मैं अभी लौटकर आता हूं”...जीने से उतरते-उतरते मेरे दोस्त ने कहा!
दुनिया में यही मेरा सबसे अच्छा दोस्त था। प्राचीन स्पेन का एक खण्डहर था, जिसके बाहर एक बड़ी सराय में हम लोग ठहरे हुए थे।
धीरे-धीरे वह मेरी आंखों से ओझल हो गया...मेरी आवाज़...“'सीधे ही लौटकर आना”-उसकी निरंतर मिटती हुई पगध्वनि में मिलकर खो गई।
अब मैं अकेला रह गया। छज्जे पर गया, और रेलिंग पर झुककर खड़ा हो गया। धूल में अटे चिथड़े लपेटे हुए भिखारी दरवाज़ों में अड़े खड़े थे। सामने एक गिरजा था, जिसकी खिड़कियों की तरफ मुंह किए हुए बहुत से कुत्ते भूंक रहे थे, क्योंकि खिड़कियों पर जो क्रास लगे थे, उनसे कुत्तों को उजड़े हुए कृब्रिस्तान का भान हो रहा था।
बढ़ती हुई सांझ के काले आवरण में छिपती हुई सड़कें जैसे रहस्यमय हो उठी।
अस्त होते हुए सूर्य के खून की तरह लाल-लाल प्रकाश में मकान भूतों के घर लग रहे थे।
अपने सामने मकान में एक खिड़की थी, जिसमें से होकर मुझे सब कुछ अच्छी तरह दिखलाई देता था।
मुझे लगा कि उस घर के कमरे-कमरे में बेचैनी फैली हुई है।
मेरे बिल्कुल सन्मुख जो कमरा था, वह गंभीर व्यक्तियों से ठसाठस भरा था। उसमें ईसामसीह की एक बड़ी तस्वीर थी, जिसके चारों तरफ मोमबत्तियां जल रही थीं, और फूल-मालाएं बिखरी हुई थीं और जिनसे बिल्कुल ताज़ा खून बहता मालूम हो रहा था। मेरे देखते-देखते वे व्यक्ति उस तस्वीर के सन्मुख साष्टांग लेट गए।
गली के नुक्कड़ पर खंभे में लगा हुआ लैंप यकायक जल उठा,चमक उठा अपने हरे-नीले प्रकाश में!
मैंने अपनी घड़ी देखी। दोस्त को गए हुए पूरा घण्टा भर हो चुका।
चिंता मुझे घेरने लगी। जब से मैंने इस प्राचीन नगर पर अपनी पहली नज़र डाली थी, डर तो जैसे मेरे दिल में समा गया था! मैंने कल्पना की-“दोस्त को कहीं किसी ने पकड़कर लूट लिया होगा . और फिर कौन जाने कृत्ल भी कर दिया हो! और मुझे तो यह भी नहीं मालूम कि आखिर वह गया किधर है और क्यों?” मैं तरह-तरह की भयानक बातें सोचने लगा-“कहीं परदेशी जान कर तो उसे किसी ने अपने चंगुल में नहीं फंसा लिया?”
मैंने एक-एक राहगीर को देखना शुरू किया, पर वे सब-के-सब संदेह भरे ही मालूम पड़े। बीमारी ओर बुढ़ापे से विकृत बुढ़िएं थीं, अधनंगे बच्चे थे, जिनके बहुत रोने-चिल्लाने पर उनकी माताएं उन्हें अपनी सूखी हुई छातियां चूसने को दे देती थीं; फिर बड़े बर्बर आदमी थे, जिनके हाथ में चमकती मूठदार लट्ट थे!
खूंख्वार घोड़ों का एक दल अपने नाल लगे खुरों को टपटपाते हुए निकल गया।
अंधेरा घना होता चला गया। राजपथों पर खूब रोशनी हो गई! एक के बाद एक गिरजे का टावर जैसे सजग हो गया, घंटे बजने लगे।
मेरे सामने वाले गिरजे के विशाल द्वार खुले हुए थे, जैसे जम्हाई लेने के लिए किसी विशालकाय जीव ने मुंह फाड़ दिया हो , इनके अंदर जनसमूह की भीड़ की भीड़ समाई चली जा रही थी। कीड़े-मकोड़ों की तरह इस भीड़ के आदमियों को गिरजे में अंदर समाते देखकर मैं बेचैन हो उठा! मुझे लगा कि कहीं मेरा दोस्त भी इसी भीड़ में रल कर अज्ञात के गर्त में विलीन न हो गया हो-उस अज्ञात के गहर में, जिसमें से कि कांसे के घंटे की पिसती और किटकिटाती आवाज़ निकल रही थी।
और इस भयावह वातावरण में शायद मैं चीख पड़ा था, क्योंकि एक बुड़ढ़ा जो सड़क के उस किनारें पर कुछ देर से खड़ा मुझे ताक रहा था,
और जो मुझसे कुछ बात करने के लिए कोई बहाना-सा खोजता लगता था, अब मेरी तरफ घुन्नाता और घूरता हुआ चल दिया था।
परेशानी के मारे मैं ऐँठा जा रहा था। हमारा कमरा पुराने ढंग का था, जिसमें बहुत सी दीवारें और कोने थे। इन कोनों में ढेर-का-ढेर जमा हुआ गहन अंधेरा भयानकता को और भी बढ़ा रहा था।
मैंने जल्दी-जल्दी कपड़े पहने और निकल पड़ा। पहले मैंने ठीक ढंग से शहर में चारों तरफ अपने दोस्त की तलाश की, पर वह कहीं न मिला मेरा सिर घूम गया और जैसे बुख़ार चढ़ आया। इसी बुखार में फिर मैं अंधाधुंध शहर में इधर-उधर चक्कर काटने लगा।
पत्थर के पुल पर झुके हुए आवारों में ढूंढा शराब की भट्टी में डटे हुए पियक्कड़ों में ढूंढा-पर कहीं उसका नाम-निशान नहीं था।
मैं बार-बार अशुभ आकांक्षाओं को अपने दिल से निकाल रहा था, पर वे बार-बार अपना घर किए ही जाती थी।
आंखें मेरी जैसे दर्द के मारे फटी जा रही थीं, और दिल जैसे किसी पाप के बोझ से दवा जा रहा था। मैंने लौटने का संकल्प किया।
लेकिन मैंने अपना कृदम उठाया भी नहीं था कि दोस्त के लिए मेरी चिंता मिट गई और मैं स्वंय अपने लिए चिंतित हो उठा! मुझे डर लगने लगा!
वह चाहे मरा हो, या जीता हो, मुझे तो एकदम वापस चलना चाहिए!
उफ॒! इस रात में मैं कैसे भाग आया!-इन अंधेरी सड़कों पर होकर, जिनपर मकानों के रुख निगल जाने के लिए तैयार खड़े लगते थे! अंधकार की कालिमा में लिपटे हुए चौराहों पर खड़े हुए वे टावर ऐसे लगते थे मानो सितारों तक पहुंचने के लिए अज्ञात की नींव पर वे खड़े किये गए हों! शराब की दुकानों में हो-हल्ला मच रहा था!
सुनसान में नजदीक के मकानों से टकरा कर लौटती हुई मेरे पैरों की आहट तोप की-सी गर्जन मालूम हो रही थी! राहगीर मुझे पहले से भी कहीं ज़्यादा अटपटे और रहस्य भरे मालूम पड़ रहे थे। कया मैं उनसे रास्ता पूछ सकता था? नहीं! वे सब चोर थे, हत्यारे थे, फौरन ही मेरी पीठ में छुरा घुसेड़ देते! मैं सड़क के बीचो बीच चल रहा था। गर्दन घुमा घुमा कर अपने दोनों तरफ चुपके-चुपके देखता जा रहा था! मेरी शकल प्रेतों जैसी हो रही थी! और मुझे सबसे बड़ा डर यह था कि कहीं मेरे इस डर को कोई भांप न
लें! एक कुबड़ा दंपति ख़रामा ख़रामा चला आ रहा था। उनसे बचने के लिए मैं बिजक कर पीछे हट गया। फिर एक कुरूप औरत मेरे नज़दीक आई और न जाने क्या अंटशंट मेरे कानों में कह गई। उसे धक्का देकर हटाने का दुस्साहस करने के बजाय मैंने खुद ही अपनी चाल और तेज कर दी। चलते चलते जब मैं एक बड़े दरवाजे के पास पहुंचा, उसमें खूब उजाला हो रहा था; वहां मैंने वैसे ही धूल में अटे चिथड़ों में लिपटे फुकीरों को रास्ते में अड़ा पाया जैसे कि शाम को सराय में देखे थे।
उनका चेहरा देखकर डर मालूम होता था। मैंने देखा कि हाथ फैला फैला कर वे भीख मांग रहे थे। समझ में नहीं आता था किधर जाऊं...मैं चकपइए की तरह घूम गया। इसी समय गिरजे का घंटा बजने लगा और उससे निकलती आवाज ऐसी मालूम हुई जैसे लड़ाई में तलवारें कटाकट झनझना रही हों!
यकायक मैंने देखा कि मैं अपनी सराय के बिल्कुल सन्मुख ही खड़ा हूं! मैं अंदर अपने कमरे पर पहुंचा और कांपते-कांपते ताले में चाभी डाली। कमरे के अंदर गया।
दोस्त का ध्यान तो कृतई मेरे दिमाग़ से उतर चुका थां। मैंने यह भी नहीं सोचा कि वह अब भी लौटा होगा कि नहीं! कमरे में घुसते ही मैंने दियासलाई जलाई और फिर मोमबत्ती। इसके बाद मैंने ऊपर से नीचे तक संदूक, अल्मारियां, सोफे, कुर्सियां-सभी कुछ देख डाला। पर कहीं कुछ नहीं था!
अपना भय मिटाने की उत्सुकता से ही मैं और भी भयातुर हो उठा! फिर मैंने सब सामान ठीक से लगाया और अपना तमंचा भर लिया। अपने सोने के कमरे की मैं बहुत ज़्यादा हिफाज़त करना चाहता था...क्यों? मुझे सोना तो था नहीं, निश्चय, मैं एक किताब उठाकर पढ़ने लगा। यह ठीक है कि मेरी आंखें पन्नों पर ही चिपकी हुई थीं, लेकिन मेरा ध्यान खिड़की और दरवाज़े पर टिका हुआ था-कहीं कोई छिपा न बैठा हो!
जीने पर चढ़ते हुए किसी के पैरों की जोर की आहट मुझे सुनाई पड़ी और प्रतिक्षण बढ़ती हुई उसकी गति के साथ मेरी चिंता भी समान गति से बढ़ने लगीं। वह आहट ठीक मेरे दरवाजे के सामने आकर रुक गई।
मैंने समझा कि लुटेरे आ गए।
और मैं फौरन चारपाई से कूद कर खड़ा हो गया। एक बड़े पते की बात यकायक मुझे सूझ गई!
पुलिस को इत्तला कर दूं।
जल्दी जल्दी मैने यूं ही अधूरे कपड़े पहने और चल दिया। सड़क पर आकर खड़ा हुआ , तो पुराना बुखार फिर चढ़ आया। पत्थर की मूर्त्तियों जैसे जो फूकीर खड़े थे, क्या उन्हें झकझोरकर मैं रात की उसी अंधेरी भूलभुलय्या में, जहां से अद्भुत रूप से बचकर मैं अभी लौटा था, जाकर फिर खो जाऊं?
क्या फिर परेशानी दुबारा मोल लूं?
और पागल तक हो जाऊं? मैं लोट आया और जब कमरे के सामने पहुंचा, तो यह सोच कर कि मेरे पीछे न जाने क्या हुआ होगा, मैं कांप उठा!
मुझे याद है कि मैं वही कमरे की देहरी पर बैठ गया था।
मेरे हाथ-पैर बिलकुल ढीले पड़ गए थे। फिर मुझे ऐसा लगा जैसे हज़ारों हाथ, जिनका स्पर्श मुझे मालूम नहीं हो रहा था, मुझे उठाकर कमरे में अंदर ले जा रहे हैं। जीने पर चढ़ते हुए अन्य मुसाफिरों की आवाज़ों का शोर मेरे कानों में आ रहा था। शोर प्रति पल समीप आता जाता था।
जब वह बिलकुल ऊपर आ ही गया, तब मेरी इच्छा हुई कि इन लोगों से कुछ कहूं, किसी इशारे से उन्हें बुलाऊं, और सहायता देने के लिए प्रार्थना करूं! पर मेरी सांस रुकी हुई थी, हाथ-पैरों की जैसे जान निकल गई थी।
हिलते थे, न डुलते थे।
जीभ को जैसे काठ मार गया हो। बोलना चाहने पर भी एक शब्द नहीं बोल पाता था। फिर जैसे ही मैंने छिपने की कोशिश की, मुझे लगा जैसे मेरे बदन में खून ही नहीं रहा, और बस अब मैं मरने ही वाला हूं। वे मुसाफिर आते गए और अपने अपने कमरों में चलते गए। मुझे अपने ऊपर गुस्सा आ रहा था कि आखिर मैंने उन लोगों को सहायता के लिए बुलाया क्यों नहीं।
जब और कोई आदमी आता नहीं मालूम हुआ, तब मैं हिम्मत करके उठा और जीने पर चढ़ कर अपने ऊपर वाली मंजिल पर पहुंचा।
सोचा कि किसी का दरवाज़ा खटखटाऊं, लेकिन फिर साहस नहीं हुआ, और लौट आया।
लौट कर फिर चार-चार सीढ़ियां एक-एक साथ उतर कर मैं नीचे सड़क पर पहुंच गया। यह सब मैं क्या और कैसे कर गया, मुझे कुछ नहीं मालूम ।
पहरेदार मेरे सामने आकर खड़ा हो गया। मैंने कहना शुरू किया-“मैं तुम्हें ही बुलाने आया हूं। मेरे कमरे में चोरी हो गई है ।”
पहरेदार मेरे साथ हो लिया। और जब थोड़ी सी बातचीत उसने करनी शुरू की, तो मेरा ख़्वाब हवा हो गया।
मैं क्या तमाशा कर रहा हूं, तब भी मुझे इसका कोई भान नहीं हुआ!
अब तो कमरे में पहुंच कर मैं पूरे साहस के साथ कोना-कोना छान डाल सकता था और मज़े में मीठी नींद भी सो जा सकता था, पर करता क्या, पहरेदार जो आ गया था। उसने अपनी टार्च जलाई और उसे लेकर वह बैठक गुसलखाने, कुर्सी, मेज, पलंग और किताबों...में चोर की तलाश करने लगा।
मैंने झूठमूठ कहा-“इन सफुरी बैग और शमादान के बीच की जगह में एक संदूकची रखी थी। उसमें जवाहरात भरे थे।
वही संदूकृची चोरी गई है।
मुझे इस कदर क्रोध आ रहा है कि बस ।
इन होटलों और सरायों में तो बस उठाईगीरे, गिरहकट, चोर, बदमाश, लुटेरे, डाकू ही बसते हैं और इन होटलों के मालिक कुछ नहीं करते, बदमाशों को कोई सज़ा नहीं देते !
हरामज़ादे कहीं के !”--और यह सब कुछ मैंने इतने ज़ोर से कहा कि शायद बात की बनावट पहरेदार पर जाहिर हो गई। क्योंकि उसकी आंखें अविश्वास की हंसी धीरे से हंस दीं। तब तो मुझे वाकुई गुस्सा चढ़ आया।
“मैं कहता हूं मुझें पूरा विश्वास है,”-झुंझला कर उसे मैंने समझाने की कोशिश की-“अभी अभी वह संदूकची यहां मौजूद थी।
उसमें एक बड़ा तमगा था, जिसमें हीरे-मोती जड़े थे, और सोने-चांदी का रंगीन काम हो रहा था पहरेदार बीच में टोक कर बोला...“भाई इस सराय में तो आज तक एक भी घटना ऐसी नहीं हुई है! इसकी शान के खिलाफ किसी ने आज तक उंगली नही उठाई जनाब! चारो तरफ् सारा पड़ोस इतना शरीफ है कि बस!”
मैंने कहा...“सोते सोते मुझे एक ऐसी आवाज मालूम हुई जैसी कि शीशे को हीरे से खरोंचने पर होती है, या जैसी कि संगमर्मर की मेज पर किसी चीज़ को घसीटने से होती है! और जैसे ही मैं चारपाई से कूद कर खड़ा हुआ कि मुझे एक आदमी धीरे से किवाड़ें फेरकर कमरे से बाहर जाता हुआ दिखाई दिया। हां, उस संदूकची की तली में चार तांबे की कीलें जड़ी हुई थी। उन्हीं कीलों की किरकिराती आवाज से मेरी नींद खुल गई थी।”
पहरेदार ने मेरी आंखों में अपनी आंखें गड़ा दीं!
चलो मेरे साथ”...वह बोला-“थानेदार के पास रपट लिखाओ !”
अब मेरी मुसीबत आई। भला मैं इस बात पर कैसे राजी होता! मेरी संदूकची की चोरी कोई रपट लिखाने के लिए थोड़ी ही हुई थी। मैंने कहा, “वह मेरे एक साथी भी हैं, जो बाहर गए हैं और जरा देर से लौटेंगे। और इस मुसीबत के वक्त में एक वही मेरा अकेला आसरा है।
अब इस जोखिम से भरी जगह में में अपने कीमती कागजात और सामान एक पल के लिए भी छोड़ कर कहीं नहीं जा सकता-जो गया सो गया अब क्या जो कुछ _ बचा है, उसे भी गंवा दूं?”
पहरेदार की आंखों में फिर अविश्वासपूर्ण मुस्कराहट नाच उठी! और मेरे दिल में आया इसे जमीन पर दे मारूं!
यकायक दरवाज़ा खुला और हमारे वे अज़ीज़ दोस्त वापस तशरीफ लाए जिनके पीछे यह सारा पागलपन और तमाशा हुआ, जिनको ढूंढ़ने के लिए हम शहर की गली-गली के चक्कर काटा किए। कुदक कर मैंने उसे गोद में भर लिया और अलग ले जाकर इस तमाशे का सारा किस्सा सुनाया।
पहरेदार जैसे कुछ न सुनने का बहाना करता रहा।
वह समझ गया था।
अगर इस वक़्त मैं ज़रा भी मज़ाक करता, तो फिर सब गुड़ गोबर हो जाता ।
बड़ी गंभीरता पूर्वक उसने और मेरे दोस्त ने सलाह कर यह तय किया कि कल सुबह होते ही थाने में रिपोर्ट लिखाई जाए। और जिससे कि मेरे साथ पूरा-पूरा न्याय हो सके, और दोषी को पूरी सजा दी जा सके; पड़ोस के सब कमरों की और बंदरगाह पर जहाजों के सभी अड्डों की भी तलाशी ली जाए।
सबेरा हुआ।
किंतु प्रभातकालीन सूर्य के उज्ज्वल अरुणिम प्रकाश में समस्त नगर मुझे शांति और सौम्यता का आवरण ओडढ़े मालूम पड़ा-उसके अंचल में मुझे विश्राम के लिए आश्रय दीख़ पड़ा।
बस जी में आया कि इस प्राचीन नगर की स्मृति-पट पर से मिटती हुई, ओझल होती हुई, गाथाओं की करुण शान और महान कला को एक बार मन भर कर निहार लूं!