बहुत समय पहले की बात है ।
निकोबार में किमिउख और फरक्का नाम के दो गाँव थे ।
किमिउख गाँव का मुखिया एल्हट था और फरक्का गाँव का मुखिया होको चावरा टापू उनसे कुछ ही दूरी पर था। चावरा के निवासियों के साथ दोनों गाँवों के निवासियों के मधुर संबंध थे। चावरा के लोग होरी (निकोबारी डोंगी अर्थात् छोटी नाव) बनाते और दोनों गाँवों के लोगों को बेचते थे। बदले में वे उनसे चाकू, सुअर और कपड़ा आदि ले जाते थे ।
एक बार चावरा वालों ने अपनी होरियाँ किमिउख वालों को काफी मँहगे दामों में बेच दीं। इस पर दोनों गाँवों के लोग भड़क उठे और उन्होंने चावरा वालों से बदला लेने की ठानी। कुछ दिनों बाद उन्होंने 500 चाकू, 100 दाहे, 200 सुअर और कुछ कपड़ों के बदले में उनसे 12 होरियाँ हड़प लीं ।
बेचे गए चाकू लकड़ी के बने थे ।
उन पर उन्होंने इतनी अच्छी तरह रंग किया था कि वे बिल्कुल लोहे के बने लगते थे ।
शुरू-शुरू में तो चावरा वाले बहुत खुश हुए कि उन्होंने बहुत सस्ते में चाकू खरीद लिए । परन्तु अपने गाँव में पहुँचकर जैसे ही उनको पता लगा कि उन्हें ठगा गया है, वे भी बदला लेने को भड़क उठे।
कुछ दिनों बाद चावरा गाँव की ओर से फलों से लदी हुई एक होरी फरक्का और किमिउख गाँवों को भेजी गई ।
उपहार पाकर दोनों गाँवों के लोग बहुत खुश हुए और उन्होंने एक बड़ी दावत का आयोजन किया । दस सुअर दावत के लिए काटे गए । एक बूढ़े और एक लड़की को छोड़कर, दोनों गाँवों के सभी लोगों ने पेट भरकर मांस और फल खाए ।
वे सभी फल जहरीले थे। उन्हें खाकर वे सब-के-सब मर गए। किसी को पता ही नहीं चला कि वे कैसे मरे ।
चावरा के लोग उन सबकी मौत की खबर पाकर खुशी से झूम उठे ।
लेकिन वह बूढ़ा, जो बच गया था, चावरा वालों की चाल को भाँप गया। उसने चावरा के लोगों को उनके इस कुकृत्य के बारे में धिक्कारा और कहा कि उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था ।
उसके धिक्कारने पर चावरा के हर आदमी को अपनी गलती का एहसास हुआ । उन्होंने तब होरी-उत्सव का आयोजन किया । उसमें उन्होंने प्रार्थना की कि मरे हुए सभी लोगों की आत्मा को शांति मिले ।
निकोबार में आज भी यह शोक-उत्सव मनाया जाता है। इसे 'ओसरी उत्सव' कहते हैं ।