स्ट्रेट द्वीप के एक पहाड़ पर कोचांग नाम का एक आदमी रहता था ।
वह बहुत परिश्रमी और ईमानदार था ।
वह 'पुलुगा' का पक्का भक्त था। उसका विश्वास था कि सूर्य, चन्द्रमा, तारे, धरती, समुद्र सब को पुलुगा ने बनाया है। वह जब तक चाहे इन्हें बनाए रख सकता है और जब चाहे इन्हें नष्ट कर सकता है ।
कोचांग की इच्छा थी कि उस पहाड़ पर, जहाँ वह रहता था, एक शानदार मकान बनाए । उसे विश्वास था कि पुलुगा की कृपा से एक न एक दिन उसकी यह इच्छा अवश्य पूरी होगी ।
दिन पर दिन बीतते रहे । कोचांग अपने काम में मस्त रहता। वह सुबह घर से निकलता समुद्र तट से पत्थर इकट्ठे करता, जंगल में जाकर पेड़ काटता और लकड़ियाँ इकट्ठी करता। जब उसके पास पत्थर और लकड़ियाँ अच्छी संख्या में इकट्ठे हो गए, तब उसने पहाड़ पर एक अच्छी जगह को चुना और वहाँ पर मकान बनाना शुरूँ कर दिया। दिन-रात मेहनत करके उसने एक आलीशान मकान खड़ा कर लिया। सजावट के लिए उसने विभिन्न प्रकार की समुद्री-वस्तुओं का प्रयोग किया। उसके बाद उसने एक मनोहारी बाग तैयार किया। उसमें उसने नारियल, सुपारी, पपीता, केला, कटहल आदि 'फल तथा कंद-मूल लगाए। पौधे जब बड़े हो गए तो मधुमक्खियों ने कटहल के पेड़ों पर अपने छत्ते बना लिए। जंगल में सुअरों की कोई कमी नहीं थी। जब भी उसका मन करता वह समुद्र से मछली और कछुए पकड़ लाता। इस तरह कोचांग एक सुखी और समृद्ध आदमी बन गया ।
कहा जाता है कि ईश्वर अपने भक्तों की कड़ी से कड़ी परीक्षा लेता है। पुलुगा ने भी कोचांग की परीक्षा लेने की सोची। एक रात, जब कोचांग गहरी नींद में था, समुद्र में भयंकर तूफान उठा। तेज- तर्रार बारिश और तीखी आँधी ने उसे और अधिक भयानक बना दिया था। कोचांग नींद से उछल पड़ा। कहीं कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। बारिश के रुक जाने के भी कोई आसार नजर नहीं आ रहे थे। पानी ने घर में घुसना आरंभ कर दिया था। घर को सजाने के लिए उसके द्वारा कठिन श्रम से जोड़ा गया सारा सामान उसी की नजसें के आगे नष्ट होता जा रहा था ।
उसने सोचा--जरूर मुझसे कोई भयंकर भूल हुई है, जिसके कारण पुलुगा नाराज हो उठे हैं। उसने पुलुगा की स्तुति करनी शुरू कर दी, '“हे पुलुगा, आप बड़े दयावान हैं। मुझसे अनजाने में हुई किसी भी भूल को कृपा करके क्षमा कर दें ।
परन्तु घनघोर वर्षा और तूफान ने थमने का नाम न लिया।
कमरे में आधी ऊँचाई तक पानी भर चुका था। अचानक उसको मकान के छप्पर से नीचे को लटकती एक रस्सी नजर आई। उसने उसे कसकर पकड़ लिया। उस रस्सी के सहारे वह ऊपर को चढ़ता गया और आकाश में जा पहुँचा।
वहाँ उसने बेहद मनोहारी दृश्य देखा। वहाँ उसने बड़े-बड़े महल देखे। फलों से लदे बाग देखे। हीरे-जवाहरातों के फूल वाले बगीचे देखे। चारों ओर परियाँ उड़ रही थीं।
कोचांग उन्हें देखकर मंत्रमुग्ध हो गया ।
उसने सोचा इतनी खूबसूरत जगह धरती पर तो हो नहीं सकती। मैं जरूर स्वर्ग में आ गया हूँ। पुलुगा भी यहीं पर कहीं रहते होंगे ।
वह यह सब सोच ही रहा था कि रस्सी एक बड़े महल में उसे ले गई | कोचांग ने देखा कि वहाँ चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश फैला था। देवदूतों ने उसका स्वागत किया और अन्दर ले गए। जैसे ही वह अन्दर पहुँचा, उसे एक दिव्य-स्वर सुनाई पड़ा--' धरती के बेटे, तुम कैसे हो ?
कोचांग डर गया और काँपने लगा। किसी तरह उसके मुँह से निकला-आप कौन हैं ?
“मैं सृष्टि का निर्माता पुलुगा हूँ ।
यह सुनते ही कोचांग श्रद्धापूर्वक दण्डवत् लेट गया। होठों ही होठों में वह बुदबुदाया, ''स्वामी, भयंकर तूफान ने मेरे घर और सम्पत्तियों नष्ट कर दिया है ।
“तब, तुम क्या चाहते हो ?'' दिव्य-स्वर ने पूछा ।
“मैं चाहता हूँ कि तूफान थम जाए और मेरी धन-सम्पत्ति नष्ट होने से बच जाए।'' कोचांग विनयपूर्वक बोला ।
“मैं अब सिर्फ एक ही चीज को बचा सकता हूँ।'” पुलुगा ने कहा, “तुम्हें या तुम्हारी धन-सम्पत्ति को बोलो, क्या चाहिए ?
“भगवन्, मैंने कठोर श्रम करके अपना मकान बनाया था। उसे अपनी ही आँखों के आगे नष्ट होते मैं नहीं देख सकता। उससे अच्छा है कि आप मुझे ही नष्ट कर डालें। इस पर मुझे कोई पछतावा नहीं होगा।'' कोचांग ने कुछ देर मन में विचार करने के बाद कहा ।
यह आदमी हृदय की गहराइयों तक सच्चा और ईमानदार है पुलुगा ने सोचा यह अपने जीवन की चिन्ता न करके अपने श्रम से खड़ी की गई चीजों को बचाना चाहता है। मुझे इस आदमी की रक्षा करनी चाहिए ।
तब कोचांग को पुनः दिव्य-स्वर सुनाई पड़ा, “तुम्हारे उत्तर से मैं सन्तुष्ट हुआ। तुम्हारा कोई . अहिंत नहीं होगा। मैं तुम्हारी परीक्षा ले रहा था। तुम सफल हुए। जाओ, अपने घर जाओ।
पलक झपकते ही उसने पाया कि वह अपने कमरे में पुलुगा के अभिवादन में दण्डवत् लेटा पड़ा था। भयंकर वर्षा और तूफान थम चुके थे। पानी उतर चुका था। उसका घर और बाग-बगीचे सब पहले जैसे ही हो गए थे ।
कोचांग ने श्रद्धापूर्वक एक बार पुन: पुलुगा का अभिवादन किया और वह सुखपूर्वक रहने लगा ।