ब्रह्मराक्षस का नाई

राजेश जोशी रेखांकन : कनिका नायर

एक हज्जाम था ।

काम का न काज का दुश्मन अनाज का

उस पर उधार था पैसा बजाज का

हजामत का हुनर न न हुनर मसाज का

काम का न काज का दुश्मन अनाज का

उसकी बूढ़ी मां थी एक जो दिन रात कलपती रहती थी

डाँटती फटकारती फिर भी इस निकम्मे के वास्ते दिन भर खटती रहती थी ।

जूं तक न रेंगती थी कभी उसके कान पे आफत न आने देता था कभी अपनी जान पे

एक दिन उसकी बूढ़ी माँ उससे बहुत तंग होकर हाथ में झाड़ू लिए तेज आवाज में कहा निकम्मे, निखट्टू निकल यहां से ... आज से तुझे न रोटी मिलेगी न पानी। निकल घर से। काम करता है न काज... चार धेले का सहारा नहीं... मैं कब तक खट-खटकर तुझे रोटी खिलाती रहूंगी ? जा और बाहर जाकर काम कर ...

आज के बाद जब तक काम न करे मुंह मत दिखाना...। और झाड़ू से मारती है ।

देख ... बहुत हो गया ... अब रूक जा वरना...।

वरना, वरना क्‍या करेगा ?

एक झाड़ू और मारती है ।

अब मारेगी तो सचमुच चला जाऊंगा ...।

जा न... निकल यहां से ...।

मैं सचमुच चला जाऊंगा ... फिर वापस नहीं आऊंगा...।

मत आना...समझ लूंगी कि मैं निपूती ही थी... ऐसे निखट्टू के होने से तो बेऔलाद होना ही अच्छा...। नाई बड़बड़ाता है.. इतना अपमान... अब इस घर में नहीं रहूंगा... जब तक धन नहीं कमाऊंगा इस घर में लौटकर नहीं आऊंगा ... रोटी खाऊंगा न पानी पिऊंगा ... इस घर की देहरी भी नहीं छुऊंगा। (जोर से चिल्लाकर) जा रहा हूं...

जब तक धन नहीं कमाऊंगा इस घर में लौटकर नहीं आऊंगा ... रोटी खाऊंगा न पानी पिऊंगा ... इस घर की देहरी भी नहीं छुऊंगा। (जोर से चिल्लाकर) जा रहा हूं... अब लौटकर नहीं आऊंगा...।

और इस तरह वह बरबराते हुए जगल की तरफ निकल गया ।

चांदनी रात का समय। रंग-बिरंगे वृक्षों के कटआउट लेकर बच्चे आते हैं। कुछ बच्चे हिरनों के मुखौटे लगाए जंगल के बीच कुलांचे भरते हैं। कुछ पक्षियों के मुखौटे लगाए उड़ने का अभिनय करते हैं। नाई इस दृश्य को थोड़ा घबराकर और बीच-बीच में मुग्ध भाव से देखता है ।

तभी एक ब्रह्मराक्षस को अपने ओर आते हुए देखा । नाई डरता है। पर डर को छिपाने कौ कोशिश करता है। ब्रह्मराक्षम नाई को देखकर खुश होता है और जोर-जोर से नाचने लगता है । नाई अपने डर को छिपाने के लिए राक्षस की ही तरह खुद भी नाचता है। दोनों एक दूसरे को आश्चर्य से देखते हैं

नाई : तुम कौन हो ?

राक्षस : मैं ब्रह्मराक्षस हूं ...ब्रह्मराक्षस ।

नाई : डरता है, पर डर को छिपाकर । ब्रह्मराक्षस! कमाल हे ! तो ब्रह्मराक्षस ऐसे होते हैं ?

राक्षस : ऐसे होते हैं से क्या मतलब है तुम्हारा ?

नाई : मतलब ऐसे, जैसे तुम हो ।

राक्षस : (डांटकर) मैं कैसा हूं ?

नाई: ठीक हो... पर तुम पूरे कपड़े क्‍यों नहीं पहनते ? तुम्हारे पास हें नहीं या तुम ऐसे ही रहते हो ?

राक्षस : (गुस्से में ) मैं ऐसे ही रहता हूं ।

नाई: ओह तो तुम्हारे यहां यही फैशन है... चलो छोड़ों ... तुम तो यह बताओ कि तुम ब्रह्मराक्ष कैसे बन गए ?

राक्षस : वो हुआ यूं कि पहले मैं एक ब्राह्मण था...। बहुत ज्ञानी था। मेरे पिता ने मुझे दूर-दूर तक अध्ययन करने भेजा। मैंने हर केन्द्र में जाकर मन लगाकर अध्ययन किया । और ज्ञानी हो गया । लेकिन लोग कहते हें मैंने विद्या का असली मर्म नहीं सीखा ।

(नाई बीच-बीच में 'अच्छा' कहकर हुंकारा भरता है)।

नाई: असली मर्म! वह क्‍या होता है ?

राक्षस : विद्या का असली मर्म है विनय... वह मैंने नहीं सीखा ।

नाई :हूं, वह तो तुममें अभी भी नहीं है...।

राक्षस :(गुस्से में) चुप रहो, तुम बहुत बीच-बीच में बोलते हो । अब बोलोगे तो मैं कुछ नहीं बताऊंगा...समझे...।

नाई:ठीक है... ठीक है...बोलो... तुम बहुत जल्दी भड़क जाते हो ।

राक्षस : तो ज्ञान का दम्भ मुझमें आ गया और मैं बाकी सबको मूर्ख समझने लगा। किसी को भी ज्ञान का पात्र नहीं मानता था। मैं एक योग्य शिष्य ढूंढ़ता रहा। पर मेरी अक्ल पर तो दम्भ का पर्दा पड़ा था, मुझे भला योग्य शिष्य कैसे मिलता ...? मैंने अपना ज्ञान किसी को नहीं दिया और एक दिन में वैसे ही मर गया... इसलिए मैं पिंशाच बना...(हंसता है) पर अब मैं एक राक्षस हूं... ब्रह्मराक्षस ।

नाई: पर तुम इतने खुश क्‍यों हो रहे हो और नाच क्‍यों रहे हो ?

राक्षस : तुम तो लगता है निरे काठ के उल्लू हो... तुम इतना भी नहीं समझ सकते... एक राक्षस के लिए इस चांदनी रात में इससे ज्यादा खुशी की बात क्‍या हो सकती है कि उसे नरम-नरम मांस खाने को मिले... अब मैं तुम्हारा मांस खाऊंगा ... मैं सोच भी नहीं सकता था कि इस जंगल में ... इतनी रात गए किसी मनुष्य का मांस खाने को मिलेगा , मैंने कई दिन से किसी मनुष्य का मांस नहीं खाया...(हंसता है और फिर झूमकर नाचता है)

नाई: (हंसी उड़ाते हुए) तुम सचमुच बुद्धू हो... तुम्हारा ज्ञान न पिछले जन्म में तुम्हेरे काम आया और न इस जन्म में ... तुममें तो रत्ती भर भी कॉमनसेन्स नहीं है...।

राक्षस : यह कॉमनसेन्स क्‍या होता है ?

नाई : (स्वगत) अब इसे छकाना चाहिए। (प्रकट) कामनसेन्स ! अरे कॉमनसेन्स कॉमनसेन्स होता है ।

राक्षस : लेकिन होता क्या है ?

नाई: (मुस्कुराता है) ओह! तुम्हें ज्ञान के इस सबसे सुन्दर फल के बारे में ही नहीं पता है तो तुम्हें फिर पता क्‍या है !...यह ज्ञान का सबसे खास फल हे। तुम्हारे गुरूओं ने तुम्हें इस फल के बारे में ही नहीं बताया... कमाल है! लगता है तुम किसी के प्यारे शिष्य नहीं रहे। वरना ऐसा कैसे हो सकता है कि ज्ञान के इस फल के बारे में तुम्हें मालूम तक न होता। होता है, ऐसा भी होता है, हर गुरू एक न एक गुर अपने चेले से जरूर छिपा लेता है। बिल्ली ने जैसे शेर को पेड पर चढ़ना नहीं सिखाया... तुम्हारे गुरू ने तुमसे इस मुख्य ज्ञान को छिपा लिया। खैर... अब क्या हो सकता है...!

राक्षस : लेकिन तुम इतने खुश क्‍यों हो रहे हो ?

नाई: अब यही तो बात है, तुममें कॉमनसेन्स होता तो तुम जान लेते।

राक्षस : फिर कॉमनसेन्स !

नाई : मेरा मतलब हे तुम्हें खुश होने से पहले सोचना चाहिए था कि एक मनुष्य इतनी रात गए इस घने जंगल में... अकेला और निहत्था क्‍यों घम रहा हे...इसके बाद तम्हें यह सोचना चाहिए था ।

नाई : मेरा मतलब हे तुम्हें खुश होने से पहले सोचना चाहिए था कि एक मनुष्य इतनी रात गए इस घने जंगल में... अकेला और निहत्था क्‍यों घूम रहा है...इसके बाद तुम्हें यह सोचना चाहिए था कि एक मनुष्य राक्षस को सामने देखकर भी डर क्‍यों नहीं रहा है? पर तुम सचमुच अकल से पैदल हो। तुमने एक मनुष्य देखा और सोच लिया कि तुम्हारे खाने का इंतजाम हो गया। ब्राह्मण हो न इसलिए खाने के अलावा कुछ सोच भी नहीं सकते। पेटू आदमी ज्ञानी हो या ज्ञानी आदमी पेटू दोनों ही बेकार...। (बीच-बीच में राक्षस हुंकारा भरता है और मुंडी हिलाता है)।

राक्षस : पहेलियां मत बुझाओ... देखो अब मुझे गुस्सा आ रहा है। सीधे-सीधे बताओ वरना...।

नाई: वरना क्या? वरना तुम मुझे खा जाओगे... ?

राक्षस : हां...।

नाई: चलों बता ही देता हूं तुम भी क्‍या याद रखोगे कि एक मनुष्यसे पाला पड़ा था, तो तुम यह जानना चाहते हो कि मैं क्‍यों खुश हो रहा था ?

राक्षस : (गुस्से में चीखकर) हां मैं जानना चाहता हूं ।

नाई : तो सुनों मैं भी नहीं चाहता कि आगे भी तुम प्रेतयोनी में ही भटकते रहो। सच बात यह है कि हमारे देश का राजकुमार सख्त बीमार है। तरह-तरह के इलाज किए. पर कोई फायदा नहीं। दूर-दूर से हकीम आए, वैद्य आए। लेकिन महीनों गुजर गए, रोग किसी की पकड़ में ही नहीं आता था...।

राक्षस : (गुस्से में) ओह ! बकवास बंद करो, इसमें और तुम्हारे नाचने में क्या संबंध है ?

नाई: तुम भी यार कितने बेसब्र किस्म के राक्षस हो, पूरी बात सुनते नहीं और चीखने लगते हो। दूर-दूर से आए चिकित्सकों ने राजकुमार को देखा और एक ही नतीजे पर पहुंचे ...।

राक्षस : किस नतीजे पर ?

नाई: इस नतीजे पर कि अगर राजकुमार को एक सौ एक ब्रह्मराक्षसों के हृदय का रक्त पिलाया जाए तो वह ठीक हो सकता है...। (नाई किस्से सुना रहा है। राक्षस सुन रहा है और सोच भी रहा है। तभी मुख्य गायक और बच्चों की टोली का प्रवेश होता है।)

किस्से गढ़ने में नाई बहुत उस्ताद था

बचपन में सुना हर किस्सा उसे जबानी याद था अक्ल घूमती थी उसकी फिरकनी की तरह और जबान चलती थी कतरनी की तरह और राक्षस उसकी बातों में कैद हुआ जाता था मन-ही-मन मगर उसको गुस्सा भी बहुत आता था। रात तारों के बिछोने पे अभी सोती थी

बात नाई की मगर खत्म नहीं होती थी ।

टोली :फिर-फिर क्‍या हुआ ? राक्षस : (गुस्से में) तो ? नाई:राजा ने सारे राज्य में मुनादी पिटवाई है कि...।

मुख्य गायक : हर खासो आम को। सुबह को और शाम को। यह इत्तिला दी जाती है कि जो भी शख्स एक सौ एक ब्रह्मराक्षमों के हृदय का रक्त लाकर राजकुमार की दवा के लिए देगा उसे राजा आधा राज्य दे देगा और अपनी सुन्दर राजकुमारी से उसका विवाह कर देगा...।

नाई: (राक्षस से) यकीन करो मैंने सौ ब्रह्मराक्षगों को पकड़ लिया है बस एक की कमी है... तुम्हें मिलाकर एक सौ एक की गिनती पूरी हो जाएगी...।

राक्षस : (जोर-जोर से हंसता है) तुम्हें क्या लगता है कि तुम मुझे पकड़ लोगे ?

नाई: (स्वगत) अरे मेरा वह छोटा-सा आईना कहां है ?

(बार-बार अपनी अलग-अलग जेबों में हाथ डालकर तलाश करता है । फिर एक जेब से एक छोटा-सा आईना निकालकर उसे अपनी मुट्ठी में ले लेता है।) हां... पकड़ लूंगा नहीं, मैंने तो तुम्हें पहले ही पकड़ लिया हेै। तुम्हारी आत्मा को मैंने कैद कर लिया है। अब तुम्हारी आत्मा मेरी मुट्ठी में है । विश्वास नहीं हो रहा है तो बताऊं...?

राक्षस : (डरकर) बताओ?

नाई मुट्ठी में बंद आईने में राक्षस को दिखाता है। राक्षस उसमें अपना प्रतिबिम्ब देखकर घबरा जाता है ।

राक्षस : (घबराकर) यह तो मैं हूं। यह तुमने कैसे किया ? तुम बहुत धूर्त हो... मुझे बातों में लगाकर तुमने मेरी आत्मा को चुरा लिया है । यह गलत बात है, मेरी आत्मा मुझे वापस करो ।

नाई : अच्छा! जिससे तुम मुझे खा जाओ। अब तुम कुछ नहीं कर सकते। अब मैं तुम्हें ले जाकर राजा को सौंप दूंगा और ईनाम पाऊंगा ...।

राक्षस : (डरता है। गिड़गिड़ाता है।) देखो मुझे माफ कर दो । मैं कसम खाता हूं मैं तुम्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाऊंगा... मैं तो यूं ही तुम्हें डरा रहा था...मेरा पेट तो पहले से ही भरा हुआ है । मैं तो पहले ही तय कर चुका हूं कि मैं कभी मनुष्य का मांस नहीं खाऊंगा...

नाई: यह नहीं हो सकता... तुम्हे छोड़ दूंगा तो मेरा तो बहुत नुकसान हो जायेगा । मैं एक गरीब आदमी हूं... इतना अच्छा मौका, भला मैं कैसे छोड़ दूं, तुम्हीं सोचो ?

राक्षस : तुम्हारा कोई नुकसान नहीं होगा। राजा तुम्हें क्या देगा, सिर्फ आधा राज्य न ?... मैं तुम्हें सात रियासतों के बराबर धन दे सकता हूं। मुझे छोड़ दो... मैं वादा करता हूं कि मैं इस जंगल को छोड़कर चला जाऊंगा ।

नाई: तुम क्या मुझे बुद्धू समझते हो ? इस जंगल में धन कहां से आएगा और आ भी गया तो इतने सारे धन को मैं अपने घर तक ले कैसे जाऊंगा ।

राक्षस : इसकी फिक्र मत करो। खजाना तो यहीं तुम्हारे पीछे जो पेड़ है उसी के नीचे दबा हुआ है। आओ मैं तुम्हें दिखाता हूं ....? पीछे खड़े पेड़ को धक्का देकर हटाता है। उसके नीचे से धन से भरा कलश निकलता है। नाई धन देखकर खुश होता है ।

नाई: इसे मेरे घर कैसे पहुंचाओगे ?

राक्षस : मेरी शक्ति में विश्वास करो, मैं पलक झपकते ही इसे तुम्हारे घर पहुंचा दूंगा...।

धन सारा राक्षस ने उसके घर पहुंचाया

धन सारा राक्षस ने उसके घर पहुंचाया

नाई ने उससे एक नया घर बनवाया

फिर एक दिन उसने ब्याह रचाया

सुन्दर सी एक बहू वह घर में लाया।

सुविधा का हर सामान जुटाया

राक्षत था लेकिन अब भी घबराया

बोला मुझको अब मुक्ति दे दो

अब नहीं कोई भी कर्ज बकाया।

नाई ने सोचा लेकिन इतनी जल्दी इसको मुक्ति देना ठीक नहीं हे और बकाया कामों को भी निपटा लेना अच्छा होगा ।

राक्षस नाई के आगे हाथ जोड़कर मुक्ति के लिए विनती करता है ।

नाई: देखो मेरे खेतों में फसल तैयार खड़ी है और मुझे अभी कई काम हैं। तुम उस फसल को काटकर खलिहान में रख दो इसके बाद ही मैं तुम्हें मुक्त करूंगा...।

राक्षस : लेकिन ...?

नाई: लेकिन, वेकिन कुछ नहीं... शुक्र मनाओं कि मैं तुम्हें राजा के हवाले नहीं कर रहा हूं। (राक्षस सिर झुकाए जाता है। नाई मुस्कुराता है।)

मरता क्‍या न करता राक्षस ने सिर झुकाया और खेत पर काम करने चल दिया। इसी बीच एक दिन क्‍या हुआ...?

नाई का घर। अचानक घर के अन्दर से बरतन गिरने और एक औरत के चिल्लाने की आवाजें आती हैं ।

नाई : अरे क्‍या हुआ ? इतना शोर क्‍यों मचा रखा है ? नाई की पत्नी चिल्लाती हुई और हाथ में एक बड़ी-सी कटार लिए आती है ।

नाई : अरी भागवान, यह तुम किस दुश्मन का सिर काटने जा रही हो ?

नाई की पत्नी : तुम जो मछली लाए थे, बिल्ली उसका सिर लेकर भाग गई। मैं इस बिल्ली को नहीं छोडूंगी... तंग कर डाला इस काली बिल्ली ने... आज मैं उसे जरूर मजा चखाऊंगी... आज उसकी गरदन नहीं बचेगी...।

ब्रह्मराक्षत काम करने के लिए हंसिया हाथ में लेकर आगे बढ़ता है ।

ब्रह्मराक्षस : यह मालिक तो साला बहुत लालची है । इतना सारा धन दे दिया तब भी तंग कर रहा है। जी में तो आता है इसका सिर चबा जाऊं पर पता नहीं कैसे साले ने मेरी आत्मा को अपनी मुट्ठी में बंद कर लिया... किसी तरह इससे मुक्ति पाऊं तो फिर इस जंगल में कभी नहीं आऊंगा...। अब इतना बड़ा खेत काटना... उफ मेरे बाप-दादों ने भी कभी खेती का काम नहीं किया... लेकिन इसे तो निपटाना ही पड़ेगा...। सामने से एक दूसरा ब्रह्मराक्षस आता है

दूसरा राक्षस : (पहले राक्षस से) यह तुम क्‍या कर रहे हो? राक्षसो ने यह खेती-बाड़ी करना कब से शुरू कर दिया ?

पहला राक्षस : क्या बताऊं यार... मैं एक बहुत लालची और शातिर मनुष्य के चक्कर में फंस गया हूं। उसने पता नहीं कैसे मेरी आत्मा को बंदी बना लिया और अब मुझे उससे मुक्ति पाने के लिए यह सब करना पड़ रहा हे...।

दूसरा राक्षस : (हंसता है) तुम कंसे ब्रह्मराक्षस हो! उस मनुष्य ने तुम्हें जरूर... बुद्धू बना दिया है। अरे मनुष्य भी कहीं राक्षस से ज्यादा शक्तिशाली हो सकता है। आदमी की औकात ही क्‍या है जो हमें पराजित कर सके...मुझे जरा उस आदमी का घर दिखाओं मैं देखता हूं कैसे वह हम राक्षसों से काम करा सकता है...?

पहला राक्षस : दिखा तो दूंगा लेकिन दूर से। यह खेत काटे बिना उसके पास जाने की हिम्मत मुझमें नहीं है। उसने वादा किया है कि खेत कटते ही वह मेरी आत्मा को मुक्त कर देगा... तुम्हारे चक्कर में अगर उसने फिर कोई काम बता दिया तो मैं व्यर्थ ही मारा जाऊंगा ।

पहला और दूसरा राक्षस एक चक्कर काटठते हैं। पहले वाला दूसरे राक्षम को नाई का घर दिखाता है। नाई के घर की खिड़की खुली हुई है। खिड़की के पीछे छिपकर नाई की पत्नी हाथ में कटार लिए खड़ी है। दूसरा राक्षस दबे पांव खिड़की के पास आता हे ।

नाई की पत्नी : (हाथ में कटार लिया स्वगत) आज मैं इस बिलइया को नहीं छोड़नेवाली... बस एक बार और अन्दर आ जाए तो आज मैं उसका काम तमाम कर डालूं ...। (दूसरा राक्षस अपना झबरा सिर धीरे-से खिड़की के अंदर घुसाता है और पत्नी तेजी से कटार से"वार करती है। सिर तो बच जाता है पर राक्षस की नाक कट जाती है। लहूलुहान ब्रह्मराक्षस “मार डाला...मार डाला...” चीखते हुआ भागता है ।

राक्षस : मालिक मैंने पूर काम निपटा दिया है। फसल खलिहान में पहुंचा दी है अब तुम भी अपना वादा पूरा करो और मुझे मुक्ति दे दो ।

नाई: (मुस्कुराता है। जेब से आईना निकालता है) तुम भी क्‍या याद रखोगे कि एक वादे के पक्के आदमी से तुम्हारा पाला पड़ा है। (आईने को उल्टा करके उसकी लाल वाली तरफ से राक्षस को दिखाता है।)

देखो अब इसमें तुम्हारी आत्मा नहीं है। मैंने तुम्हें मुक्त किया। (राक्षस खुश हो जाता है। फिर नाई ने एक बात बोली

धीरे से ब्रह्मराक्षस कान में अब भाग यहां से किसी और गाम में।

अब नजर न आना कभी इस मुकाम में।