एक बार गया था, तब मुझे याद है कि मैंने सोचा था, “'उंह! होगा भी; पर मैं उस बेचारे को कभी नहीं छोड़ सकता-ऐसे तो सब चलता ही है।
हो सकता है कि वह उसका बड़ा भाई रहा हो।”
पर, मैं जानता था कि उसके बड़े भाई में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह मेरी तरफ चुप रहकर भी आंखें निकाल सकता।
इसलिए यह देखकर मुझे कुछ सन्तोष-सा हुआ था कि दूकान में उसका बड़ा भाई ही था, जो फिर एक चमड़े का टुकड़ा हाथ में हिलाता हुआ आया।
“कहो मिस्टर गैसलर अच्छे तो हो?” मैंने पूछा।
“हां, अच्छा टो हूं” उसने उत्तर दिया “पर हमारा बड़ा भाई मर गया।!
और तब मैंने समझा कि अरे! यह तो वह नहीं है, किंतु अब कितना । बूढ़ा और ढला हुआ लगता है यह भी! पर इससे पहले मैंने कभी उसे अपने भाई के बारे में कुछ कहते नहीं सुना था।
यह सुनकर मुझे बड़ा अचंभा हुआ और धक्का-सा लगा। मैंने धीरे... से कहा “उफ! बड़े दुख की बात है।”
“हां” उसने उत्तर दिया “वह बहुट अच्छा आडमी ठा, बहुट बढ़िया जूटा बनाटा ठा। पर मर गया ।”
और उसने अपनी बीच खोपड़ी पर हाथ रख लिया, जहां से उसके बाल बहुत कुछ उड़ चुके थे, ठीक वैसे ही जैसे उसके भाई के उड़ गए थे। उसके इस संकेत से मुझे ऐसा लगा जैसे वह अपने बड़े भाई की मृत्यु का कारण बता रहा हो।
“वह दुसरी दुकान के खोने का सडमा नहीं सह सका। टुमको जूटा चाहिए”, कहकर उसेन अपने हाथ वाला चमड़े का टुकड़ा मेरी तरफ बढ़ाकर कहा “किटना खूबशूरट है।”
बिना कुछ कहे सुने मैंने कई जूतों का आर्डर दे दिया। बहुत दिनों बाद वे बनकर आए, लेकिन मेरे इतने अच्छे जूते उसने कभी नहीं बनाए थे। वे फाड़े नहीं फट सकते थे, तोड़े नहीं टूट सकते थे। कुछ दिनों बाद मैं बाहर चला गया।
एक वर्ष से अधिक बांद मैं लन्दन लौटकर आया। और सबसे पहली दुकान जिसपर मैं गया था, वह मेरे पुराने दोस्त गैसलर की ही थी। मैं एक साठ वर्ष के बूढ़े को छोड़कर गया था, किंतु लौटकर 75 वर्ष के बूढ़े को देखा : विदीर्ण, क्लांत और प्रकंपित। इस बार तो उसने मुझे सचमुच नहीं पहचाना ।
मैंने दुखित होकर कहा “मिस्टर गैसलर, ओह! तुम्हारे वे जूते तो बहुत ही बढ़िया निकले! देखो न, मैं लगातार यही जूता बाहर सफ़र में पहने रहा और अभी तो देखो यह आधे भी नहीं घिसे हैं, है न?”
काफी देर तक वह मेरे जूते की तरफ टकटकी लगाए देखता रहा-वही जूते तो थे जो रूसी चमड़े के बने हुए थे-और उसकी मुद्रा स्थिर और गंभीर हो गई।
उसने मेरे टखने के पास जूते पर हाथ रखकर कहा-
“क्या यहां पर यह फिट है? मुझे याड है कि इन्हें बनाने पर हमको बहुट मुसीबट पड़ा ठा।”
मैंने विश्वास दिलाया “नहीं नहीं, बिलकुल फिट है।”
“तुम्हें जूटण चाहिए? हम बहुट जलडी बना डेगा, खाली हाथ बैठा है-कुछ काम नहीं है।”
मैंने कहा-“हां हां, मुझे सब तरह के जोड़े चाहिएं।”
“हम नई टरह का जूटा बना डेगा। टुम्हारा पैर बड़ा है न”, कहकर उसने बड़े धीरे-धीरे मेरे पैर का नाप काग्रज़ पर पेन्सिल से खींचा, और इस बीच में सिर्फ एक बार मेरी तरफ मुंह उठाकर कहा-
“क्या हमने टुमको बटलाया कि हमारा भाई मर गया?” उसका शरीर हड्डियों का कंकाल मात्र रह गया था। उसे देखकर मनको बड़ी वेदना होती थी, इसलिए मैं जल्दी से वहां से चल दिया।
एक दिन शाम को जब नए जूतों की पार्सल आ गई, तो मैंने रूसी चमड़े वाले जूते उतार दिए। मैंने पारसल खोला और चार जोड़े निकाल कर एक पंक्ति में रख दिए।
फिर एक-एक करके मैंने उन्हें पहनना शुरू किया। इसमें कोई शक नहीं था कि इतने अच्छे चमड़े के इतने बढ़िया जूते उसने कभी नहीं बनाए थे।
एक जोड़े में मैंने उसका बिल रखा हुआ पाया। जूतों की कुल कीमत उतनी ही थी, जितनी वह मामूली तौर से हमेशा लिया करता था, परन्तु उसने कुल कीमत फौरन ही मांगी थी। यह जानकर मुझे बड़ा ताज्जुब हुआ, क्योंकि पहले तो वह तीसरे महीने से पहले कभी बिल नहीं भेजता था। मैं तत्काल नीचे उतर कर गया और एक चेक काटकर तुरन्त ही अपने हाथ से ही उसे लेटरबाक्स में डाल आया।
एक सप्ताह बाद, जब मैं उसकी दुकानवाली गली में होकर जा रहा था, तो मैंने सोचा कि चलो मिस्टर गैसलर से कह दूं कि इस बार तुम्हारे जूते सबसे बढ़िया रहे। लेकिन जब मैं उसकी दूकान के सामने पहुंचा, तो मैंने देखा कि वहां से उसके नाम का साइनबोर्ड ग़ायब था, लेकिन खिड़की में अब भी वही जनानी जोड़ी, पेटेन्ट लैदर के पम्पशू और काले राइडिंग बूट जैसे के तैसे रखे थे। मैं एकदम चिन्तित हो उठा और अन्दर पहुंचा। वे दो छोटी दुकानें मिलकर फिर एक बड़ी दुकान हो गई थी; उसमें एक नवयुवक अंग्रेज मौजूद था।
“मिस्टर गैसलर हैं?” मैंने पूछा। उसने मेरी ओर देखा। उसकी दृष्टि में कुछ विचित्र-सी विनय और शीलता थी।
“नहीं जनाब” उसने जवाब दिया, “लेकिन मैं आपकी खिदमत में हाजिर हूं, जो हुकुम हो करें। यह दुकान अब हमने पूरी ले ली है। आपने हमारा नाम पहले बराबरवाली दुकान पर देखा ही होगा। हम कुछ बहुत बड़े-बड़े रईस आदमियों के लिए जूते बनाते हैं।”
“हां हां ठीक है” मैंने कहा “पर मिस्टर गैसलर कहां है?”
ओह” उसने जवाब दिया “वह तो मर गए।”
“मर गए! लेकिन अभी पिछले बुध को ही तो उन्होंने मेरे पास ये नए जूते बनाकर भेजे हैं।'
“हाय!” उसने कहा “बडी दर्दनाक कहानी है! बेचारे भूखों मर गए !?
“हे भगवान!”
“डॉक्टर कहते थे कि वे घुल-घुल कर मरे।
और आप देखिये वे तब भी काम करते थे।
और दुकान चलाया करते थे! और काम का यह हाल - था कि सारा काम अकेले ही करते थे-किसी को जूते में हाथ नहीं लगाने देते थे। एक आर्डर पर ही इतना वक़्त लगा देते थे कि बेचारा ग्राहक ऊब जाता था। इसी तरह उनके सब ग्राहक टूट गए और फिर बैठे-बैठे वह दिन-रात काम करते रहते थे-मैं कह सकता हूं कि सारे लन्दन शहर में उनसे अच्छा जूता कोई नहीं बनाता था और न कभी बना सकता है। लेकिन कंपटीशन को तो देखो कितना जबरदस्त है। पर वह अपना माल कभी एडवर्टाइज नहीं करते थे; सबसे बढ़िया चमड़ा लगाते थे और सारा काम अपने ही हाथ से करते थे और उसी का यह नतीजा है। इससे और ज़्यादा कया उम्मीद की जा सकती है?”
“लेकिन भूखों मर-”
“यह बात कुछ शायरी हो सकती है-जैसी कि कहावत है, लेकिन मैं खुद भी जानता हूं कि वह आखिर दम तक अपने जूतों से ही चिपटे _ रहे। मैं उन्हें दिन रात काम करते देखा करता था। मैंने उन्हें कभी वक़्त से खाना खाते नहीं देखा; सोते नहीं देखा, कभी एक छदाम उनके घर में नहीं रही। रात में तापने के लिए आग भी नहीं नसीब होती थी उन्हें! इतने वर्षों तक वे कैसे जिंदा रहे, मुझे तो यही ताज्जुब है। पर जनाब वह आदमी एक ही था।
उसकी सानी का जूता बनानेवाला दूसरा कारीगर लन्दन में नहीं है!”
“हां,” मैंने भारी मन से कहा “वह बहुत बढ़िया जूते बनाते थे।”
इतना ही कहकर मैं फौरन मुड़ा और दुकान से बाहर चला गया, क्योंकि मैं उस नौजवान को अपनी आंखों के आंसू दिखाना नहीं चाहता था।