रूमाल

कहानीकार - शिवशंकर श्रीनिवास “जमुनिया धार'

“आज बड़े साहब का मूड ठीक नहीं है ।”

“क्या हुआ उन्हें ?”

“उनका रूमाल खो गया ।”

“रूमाल ? धत्‌...!” विमल चंद्र ठाकुर को दिलीप सेनगुप्त की बातों पर हँसी आ गई ।

“सच कह रहा हूँ। जाओ न, उन्होंने तुम्हें बुलाया है।” दिलीप सेन ने फिर कहा ।

विमल चंद्र ने सोचा-“रूमाल ऐसी कोई चीज नहीं है, जिसके लिए मूड खराब किया जाय ।” यह बात उसे कुछ अजीब लगी और वह यह सोचकर फिर हँसा ।

“विमल, तुम हँस रहे हो? मैं सच कह रहा हूँ। बड़े साहब ने सचमुच तुम्हें बुलाया है।” कहते हुए वह अपनी सीट पर चला गया ।

दिलीप सेन के जाने के बाद विमल बड़े साहब और उनके रूमाल के बारे में सोचने लगा और इस क्रम में उसे अचानक याद आया कि चार दिन पहले वह बाजार से एक रूमाल लाया था । वह अभी बैग में ही पड़ा होगा । याद आते ही वह चहक उठा । उसने बैग में से रूमाल निकाला और बड़े साहब के चैंबर की तरफ चल दिया ।

बड़े साहब यानी कि उस इलेक्ट्रॉनिक कंपनी के चीफ इंजीनियर, जिस कंपनी में विमल चंद्र काम करते थे। बड़े साहब मैथिल थे। उनका गाँव

विमल चंद्र के गाँव से डेढ़ कोस पश्चिम था। उनका नाम था-जागेश्वर कामत। पहले लोग उन्हें जे.के. साहब कहते थे पर जबसे वे चीफ इंजीनियर बने, तबसे लोग उन्हें बड़े साहब कहने लगे ।

नौकरी के पहले दिन जब विमल चंद्र ठाकुर सहायक अभिय॑ता का पदभार ग्रहण कर सीट पर जाकर बैठे थे, तभी बड़े साहब के अर्दली मो. मुश्ताक आकर बोले थे-“सर, आपको बड़े साहब ने बुलाया है

अर्दली की बात सुनकर विमल चंद्र चौंक गए थे। अभी ठीक से बैठे भी नहीं थे कि बड़े साहब का बुलावा आ गया ।

विमल चंद्र बड़े साहब के चैम्बर में दाखिल हुए। उन्हें हाथ जोड़कर नमस्ते किया और खड़े हो गए। साहब बहुत प्रसन्‍नतापूर्वक आत्मीयता से हाथ मिलाते हुए बोले थे-

“बधाई विमल चंद्र जी! आप अच्छी तरह काम करें और उन्नति करें।? यह बात उन्होंने मैथिली में कहा था। विमल चंद्र ने देखा-बड़े साहब की आँखों में और चेहरे पर अपनत्व का भाव छलक पड़ा था ।

“विमल जी, आपको तो मुझे अपनी भाषा में बात करते सुनकर आश्चर्य हो रहा होगा, किंतु मैं तो आपके आवेदन पत्र के विवरण को पढ़कर पहले ही समझ गया था कि आप मैथिल हैं। वैसे आपके साक्षात्कार के समय किसी तरह की पैरवी नहीं आई थी। आप अपनी योग्यता से इस पद पर पहुँचे हैं ।”

“धन्यवाद सर!” विमल बड़े साहब की साफगोई और अपनत्व से भींग गए थे। बड़े साहब ने उनसे बहुत स्नेह से कई बातें पूर्ठी-गाँव-घर की, परिवार की, बिहार सरकार की और समाज की बातें भी इसी प्रसंग में की। उन बातों में लिपटे लगाव से वे पहले ही दिन बड़े साहब के बहुत करीब आ गए थे ।

समय बीतता गया। विमल बड़े साहब के परिवार के सदस्य की तरह हो गए। यह बात कंपनी के सभी लोग जानते थे पर कंपनी के अनुशासन के मामले में वे बहुत सख्त माने जाते थे। विमल खुद बेहद अनुशासनप्रिय थे। दिलीप सेन की बात सुनकर विमल रूमाल लिये हुए बड़े साहब के

अपनत्व के माधुर्य-रस से ख़ुद को भिंगोते हुए उनके कमरे की ओर जाते हुए बहुत-सी बातें याद कर रहे थे ।

चैंबर में दाखिल होकर उन्होंने बड़े साहब को प्रणाम किया और बैठ गए ।

“क्या हाल है विमल जी?” साहब ने पूछा ।

“मेरा हाल तो ठीक है पर आपको क्‍या हुआ? आज आप कुछ उदास लग रहे हैं ।”

“मेरा रूमाल खो गया।” साहब बोले ।

“रूमाल ?”

" हाँ । "

विमल हँसे। उनकी हँसी में अपनत्व था। बोले, “सर, एक बात बताइए, मैं यह कैसे समझ गया कि आपका रूमाल खो गया ?”

“मतलब?” वे विमल की बात समझ नहीं पाए ।

उसने अपनी पैंट की जेब से नई रूमाल निकाली। उसे मेज पर रखते हुए बोले-

“देखिए सर, मैंने चार दिन पहले ही एक रूमाल लिया था। उसे बैग में रखा। वह उसी में रखा रह गया। दरअसल, उसे आपका रूमाल होना था । ”

रूमाल देखकर बड़े साहब हँसे थे। उनकी हँसी ऐसी थी जैसे विमल ने कोई फूहड़ बात कर दी हो। साहब के चेहरे पर आई ऐसी प्रतिक्रियात्मक हँसी ने उन्हें आश्चर्य में डाल दिया। वे अकचका गए ।

“विमल जी, यह तो बाजारू रूमाल है। मेरा जो रूमाल खो गया है, उसे मेरी पत्नी ने बनाया था ।”

“अब क्‍या करेंगे, सर?” विमल ने खुद को सँभालते हुए कहा ।

“देखिए विमल जी, मेरी पत्नी ने जिस तरह मेहनत कर, मनोयोग से वह खूमाल बनाया, मुझे दिया और आज ही दिया मैंने उसे ही गुम कर दिया, इसका क्‍या मतलब हुआ? मैंने उनके प्रेम को महत्व नहीं दिया ।”

साहब के स्वर में उदासी थी। गहरी उदासी ।

“पर खो तो किसी से भी सकता है ।”

खोने का ही तो दुःख है, विमल जी। आज शाम को जब मैं उन्हें बताऊँगा कि उनके द्वारा मुझे भेंट किया गया रूमाल खो गया है तो उन्हें कितना दुःख होगा! मैं अपनी पत्नी के हर काम को उत्साह से देखता हूँ। मेरा उत्साह उनके जीवन में संगीत भरता है। वे भी मेरे लिए ठीक वैसा ही करती हैं ।

“विमल जी, एक बार का किस्सा बता रहा हूँ। यह किस्सा उन दिनों का है, जब मैं नौजवान था। मैं पटना होते हुए दिल्‍ली आ रहा था। मैं ट्रेन के जिस कूपे में था, उसमें मेरी बगल की सीट पर एक वृद्ध दंपती बैठे थे ।

दोनों का शरीर बहुत कमजोर था। दोनों जैसे-तैसे जीवन की दैनिक क्रियाओं को संपन्‍न कर पाते थे। सबसे ज्यादा आश्चर्यजनक बात यह थी कि पूरे रास्ते वे दोनों एक-दूसरे को सँभालने में लगे रहे ।

एक-दूसरे को सँभालने की इस प्रक्रिया में उनके चेहरे पर कोई तनाव नहीं था बल्कि वे बहुत सहज और प्रफुल्लित थे। दोनों के दांपत्य-प्रेम को देखकर मैं मुग्ध था। हाँ, मेरे मन में यह बात जरूर आती थी कि उन्हें अब इस उम्र में यात्रा पर बाहर नहीं निकलना चाहिए। बनारस से थोड़ा पहले वृद्ध महाशय की आँखें लग गईं। मैंने वृद्धा से कहा-

“आपको अब इस उम्र में बच्चों को साथ लिये बिना बाहर नहीं निकलना चाहिए ।”

मेरी बात सुनकर वृद्धा ने कहा, “जब ये मेरे साथ होते हैं तो मुझे कोई दिक्कत नहीं होती ।”

मैं उनकी बात पर कुछ नहीं बोला, पर मेरे मन में आया कि वृद्ध उनसे भी जर्जर अवस्था में हैं। उनके बीच अनुराग की सघनता पर बहुत कौतूहल हुआ। मैंने सोचा, जब वृद्धा सो जाएँगी तो यही सवाल वृद्ध से भी करूँगा। देखूँ, वे क्या कहते हैं ।

जे संयोग से थोड़ी देर बाद वृद्ध जग गए और उठकर बैठ गए। वृद्धा सो गई । मौका देखकर मैंने वृद्ध से वही प्रश्न किया-“उम्र के इस मोड़ पर

जबकि आप दोनों के शरीर बेहद कमजोर हो रहे हैं, बच्चों को साथ लिये बिना बाहर निकलने में आपको कोई कठिनाई नहीं होती ? ” वृद्ध ने भी वही जवाब दिया-“ये साथ होती हैं तो मुझे कोई कठिनाई नहीं होती।” यह कहते हुए उन्होंने नेह से भींगी दृष्टि से देखते हुए उनकी ओर उँगली से संकेत किया ।

उन्हें भी वैसी ही बात कहते सुन मैं गंभीर हो गया। मुझे गंभीर देखकर वृद्ध हँसे और पूछा-

“आपका घर शहर में है या गाँव में ?”

“गाँव में ।” मैंने उत्सुकता से जवाब दिया। मुझे लगा कि ये कुछ पूछ . रहे हैं ।

“आपने सिर्फ बाँस के सोंगर' पर किसी टाट को खड़े देखा है? अगर सोंगर हटा तो टाट गिर पड़ेगा। दोनों एक-दूसरे को सहारा देकर खड़े रखते हैं। हम दोनों का यही जीवन है।” और यह कहकर वृद्ध उदास नहीं हुए बल्कि आहलाद से हँसने लगे ।

“मैं कह रहा हूँ विमल जी, दांपत्य जीवन का यही अनुराग होता है। मैं उन्हें स्नेह दूँ, उनके काम को महत्व दूँ। वह भी ऐसे ही, मेरे काम को । इतना ही महत्व दें।”

बड़े साहब बोल रहे थे और विमल के मन में उथल-पुथल मची थी। । उसके मन में कई बातें एक साथ आने लगीं ।

सुजाता-उसकी पत्नी, उसके लिए कुछ बनाकर देती-स्वेटर, दस्ताने, रूमाल या मफलर जैसी कई चीजें। वे ये सब चीजें ले लेते, पर उसके लिए कभी सुजाता का उत्साह नहीं बढ़ाते थे। उसके विपरीत वे उस पर बिगड़ते थे कि वह इन सब कामों में क्यों लगी रहती है। कैसी-कैसी सुंदर वस्तुएँ बाजार में बिकती हैं। वे ऐसी ही बातें करते थे ।

उस दिन वे सबेरे छह बजे ड्यूटी पर जाने की तैयारी में थे। उन्होंने मेज पर पत्ते लगे ताजे फूलगोभी का एक फूल रखा देखा। उन्हें अच्छा

नहीं लगा। वे मन-ही-मन सोचने लगे-“सुजाता का गँवईपन अभी तक नहीं गया है।'

रात में जब वे खाना खाने लगे तो सुजाता ने पूछा था-“सब्जी कैसी लगी ??

“मैंने आगे वाले बगीचे में गोभी के पचास पौधे लगाए थे। उन्हीं में से एक काटकर सबेरे ही मेज पर रख दिया था-आपके देखने के लिए, मगर... ।” कहकर वह चुप हो गई थी ।

विमल को अभी उस क्षण की सुजाता की नज़र याद आ रही है। पर उसने उस समय उसकी बातों की परवाह न कर अपनी भावना व्यक्त कर दी थी। तब उसके मन में यह बात आई थी कि वह जैसा सोचता है, वैसा सुजाता नहीं सोचती, और वह...।

सुजाता को अकसर सिर में दर्द होता रहता है और वह उसकी भंगिमा से परेशान रहता है ।

विमल को गत रात्रि की घटना याद आई। देर रात में सुजाता के रोने की-सी आवाज सुनकर वह चौंक उठा था ।

“क्या हुआ?” उसने अकचकाकर पूछा था ।

“सिर में धमक हो रही है। दुःख रहा है।...” वह बहुत मुश्किल से बोली थी ।

“उठा नहीं सकती?” यह कहकर वह उठा और एक टेबलेट और गिलास में पानी लेकर उसे दिया था। यह भी कहा था-

“यह दवा खाकर देखो। अगर आराम नहीं मिलता है तो डॉक्टर को फोन करता हूँ।”

सुजाता उठी थी और गिलास और दवा लेकर बाथरूम की तरफ गई। विमल ने सोचा था कि वह शायद कुल्ला करके दवा खाएगी। जब वह बाथरूम से लौटी तो वह आश्वस्त हो गया था कि उसने दवा खा ली होगी। वह थोड़ी देर तक जगा रहा जब सुजाता ने कहा-“अब सो

जाइए। अब सिर नहीं दुःख रहा है।” तब उसे चैन आया और वह सो गया ।

पर अगले दिन सबेरे जब वह नहाने के लिए गया तो उसने देखा कि गिलास रखने वाली तख्ती पर वही टेबलेट और ग्लास रखा हुआ है तो उसे सुजाता पर बहुत क्रोध आया। वह मन-ही-मन सोचने लगा-“यह विचित्र स्त्री है-ढोंग करने वाली स्त्री ।' पर नहाते-धोते समय वह सुजाता को कुछ नहीं कह सका। वह भूल गया ।

इन सारी बातों को याद कर विमल ने अनुभव किया कि वह सुजाता के साथ रहते हुए भी उसके साथ नहीं है और सुजाता भी... ।

“जाड़े के मौसम में आपके माथे पर पसीना देख रहा हूँ विमल जी! आपकी तबीयत तो ठीक है न!” बड़े साहब ने अपनी बात बीच में ही छोड़कर पूछा था ।

“जी सर, अचानक सिर दुःखने लगा है। मैं घर जाऊँगा।” वह बहुत कठिनाई से बोले थे।

“डॉक्टर को दिखा लीजिए ।”

“नहीं सर, घर जाऊँगा। दवा घर में है ।”

“ठीक है। अभी कंपनी की बस तो नहीं होगी। मेरी गाड़ी से ही चले जाइएगा। फिर भी ठीक न हों तो पत्नी को कहिएगा, मुझे फोन करेंगी।”

“ठीक है, सर।” यह कहकर विमल चल दिए ।

शाम को बड़े साहब की गाड़ी आई। विमल चंद्र पत्नी के साथ फुलवारी में थे। उन्होंने देखा-बड़े साहब अपनी पत्नी के साथ गाड़ी से उतरे ।

विमल और सुजाता खुशी से उनके स्वागत में आगे आए। बड़े साहब ने अपनी पैंट की जेब से रूमाल निकालते हुए कहा-“देखिए विमल बाबू,

मेरा रूमाल मिल गया।”

“मुझे भी मिल गया, सर!”

“वह तो आप पति-पत्नी को हाथ पकड़े खड़े देखकर ही मैं समझ गया था।” बड़े साहब स्नेहिल चुटकी लेते हुए हँस पड़े। साथ ही उनकी पत्नी भी हँस पड़ीं।

विमल और उनकी पत्नी सुजाता लाज से लाल हो गए ।