दादी

कहानीकार - शिवशंकर श्रीनिवास “जमुनिया धार'

“बाबा !”

“हाँ पोती, बोलो न !”

“डर लग रहा है।”

“डर ?”

“हाँ बाबा।”

क्यों ? डर क्‍यों ?”

“बाबा!”

“हाँ बेटा, बोलो न! क्‍यों डर लग रहा है ?”

“मम्मा और पापा में फिर झगड़ा हुआ। कई दिन हो गए। बातचीत बंद है। दोनों अलग-अलग ऑफिस जाते हैं। कार वैसे ही खड़ी रहती है। उस पर कोई नहीं चढ़ता है। दोनों अलग-अलेग होटलों में खाना खाकर घर आते हैं। मेरा खाना आया बनाती है। पापा उसे पैसे देते हैं। मम्मी मुझे बहुत पैसे देती है, मगर मैं पैसे नहीं लेती हूँ। बाबा, मैं पैसे लेकर क्या करूँगी ? बाबा, मुझे डर लगता है ।”

“किस बात का डर ?”

“वह तो मैं नहीं समझ पा रही हूँ।”

“रोती क्‍यों है? मत रो। चुप हो जा। तू रोएगी तो मैं भी रोने लगूँगा।”

“बाबा!”

“हाँ पोती ।”

“आप भी रोने लगे ?”

“नहीं पोती, मैं रो कहाँ रहा हूँ? धत्‌ पगली!” बाबा की यह बात सुन लड़की रोते-रोते हँसने लगती है।

“बाबा!”

“पोती!”

आपका दादी-माँ से झगड़ा क्‍यों नहीं होता ?

“होता है। खूब होता है।”

“नहीं होता है। वह झगड़ा नहीं है। आप मुझे बहका रहे हैं ।”

विश्वेश्वर जी को लगा कि अगर पोती ने अब ऐसा ही कोई और सवाल पूछ लिया तो उनकी रूलाई जोर से फूट पड़ेगी। उन्होंने खुद को सँभालते हुए कहा-

“अभी फोन रखो। बाद में बात करेंगे।” यह कहते हुए उन्होंने फोन रख दिया। फोन रखकर जब वे पीछे मुड़े तो उन्हें सामने वाले कमरे में पत्नी दिखाई दी। वह उन्हीं की तरफ देख रही थी। विश्वेश्वर जी उनके चेहरे पर छलछलाती करुणा देखकर डर गए। वे बाहर दालान की तरफ चले गए और एकांत में कुर्सी पर बैठ गए।

इधर कुछ दिनों से स्वाति अर्थात्‌ उनकी वही पोती बार-बार फोन पर ऐसी ही बातें करती है । वे हर बार जैसे सारी बातें समझते हैं, कुछ पूछ लेते हैं। पूछने में उन्हें कष्ट होता है। पर हर बार कष्ट सहते हुए भी वे कुछ-कुछ पूछते हैं। हर बार वे पत्नी से डरते हैं कि कहीं वह फोन पर हुई बातें सुन न ले। पर वह इस फोन के दूसरे सेट पर सारी बातें सुन लेती हैं और उसके तुरंत बाद पत्नी का सामना करना विश्वेश्वर जी के लिए मुश्किल हो जाता है। इसीलिए पोती से फोन पर बात करने के बाद वे एकांत खोजते हैं। पर यह एकांत भी उन्हें कितनी देर उपलब्ध रहता! घर में बस ये दो ही प्राणी तो थे ।

विश्वेश्वर जी पत्नी के सामने पोती की चर्चा नहीं करते । वह भी कुछ नहीं पूछतीं । यह उनका स्वभाव है। वे अल्पभाषिणी हैं। मधुर बोलती हैं ।

विश्वेश्वर जी को सारी जिंदगी इसी बात का आश्चर्य रहा कि पत्नी की बातचीत से, उनके व्यवहार या काम से वह यह अंदाज नहीं लगा पाए कि वे गुस्से में हैं या...। उनके मन में एक सघन अतृप्त कामना रहती है कि वे अनुभव करें कि किसी की पत्नी कैसे रूठती है और पति उसे कैसे मनाता है। ओह, रूठी पत्नी को मनाने का अद्भुत आनंद है।

वे उस आनंद से वंचित हैं । इसीलिए आज भी कभी-कभी उन्हें मीठे से अरुचि हो जाती है । ऐसी मनःस्थिति में वे दूध-चीनी तक नहीं खाते । ऐसे समय वह करेला, पटुआ का साग, चैत से बैसाख तक बैंगन-नीम, मेथी का साग, तिलकोर के पत्तों के साथ आलू की भुजिया जैसी कड़वे स्वाद वाली सब्जियाँ खाना पसंद करते हैं । पति की ऐसी रुचि देखकर पत्नी मुस्कराती रहती हैं। उस समय पत्नी की वह मुस्कराहट उन्हें चीनी के दानों की तरह बहुत सख्त प्रतीत होती हैं। तब वे किसी-किसी बात को लेकर पत्नी पर झुँझला उठते हैं, पर पत्नी पर उनकी इस झुँझलाहट का कोई असर नहीं होता ।

वह इसे धरती की तरह सोख लेती हैं। तब पत्नी उन्हें सब कुछ सह जाने वाली धरती की तरह लगती हैं। वे उनके प्रति संवेदना से भर उठते हैं। फिर उन्हें मीठा अच्छा लगने लगता है।

परंतु पत्नी का वह शांत, मुस्कराता चिर-स्थायी भाव आजकल पोती की बातों के कारण अस्थिर हो गया है। इतना ही नहीं, पता नहीं, आजकल क्‍या हो गया है कि फोन पर पोती की बातें सुनकर या उस चिंता में अन्य समय भी पत्नी की आँखों में आँसू आ जाते थे। यह देख और अनुभव कर विश्वेश्वर जी डर जाते हैं। स्वभाव के प्रतिकूल चुप हो जाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है, जैसे दोनों के स्वभाव में विपरीत गुण आ रहे हैं।

यह विश्वेश्वर जी का स्वभाव है कि कोई भी बात उनके मन में टिक नहीं पाती । उनके मन की स्थिति वैसी ही होती है, जैसे घुटने भर पानी में पोठी मछली (छोटी मछली की एक किस्म) तेजी से इधर से उधर भागती रहती है। इस पर कभी-कभी पत्नी कहती भी हैं-“आपकों तो बस कुछ सुनने भर की देर है” और इसी में वे पत्नी को चिढ़ाने का पूरा आनंद

उठाने की कोशिश करते हैं।

वे करें भी क्या? इससे ज्यादा वह बोलेंगी नहीं। न ही अपने हाव-भाव से ऐसा मनोभाव प्रकट होने देंगी। किसी को चिढाकर मजा लैने की आदत तो विश्वेश्वर जी को बचपन से ही है।

उन्हें याद आते हैं बचपन के दिन।

वे बच्चे थे। सभी भाई-बहन खाना खाने साथ बैठते थे।

जिस दिन मछली-भात बनता था, उस दिन का मजा ही कुछ और था! साथ-साथ बैठकर खाते थे । विश्वेश्व जी भात और मछली की तरी खाते और मछली का टुकड़ा बचाकर रखते । उनकी माँ यह देखकर क्रोध में आ जाती थीं । बोलतीं-“तू मछली नहीं खाता। खा मछली!” वह जिद पकड़ लेतीं । पिता सुनते तो बोलते-“क्या हुआ ? मछली अच्छी नहीं लगती क्‍या ?”

“अच्छी क्‍यों नहीं लगेगी? जब सभी खा लेंगे, तब यह खाना शुरू करेगा ।”

“ओह! जिस तरह खाता है, खाने दो।”

“आप नहीं समझेंगे।”

“क्या ?”

“बाद में खा-खाकर यह सबको चिढ़ाना शुरू करेगा ।”

पिता हँसने लगते। बोलते-“लड़का शैतान है। वैसे बचपन में मैं भी यही करता था ।”

“आप तो अब भी ऐसा ही करते हैं।” माँ मुस्कराते हुए भी गुस्सा हो जाती। माँ के गुस्से पर पिता हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाते थे। तब माँ का पारा और चढ़ता था ।

वे भी क्‍या दिन थे! विश्वेश्वर जी को वे दिन अच्छे लगते थे । विशेष रूप से तब, जब माँ लाड़ से उन पर गुस्सा करती तो विश्वेश्वर जी भी पिता के साथ हँसने लगते थे । माँ क्रुद्ध होकर उन्हें एक चाँटा जड़ देती थी, पर इन्हें चोट कहाँ लगती थी! वे तो खी-खी करते हँसते हुए माँ से दूर भाग जाते थे ।

उन्हें जीवन के वे पल अब भी याद हैं और वे स्मृतियाँ आज भी मन को आनंद और करुणा से भर देती हैं । वे स्वयं में महसूस करते हैं कि चिढ़ाने की उनकी बचपन की आदत अब भी उनमें मौजूद है।

पर अभी वे पोती की बातें और उसकी जीवन-दशा सोचकर विचलित हो रहे हैं। इस विचलन में दोनों का स्वभाव अपने-अपने मूल स्वभाव से विपरीत होता जा रहा है। अर्थात्‌ पत्नी मुखर हो रही है और वे खुद अल्पभाषी |

उन्हें याद आया, कुछ दिन पहले बेटे के घर मुंबई गए थे। रविवार का दिन था। बेटा सुमित कहीं गया हुआ था। बहू चित्रा अपने कमरे में कुछ काम कर रही थी । विश्वेश्वर जी कोई किताब पढ़ रहे थे । पत्नी पलंग पर लेटी हुई पोती स्वाति से बातचीत में व्यस्त थीं ।

स्वाति उनके सीने पर हाथ रखकर बोली-“दादी-माँ, मैं आपकी बेटी नहीं हूँ । मैं तो मम्मी की बेटी हूँ। आपके बेटे की बेटी ।”

“नहीं रे, तू तो मेरी बेटी है। बेटे की बेटी भी तो बेटी ही हुई न।”

“नहीं, मैं आपकी पोती हूँ ।”

“पर बेटी से भी ज्यादा लाड़ली है।”

“दादी-माँ, मैं आपके पास रहूँगी। खूब पढ़५ूँगी । अच्छा रिजल्ट दूँगी । ”

“अगर तू मेरे पास रहेगी तो तुम्हारे माता-पिता के पास कौन रहेगी ?”

“कोई नहीं, ऊँ...ऊँ...!” कहते हुए स्वाति की रूलाई छूट गई ।

उस समय उन्होंने अनुभव किया था कि स्वाति के साथ-साथ उसकी दादी की आँखें भी आँसुओं से भींग गई थीं-“चित्रा ऐसी क्‍यों है ? ऑफिस जाती है, पर वहाँ से आने के बाद बच्चे पर ध्यान क्‍यों नहीं देती ? स्वाति के दादा भी तो नौकरी करते थे। किस तरह बच्चों से घुले-मिले रहते थे। यह ठीक है कि स्वाति के माता-पिता उसकी सारी जरूरतें पूरी करते हैं, पर बच्चों को हमेशा यह एहसास होते रहना चाहिए कि उसे अपने माता-पिता का भरपूर प्यार मिलता है ।

ऐसी अनुभूति स्वाति क्‍यों नहीं कर पाती ? इसका यह अर्थ है कि चित्रा में कोई कमी है, सुमित में भी है। ऐसा क्यों ? ऐसा सोचते हुए विश्वेश्वर जी पोती और दादी की

तरफ देखने लगे थे। उस समय दोनों अपनी बातों में मशगूल थीं और अपनी बातचीत में हँसते-हँसते लोट-पोट हो रही थीं। दादी-पोती की बातचीत से विश्वेश्वर जी आनंद विभोर हो रहे थे। वे पढ़ना छोड़कर उधर ही देखते रहे। आनंद में बाधा तब पड़ी, जब पोती ने दादी-माँ से पूछा धा-“दादी-माँ, आप मेरी मम्मी क्‍यों नहीं हुई?”

पोती के इस प्रश्न से विश्वेश्वर जी चौंक गए थे। आनंद में डूबी उनकी पत्नी भी इस सवाल से उलझ गई। विश्वेश्वर जी ने पत्नी की इस मनःस्थिति को भाँप लिया था। मन का प्रवाह मानो किसी बाँध में फँस गया। उनका मन भी पोती के प्रति करुणा, दुःख और ममत्व से भर गया था। उनके मन में बेटे और बहू के प्रति क्षोभ भी उत्पन्न हुआ था।

उस दिन यही सब सोचते हुए और पिछली बातों को याद करते हुए विश्वेश्वर जी एकांत में कुर्सी पर बैठे थे।

पर उसके दो दिन बाद विश्वेश्वर जी की हालत बहुत खराब हो गई थी।

फोन की घंटी बजी ।

उन्होंने खुद फोन उठाया था- लो!”

स्वाति बिना कुछ बोले रोए जा रही थी।

क्यों रोती हो? क्या हुआ?”

“बाबा!”

“हाँ पोती!”

“बाबा!”

“हाँ, हाँ, बोलो बेटा, बोलो न!”

“पापा-मम्मी मुझे होस्टल भेज रहे हैं।”

“तो क्या हुआ? होस्टल बहुत अच्छा होता है। उसमें अपने स्कूल के सभी बच्चे होते हैं। वहाँ तुम्हारा मन लगेगा ।”

“नहीं बाबा।” बोलते हुए स्वाति झुँझला रही थी ।

क्यों ? तुम तो होशियार हो ।”

“आप मम्मी-पापा में मेल करा देंगे तब मैं होस्टल में रहूँगी।” स्वाति खूब जोर से चिल्लाते हुए फोन पर बोली।

पोती की बात से विश्वेश्वर जी स्तब्ध हो उठे। किंतु वे तब चौंक गए, जब दूसरे सेट से उनकी पत्नी अपनी पोती से कह रही थी-

“बेटी, तुम मेरे साथ रहोगी।”

“मैं आपकी बेटी नहीं, पोती हूँ।”

“हाँ, लेकिन बेटी भी हो। मैं तुम्हारी भी माँ हूँ। तुम्हारी बड़ी माँ। हमलोग अपनी दादी को बड़ी माँ कहते थे।”

दादी की बात सुनकर स्वाति का रोना हँसी में बदलने लगा था। वह बोली-“दादी-माँ, आप ठगती हैं।”

“नहीं, ठगती नहीं बेटी । जब तक तुम्हारी पढ़ाई चलती रहेगी, मैं और तुम्हारे बाबा मुंबई में ही रहेंगे। तुम्हारे बाबा को बहुत पेंशन मिलती है। में, तुम और बाबा साथ ही रहेंगे।”

“ही...ही...ही...” स्वाति हँसने लगी थी। फिर उसने कहा था- “दादी-माँ, तब मैं खूब पढ़ूँगी। मैं फर्स्स डिवीजन से पास होकर आपको दिखा दूँगी।”

“तब मैं आपको मम्मी कहूँगी, मम्मी।”

“हाँ, कहना।”

दादी-माँ का गला भर आया। बोल नहीं फूट रहे थे। फिर उन्होंने उसे किसी तरह समझा-बुझाकर फोन रखा। फोन रखकर वह उस कमरे से बाहर आकर पति से बोली-

“सुनिए। मुंबई के लिए रिजर्वेशन करा लीजिए। हमारा बच्चा गड़बड़ा रह है।