अपना घर

कहानीकार - शिवशंकर श्रीनिवास “जमुनिया धार'

फकीर झा बेटे के साथ रिक्शे से उतरे। उन्होंने चारों तरफ आँखें फैलाकर देखा-पश्चिम में खेत, उत्तर में खेत, दक्षिण और पूर्व में शहर ।

“वाह, क्‍या दिव्य है! तुम्हारा मकान बहुत अच्छी जगह पर है ।”

बूढ़े फकीर झा के मँड से आहलाद भरा स्वर फूंटा ।

“हाँ पर बाजार दूर हो जाता है।” बेटा बोला ।

“वही तो अच्छा है। बाजार के शोर-शरांबे से दूर है। शहर का शहर और गाँव का गाँव। एक चीज, दो स्वाद-कुछ ऐसा ही।” मजाकिया लहजे में बोलते हुए फकीर झा खिलखिलाकर हँस पड़े ।

पिता की यह बात बेटे को अच्छी लगी। पिता की खुशी से वह भी खुश हुआ और बोला-

“जी, शहर के शोर-शराबे का असर यहाँ नहीं पड़ता ।”

“बाबा आ गए...बाबा आ गए!” घर से बाहर निकल रहे पोता-पोती चहचहा उठे। सभी ने आकर बाबा का चरण स्पर्श किया। उन दोनों के चेहरों पर अद्भुत आनंद था। बच्चों का यह स्नेह पाकर फकीर झा विभोर हो गए ।

सच पूछिए तो उनके आने से पूरा घर महकने लगा था ।

फकीर झा खूब आराम से रहने लगे। उन्हें वहाँ बहुत आदर, मान-सम्मान, बहुत खुशी मिल रही थी। परंतु जो बात उन्हें गाँव में उदास कर देती थी, उसने यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ा। उदासी की वजह उनकी

पत्नी थीं, जो बेटी के पास दार्जिलिंग में रहती थीं । उनके दामाद डॉक्टर थे। वहाँ काफी संपन्‍नता थी । वे वहीं बेटी के पास रहते हुए वहाँ के ठाट-बाट, सुख, ऐश्वर्य भोग रही थी। फकीर झा को यह बात अच्छी नहीं लग रही थी। उन्हें यह बात भले ही अच्छी न लगती हो पर बेटी-दामाद की बहुत इच्छा थी कि वे भी वहीं रहते। फकीर झा तो रहेंगे नहीं। बेटी के घर कैसे रहें ? 'पत्नी वहाँ कैसे रह लेती है” यही सोच-सोचकर वे घुलते रहते थे।

उदास मनःस्थिति में फकीर झा को अपने जीवन के खटूटे-मीठे प्रसंग याद आते रहते हैं। बेटी आरती के बचपन के दिन याद आ रहे हैं। इससे पहले पत्नी का अनुराग याद आता है । दोनों बेटों का बचपन याद आता है ।

यादों की इस भीड़ में फकीर झा कहीं गुम हो जाते हैं।

फकीर झा की तीन संतानें थीं। दो बेटे और एक बेटी । दोनों बेटों में रंजन सबसे बड़ा, उससे छोटा राकेश और संतानों में सबसे छोटी बेटी आरती थी ।

रंजन के जन्म से एक साल पहले उनकी बहेड़ा हाई स्कूल में विज्ञान शिक्षक के पद पर नौकरी लगी। वह बी.एस-सी. थे ।

वह नौकरी करने लगे । घर का मोह त्यागकर वहीं मकान किराए पर ले लिया। करते भी कया? गाँव से रोज आना-जाना संभव नहीं था । वह हर शनिवार गाँव आते थे ।

सोमवार को प्रातःकाल ड्यूटी पर लौटते थे । पत्नी से अलग रहते हुए पहाड़ जैसा दिन काटकर घर लौटते तो पत्नी की दशा की कल्पना कर वह सिहर उठते । फकीर झा को लगता कि उनकी अनुपस्थिति में पत्नी ठीक से खाना भी नहीं खाती होगी, न सोती होगी। यह सोचकर वह दुःखी हो जाते और वे उनका मन बहलाने में लग जाते।

जितने दिन वे घर होते, पत्नी इन्हीं के आस-पास चक्कर काटती। वह हर बार पूछती-“क्या बहेड़े में अकेले आपको अच्छा लगता है?” उन्हें युवा पत्नी के इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं सूझता, पर कुछ कहना जरूर पड़ता था ।

एक बार पत्नी ने वही सवाल किया तो उन्होंने पत्नी से प्रतिप्रश्न किया-“बिना तेल दीपक का क्या हाल होगा, कहो तो ?”

पत्नी ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया-“यही दशा तो मेरी है।”

“नहीं, मेरी है।” फकीर झा तुरंत बोले थे ।

दोनों में इसी तरह हास-परिहास चलता रहा। फकीर झा का कहना था कि पत्नी की अनुपस्थिति में उनका मन दुःखी रहता है । यही बात उनकी पत्नी बोलती थी । वह कहती थी कि पति की अनुपस्थिति में उन्हें दिन पहाड़ जैसे लगते हैं । उसी बार तो पत्नी ने थोड़ी ढिठाई से कहा था-

“मुझे अपने साथ क्‍यों नहीं रखते हैं? अब आपको रखना ही पड़ेगा।”

“माँ ओर चाची यहाँ अकेली कैसे रहेंगी? उन लोगों का गुजर कैसे होगा? क्‍या कोई अन्य बहू है जो उनकी देखभाल करे? तुम अकेली हो तो कष्ट तो उठाना ही पड़ेगा।” वह उपदेशक की भाषा में यह बात कह गए ।

“क्यों? उन लोगों को भी रखेंगे।” पत्नी ने कहा ।

“बहेड़ा जैसे गाँव में इतना बड़ा मकान कहाँ मिलेगा?” वे पत्नी को समझाने का प्रयास करने लगे।

“हाँ...हाँ.... समझ गई। सारा समय अकेलेपन का दुःख काटना...।” यह कहकर पत्नी एकदम गंभीर हो गई। उनकी आँखों में आँसू आ गए पर वह कुछ बोली नहीं थी ।

उन्होंने मौन तो साध लिया था, पर उस मौन से निकल रही पीड़ा का अनुभव कर फकीर झा व्यग्र हो गए थे । उस व्यग्रता से मुक्ति का अन्य कोई राह मिला तो पत्नी को फुसलाने-मनाने में लग गए थे ।

समय बीतता गया। रंजन और राकेश के बाद आरती का जन्म हुआ । आरती के जन्म के बाद पत्नी ने अकेले रहने के दुःख की चर्चा फिर कभी की हो, उन्हें याद नहीं। इतना ही नहीं, उसके बाद से फकीर झा को ऐसा अनुभव होने लगा जैसे पति-पत्नी के बीच दूरी आ गई हो। उन्हें ऐसा लगा जैसे किसी पेड़ की छाल एकदम से अलग हो जाती है, वैसे ही पत्नी उनसे अलग हो गई है ।

यह अनुभव होते ही उन्होंने इस दूरी को पाटने का प्रयास किया था, पर स्थिति और खराब ही होती गई। दरअसल, उनकी पत्नी अपनी बेटी आरती में इतना रम गई थीं कि उन्हें अब पति

की भी वैसी सुध नहीं रही। एक जुड़ाव ने दूसरे जुड़ाव को कमजोर कर दिया ।

दिन-पर-दिन दोनों के बीच का भावनात्मक लगाव कम होता गया । पर उन्होंने संतोष करने के लिए उत्कंठा का एक बीज संजोकर रखा था कि रिटायरमेंट के बाद पति-पत्नी दोनों साथ-साथ रहेंगे । वह उसी संग-साथ की कल्पना कर खुद को बहलाते रहे ।

वे दिन बीत गए। युवा शरीर बूढ़ा हो गया। अब वसंत और शिशिर का उल्लास एक ही पायदान पर खड़ा मिलता । बस, साथ रहने की अभिलाषा। कोई दूसरा साथ न होने की चिंता। दोनों बेटे, रंजन और राकेश अपनी पत्नियों और बच्चों के साथ बाहर ही रहते थे ।

बेटी आरती. डॉक्टर पति के साथ दार्जिलिंग रहती थी। दोनों बेटे इंजीनियर बने और दामाद डॉक्टर थे। लोग कहते थे-मास्टर साहब बहुत भाग्यवान हैं। यह तो वह भी मानते थे, पर वह किसी बेटे-बेटी के घर नहीं रहना चाहते थे। तिस पर बेटी के घर तो बिलकुल नहीं। रिटायर होने से एक महीने पहले ही फकीर झा ने पत्नी को दार्जिलिंग पत्र लिखा था-

में रिटायर हो रहा हूँ। तुम गाँव आ जाओ !

झा जी रिटायर भी हो गए, पर उनकी पत्नी गाँव नहीं आईं ।

जिस दिन वह रिटायर होकर गाँव आए थे, उस दिन घर पर कहीं कोई नहीं था। चारों तरफ सुनसान-साँय-साँय करता अकेलापन। वह अकेलेपन से डर गए थे ।

पत्नी नहीं आई...” सोचते-सोचते उनका मन खंड-खंड हो गया। . एक महीने के बाद फकीर झा को बेटी-दामाद का पत्र आया- आप यहीं चले आइए। हमें भी आप अपनी सेवा का अवसर दें। उन्हें पत्र के अक्षर अच्छे नहीं लगे। पत्नी पर उनका क्रोध बढ़ता गया। वे बड़बड़ा उठे थे-“मैं स्वयं अभी सक्षम हूँ ।”

फकीर झा ने दोनों बेटों को साथ रखकर मैट्रिक तक पढ़ाया था। बेटी हमेशा माँ के पास ही रही और गाँव के स्कूल में पढ़ी। माँ को बेटी के प्रति अजीब-सा अनुराग था। जिस दिन आरती का गौना हुआ और वह ससुराल गई थी, उस दिन उसकी माँ की हालत ऐसी हो गई थी जैसे फूस

की छत पर से उतारी गई कोई लता-सूखी, मुरअझाई-सी। उनकी वह विकल दशा देखकर पति ने प्रस्ताव दिया था-“अब बहेड़ा ही चलो, अब यहाँ अकेली क्‍यों रहोगी ?”

बूढ़ी पत्नी के मुँह पर अनायास हँसी आ गई-“अच्छा, अब बुढ़ापे में जाएँगे ?”

पत्नी की हँसी ने पति को स्तब्ध कर दिया था। उन्हें उस हँसी में छिपी दारुण व्यथा दिखाई दी। उसने उन्हें विचलित कर दिया। उसके कुछ दिन बाद आरती पति के साथ दार्जिलिंग जाने लगी तो वह अपनी माँ को भी अपने साथ ले गई। पति महोदय चाहकर भी पत्नी से कुछ नहीं कह पाए। बेटी के साथ जाने की उनकी तीव्र इच्छा देखकर वह भी उन्हें रोक नहीं पाए ।

वृद्ध फकीर झा को अब कभी-कभी कांग्रेसी काका याद आते हैं, उनकी बातें याद आती हैं। कांग्रेसी काका अपने उदास क्षणों में बार-बार एक बात कहते थे। वह कहते थे-“मनुष्य का मन पानी की धार है। जहाँ ढलान मिली, उधर ही बहने लगता है, और एक बार तालाब में आ जाने के बाद वापस पैड़े की तरफ नहीं बहता ।”

वह उनके बचपन का दौर था। वे बच्चे थे, मगर बहुत ढीठ थे। काका की बात सुनकर वह कह उठे थे-“क्यों? उलीचकर।” काका बोले थे- “कितना भी उलीचो, पानी लौटकर तालाब में ही आएगा। कांग्रेसिया काका उँगली उठाकर जवाब दिया करते थे ।

आज उन्हें कांग्रेसिया काका की वे बातें अधिक याद आ रही हैं। उन दिनों वह काका की बातों का मतलब नहीं समझते थे। पर ज्यों-ज्यों उनकी समझ बढ़ने लगी, उन बातों का सही मतलब समझने लगे। अब वे बातें वास्तविक लगती हैं। अब वह उन बातों का अपने जीवन से तुलना करते हैं। उस दिन पत्नी की वह विरक्त हँसी उनके मर्म को छू गई थी। फिर तो उन्हें लगा कि पत्नी का मन सचमुच बेटी की तरफ बह गया है। हालात के यहाँ तक पहुँच जाने के लिए कई बार वे कहीं-न-कहीं खुद को भी जिम्मेदार मानने लगते हैं। वे खुद को अपराधी मानते हैं।

उन्हें अपनी युवावस्था की याद आती है । साथ रहने के लिए पत्नी की जिद और अपनी स्थिति, अपना व्यवहार याद आता है। आज फकीर झा यह सब सोचते हुए उदास हो जाते हैं ।

रिटायर होने के बाद तीन साल उसी उदासी में बिताए, पर कहीं गए नहीं। इस बार बड़ा बेटा जिद कर पटना ले आया । पटना में भी वे जबसे हैं, उदासी उनका पीछा नहीं छोड़ रही है ।

फकीर झा को बड़े बेटे से दो पोते और एक पोती है। एक पोता दरभंगा मेडिकल कॉलेज में डॉक्टरी पढ़ता है और दूसरा पटना कॉलेज में फर्स्ट इयर में । पोती नवीं कक्षा में है। वह स्वयं सिद्धहस्त विज्ञान-शिक्षक रहे हैं। सेवा-निवृत्ति के तीन साल बाद पढ़ाने का यही मौका मिला। वह खूब उत्साह से पोती को पढ़ाने लगे ।

पोती का नाम सरिता था। जैसा उसका नाम, वैसी उसकी तीव्र बुद्धि । उसकी मेधा बाबा को और उत्साहित करती थी । पढ़ाने के इसी सिलसिले में बाबा का दुलार पोती के नेह में रम गया था। यही बात बाबा की उदासी के बादलों को जैसे चीर रही थी ।

पाँच दिन के बाद फकीर झा के समधी अर्थात्‌ रंजन के ससुर आए । समधी के आने से फकीर झा बहुत खुश हुए। उनकी बातचीत से उन्हें पता चला कि समधी जी किसी काम के सिलसिले में पटना आए हैं और अभी तकरीबन पंद्रह दिनों रहेंगे । खैर, बहुत अच्छा ।

उस दिन फकीर झा को गाँव से आए दस दिन हो गए थे और उनके समधी को भी पाँच दिन हो गए थे । फकीर झा बरामदे में बैठे हुए बहू और समधी अर्थात्‌ बाप-बेटी दोनों की बातें सुन रहे थे ।

समधी थोड़े ऊँचे स्वर में बोल रहे थे-“मेरी आज्ञा है, समधी को अब

कभी यहाँ से मत जाने देना। उनकी जितनी ज्यादा सेवा करोगी उतनी ही प्रसन्नता होगी ।”

“हाँ, वह तो होगी ही। जबसे वे आए हैं तबसे सरिता में पढ़ने की चेतना, प्रेरणा और रुचि बहुत ज्यादा जग गई है।” बेटी बाप से कह रही थी ।

अरे, यह बात तो है। हैं तो वे अद्भुत शिक्षक। बहुत तेजस्वी हैं। अगर गरीबी न होती तो अब तक न जाने कहाँ से कहाँ पहुँचे होते! बड़े आदमी होते और वे तो हैं भी बड़े आदमी। भाग्यवान भी हैं।” समधी बोले थे।

फकीर झा को वे बातें अच्छी नहीं लगीं। उन्हें ऐसा लगा जैसे समधी जी उनकी प्रशंसा नहीं कर रहे हैं, बल्कि उन पर रहम कर रहे हैं। साथ ही जिस दिन से समधी आए हैं, उसी दिन से उन्हें लग रहा है जैसे अपने बेटे के घर नहीं, बल्कि अपनी बहू के घर आए हैं ।

इस घर में उनकी इज्जत होती है फिर भी उन्हें महसूस होता है जैसे वे अपने ही घर में मेहमान हों । पर समधी ? उनकी तो बेटी का घर है। वह अपनी बेटी के घर निस्संकोच आते-जाते हैं । बेटी को अपनी पसंद का खाना बनाने के लिए कहते हैं । साथ ही इनका सम्मान भी कराते हैं । फकीर झा यह महसूस करते हैं कि उनका घर उनका न होकर समधी का घर है।

ऐसे समय में आज उन्हें आरती बेटी याद आती है। वे मन-ही-मन सोचते हैं-“वहाँ वे अपने समधी की तरह रह सकते हैं, उनके मन में यह खयाल आया कि बेटी के घर में वे ज्यादा आराम से रहते। ऐसे किसी की सहानुभूति के पात्र तो न बनते । यह विचार उनके मन में कई बार आता । यह सब सोचते हुए जब वे अपने बारे में सोचते हैं तो उन्हें ऐसे लगता है कि पत्नी पर उनका गुस्सा कम तो हो रहा है, पर खत्म नहीं हो रहा है। वे सोचते हैं उनकी पत्नी भी कैसी है ?

बेटी-दामाद के घर रह रही है। मेरे पास किस चीज की कमी है ?

गाँव में खुद चूल्हा जलाना पड़ेगा। बेटी के घर मेहमान बनी है ।

रिटायर होने के बाद तीन साल तक फकीर झा गाँव में ही रहे । उस दौरान बेटी और दामाद कई बार उन्हें देखने दार्जिलिंग से गाँव आए । उनकी पत्नी भी आती थीं । वे कभी थोड़ी देर उनके पास आकर बैठतीं पर उस बैठने में परायापन था । फकीर झा मन-ही-मन गुस्से से लाल हो जाते थे ।

एक बार स्वयं पर नियंत्रण रखते हुए उन्होंने कहा था-“तुम दामाद के घर पर क्‍यों पड़ी हो ?

हम दोनों एक साथ यहाँ रहकर कितनी शांति से बुढ़ापा काटते !”

पति की बात पर पत्नी ने उत्तर दिया- “पड़ी क्‍यों रहूँगी ?

अपनी कोख से जन्मी बेटी है । हाँ, आपको कष्ट होता है...। और मेरे मन में भी यह बात आती है कि हम दोनों यहीं साथ रहते। पर कुछ दिन और वहाँ रहने दीजिए ।”

फकीर झा को पत्नी की इस बात से दुःख पहुँचा । वे चुप हो गए । एक वह समय था जब उनकी पत्नी जवान थीं और पति से याचना करती थीं-“मुझे अपने साथ रखो।” वे असमर्थता व्यक्त करते और पत्नी दुःखी हो जातीं ।

पत्नी के दुःख की आँच उन तक पहुँचती, पर उनके पास समस्या का हल नहीं था । आज उन्हें लगता है कि वैसी ही पीड़ा उन्हें जला रही है और उन्हें लगता कि वे उस पीड़ा की गर्मी में और भी रम जाएँ। वे तप्त होने लगते ।

उनकी इच्छा होती थी कि स्वयं को और कष्ट दें । उनकी जिंदगी की गाड़ी पलट गई थी । अपनी गलती पर वे खुद को धिक्कारते, प्रताड़ित करते और यहाँ आकर वे पोती के स्नेह में बँध जाते हैं । उनका व्याकुल मन धीरे-धीरे शांत हो रहा था । उन्हें भी इसका भान हो रहा था ।

यही कारण था कि पत्नी के प्रति आक्रोश कम होता जा रहा था ।

आज फकीर झा सवेरे ही सरिता को पढ़ाने के बाद बैठे हैं । रविवार है। स्कूल में छुट्टी है । सरकारी दफ्तर बंद हैं। बच्चे घर पर ही हैं । वे दीवार से तकिया लगाकर पीठ टिकाकर सुखद जीवन की कल्पना में भ्रमण कर रहे हैं । बेटा किसी काम से पटना से बाहर है ।

उनका मन ज्यों-ज्यों पोती के स्नेह में घुलने लगा है, त्यों-त्यों वे सोच रहे हैं-सरिता किस तरह खूब अच्छा पढ़े और अच्छा रिजल्ट लाकर उन्हें दिखाए और वे उस उत्कृष्ट रिजल्ट की खुशी में झूम उठें ।

वे कल्पना लोक में तल्‍लीन थे पर कमरे से आ रहे समधी के स्वर ने उनके कान खड़े कर दिए। समधी अपनी बेटी अर्थात्‌ उनकी बहू से कह रहे थे-

“समधी जी को माँगुर मछली बहुत पसंद है। आज उन्हें वही खिलाओ। अभी समय भी क्या हुआ है। मैं ही ला देता हूँ। आज इसका खर्च भी मैं ही करूँगा ।”

उन्होंने समधी की बात सुनी। कई दिन से ऐसी बातें सुनते आ रहे थे। लेकिन आज की इस बात ने पानी में आग लगा दी। वे मन-ही-मन बड़बड़ा उठे-“घर मेरा और हुकुम चलाएँ ये? ये अपने पैसे से मछली लाएँगे। मैं मेहमान और घर के ये आदमी मुझ पर रहम कर रहे हैं। ऐसे व्यवहार कर रहे हैं जैसे मैं इन पर आश्रित हूँ ।

उनके मन में उथल-पुथल मची है। कई विचार आज-जा रहे हैं। चारों तरफ निगाह दौड़ाते हैं। पास में पोता बैठा है। वे उससे कुछ नहीं कहते। पोती सरिता को आवाज देते हैं।

“कुछ कह रहे हैं बाबा?” पोती खुशी से उछलते हुए आकर खड़ी हो जाती है।

“हाँ, अपनी माँ से कहो कि समय देखकर खाना बनाएँ। अभी बहुत गरमी है। अभी पटुआ का साग पेट के लिए एक अच्छी दवा की तरह है ।

माँ से कहो कि आज पटुआ का साग, भात और आलू का भूुर्ता बनाएँ, और ये रुपये लो और चौक पर से पटुआ का साग ले आओ।

सरिता बाबा के हाथ से रुपया लेकर खुशी-खुशी घर के भीतर चली गई ।