मनुष्य नदी है

कहानीकार - शिवशंकर श्रीनिवास “जमुनिया धार'

ट्रेन मुंबई स्टेशन पर खड़ी हुई ।

गाड़ी से उतरने के लिए यात्रियों की हलचल बढ़ गई ।

श्याम जी भी उतरने के उपक्रम में डिब्बे से बाहर झाँके । उन्हें बेटा हरिकिशोर दिखाई पड़ा। वह डिब्बे के भीतर आ रहा था ।

बेटे को देखकर उनका मन खुश हो गया ।

जब तक वे बैग उठाकर चलते, तब तक बेटा सीट तक पहुँच गया और उनके हाथ से बैग लेकर उन्हें सहारा-सा देते हुए उतारना चाहा पर श्याम जी को किसी सहारे की आवश्यकता नहीं थी ।

वे बोले-“चलो, चलो, मैं उतर जाऊँगा ।”

पिता-पुत्र गाड़ी से उतरे। हरिकिशोर ने बैग रखकर पिता को प्रणाम किया। उसकी आँखों में आँसू आ गए।

“बाबू, आप कैसे हैं ?”

हाँ बौआ, अब ठीक हूँ । क्या कहूँ, आज तीन-चार महीने से मन में आ रहा था जैसे तुम्हारी माँ कह रही हो कि वह चली गई है तो मैं तुम्हें भूल गया हूँ । वह जीवित थी तो तुम्हारी याद आते ही पागलों जैसा व्यवहार करने लगती ।

मुझ पर बिना बात गुस्सा हो जाती कि मैं तुम्हे चिट्ठी-पत्री क्यों नहीं लिखता ।

मैं तुम्हें भूल गया। बताओ भला, संतान को भी कोई भूल सकता है ?

श्याम जी करुणा व प्रसन्नता मिश्रित हँसी हँसते हुए आँखें पोंछने लगे ।

हरिकिशोर डॉक्टर थे। उन्होंने अपनी चिकित्सकीय नजर से पिता की ओर देखा। वे पूर्णतः स्वस्थ और निरोगी दिखाई दे रहे थे ।

वे मन-ही-मन प्रफुल्लित हुए। बोले-“बाबूजी, चलिए।” और वे पिता का बैग उठाकर चल पड़े ।

भीड़ ज्यादा होने के कारण स्टेशन से बाहर आने में देर हो रही थी, पर पिता का थैर्य और शक्ति देख व अनुभव कर मन-ही-मन खुश हुए। उन्होंने देखा कि उनके पिता ने पचासी वर्ष की आयु में भी बड़ी सहजता से ओवर-ब्रिज पार कर लिया ।

न तो उनका दम फूला और न ही उनके चेहरे पर कोई थकान थी, जबकि हरिकिशोर हाथ में बैग लिये सीढ़ी चढ़ते हुए हॉफने लगे थे ।

अब वे खुद भी साठ वर्ष पूरे करने जा रहे थे ।

स्टेशन से निकलकर दोनों कार-पड़ाव पर आए। वहीं ड्राइवर अपनी गाड़ी में उनका इंतजार कर रहा था ।

गाड़ी के पास आते ही ड्राइवर ने उनके हाथ से बैग ले लिया और गाड़ी में रख दिया ।

हरिकिशन पिता से बोले-

“बाबूजी, आप गाडी में बैठिए । मैं अस्पताल से आधा घंटे में लौटता हूँ। कुछ मरीजों को देखना जरूरी है ।”

“और तुम कैसे जाओगे ?”

अस्पताल की गाड़ी है। आप चलिए, मैं आता हूँ ।

जल्दी ही लौट आऊँगा । आपकी बहू को आज देर हो जाएगी ।

उन्हें एक ही ऑपरेशन करना है, फिर भी उन्हें देर हो जाएगी । पिता से यह बात कहते हुए उन्होंने ड्राइवर से गाड़ी बढ़ाने के लिए कहा ।

गाड़ी चल पड़ी। श्याम जी के मन में खयाल आया कि उन्होंने उसके बाल-बच्चों, पत्ती का कुशल-मंगल पूछा ही नहीं ।

पोता कृष्ण पुणे में ही है या कहीं और चला गया । नहीं, वह पुणे में ही होगा । कहीं गया होता तो बेटा जरूर बतलाता ।

छोटी बहू (पौत्र-वधू) को कृष्ण के विवाह के अवसर पर ही देखा था । उसके बाद कहाँ देख सका ।

बौआ इन सबको गाँव ले ही नहीं आते । खुद ही कहाँ आते हैं जो उन लोगों को लेकर आएँगे ?

कृष्ण ऐसे पब्लिक स्कूल में पढ़ा कि हमेशा परिवार में रूई की तरह उड़ता रहा ।

कभी किसी से कोई संबँध नहीं । बेटे ने सब कुछ ख़ुद ही किया । खैर, उसे अच्छा लगता है तो मुझे क्या ?

यही सब सोचते हुए श्याम जी बेटे के घर पहुँचे और चाय पी । नहा-धोकर कमरे से बाहर आए ।

सामने एक निगाह डाली ।

देखा कि आगे बगीचे में एक आया एक अत्यंत सलोने बच्चे को लेकर टहल रही थी ।

वह आया बूढ़ी थी ।

उनके मन में यह सवाल उठा कि वह बच्चा किसका है ।

उन्होंने महादेव को आवाज दी । महादेव बचपन से ही उनके बेटे के घर काम करता है । उसकी तो अब अस्पताल में नौकरी भी लग । गई, फिर भी उन्हीं के घर रहता है । श्याम जी ने हमेशा उसे अपने घर का बच्चा ही समझा । वह भी उन्हें बाबा ही कहता रहा ।

वह आया-“कोई हुकुम, बाबा ?”

“वह बच्चा कौन है ?”

“वह तो अपना ही बच्चा है। कृष्ण जी का बेटा ।” महादेव खुशी मे बोला ।

श्याम जी चौंके-“मेरे कृष्ण का बेटा?”

“जी, आपका पड़पोता हुआ न!”

“हाँ, वह इतना बड़ा हो गया ?”

“जी, साल पूरा होने में चार महीने बाकी हैं। सात महीने, कुछ दिन ही हुए हैं ।”

श्याम जी को घोर पीड़ा व आश्चर्य हुआ ।

इतनी बड़ी खुशी की बात, और उन्हें पता ही नहीं! लेकिन उस समय वे अपने मन में उठी पीड़ा व विस्मय की कैद में न रहकर लगभग दौड़ते हुए फुलवारी पहुँचे ।

बच्चे को लेकर कलेजे से लगा लेने की आतुरता ने उन्हें सहज बनाए रखा । उन्होंने उसे गोद में लेने के लिए दोनों हाथ बढ़ा दिए । बच्चा उनकी ओर टुकुर-टुकुर ताक रहा था । श्याम जी भी बच्चे को देखते हुए विभोर हो रहे थे। उनकी आँखें भर आई थीं ।

बच्चा उन्हें टुकुर-टुकुर ताकते हुए मुस्कराया, पर मुस्कराते हुए रोने लगा ।

आया ने अपनी भाषा में हिंदी मिलाते हुए कहा-“बाबा, बच्चा अभी सोएगा, इसलिए रो रहा है।” श्याम जी समझ गए ।

उन्हें भी लगा कि बच्चा अब सोना चाहता है ।

इसलिए उन्होंने अपने भावों पर नियंत्रण

किया और आया से बोले-“हाँ, इसे सुला दों। आखिर कितनी देर सोएँगे बच्चू? जगेंगे तो कहाँ जाएँगे ? ऐसा कैसे हो सकता है कि अपने परदादा की गोद में न खेलें ?”

आया बच्चे को लेकर कमरे में चली गई और वे वापस उस करेरे में आए, जिसमें ठहरे थे। मन में पैदा हुआ घाव फिर से टीस देने लगा ।

उन्हें बार-बार यह आश्चर्य होता था कि इतनी बड़ी खुशी का समाचार और बेटे ने उन्हें बताया भी नहीं। उन्होंने महादेव की तरफ देखा और पूछा-“महादेव, कृष्ण मोहन यहाँ आया है, यह बात बेटे ने बताया नहीं। क्‍यों ?”

“भूल गए होंगे। वे लोग मुंबई में एक सप्ताह से हैं, पर यहाँ नहीं। होटल में ठहरे हैं।”

“होटल में!”

“हाँ बाबा, बड़े लोगों के लिए क्‍या घर, क्‍या होटल। सुनते हैं कि पति-पत्नी की कुल तनख्वाह दो लाख रुपये प्रति माह है।”

“यह आया ?”

“यह भी होटल में बच्चे को लेकर रहती थी। एक दिन अपनी मैडम ने कृष्ण मोहन जी और छोटी मैडम को डिनर पर बुलाया था। वे लोग आए थे। आज सबेरे कार से इस आया और बच्चे को दे गए हैं। पता नहीं, आगे उनका कया कार्यक्रम है?”

महादेव ने उन्हें ऐसी बात बताई, जिसे वे पचा नहीं पा रहे थे। आँखें मूँदकर लेट गए। पत्नी की याद आई, फिर पिता की, फिर माँ की। याद आए जीवन के बीते पल-राग और अनुराग के। याद आया हरिकिशोर का जन्म।

उनकी ससुराल से हरिकिशोर के जन्म का समाचार लेकर एक नाई आया था । उन्हें अब भी वह दिन अच्छी तरह याद है-वे दालान पर बैठे छोटे मामा को चिट्ठी लिख रहे थे । तभी उन्हें आभास हुआ, जैसे कोई आया है । उन्होंने सिर उठाकर देखा-उस व्यक्ति ने उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया था ।

“अरे ठाकुर, क्या समाचार है?” ससुराल के नाई को पहचान कर उन्होंने पूछा था ।

सब आपलोगों की दया, ओझा जी। आज मैं आपसे ऐसे नहीं मानूँगा।” वह नाई खुशी से खिलते हुए बोला था ।

“ऐसी क्‍या बात है ?”

“यही इनाम-बख्शीश लूँगा ।”

वे उसकी बातों से समाचार का मंतव्य तो समझ गए थे, फिर भी और ज्यादा स्पष्ट समझने के लिए उन्होंने पूछा, “क्या बात है, कहो तो।”

“आपको बेटा हुआ है!”

तभी उनके पिता कमरे से बाहर आए । पिता को देखकर उनके चेहरे पर लाज की एक रेखा दौड़ गई । अपने चंचल होते प्रसन्‍न मन को सायास चिट्ठी पर केंद्रित करने लगे पर ऐसा कहाँ हो पाया ? मन पिता बनने की खुशी से तरंगित हो रहा था ।

“प्रणाम सरकार ।” नाई ने हाथ होड़कर उनके पिता को प्रणाम किया था ।

“किस गाँव के हो?” पिता ने गंभीर होकर पूछा ।

“मुझे नहीं पहचाना आपने? मैं तो यहाँ कितनी ही बार आ चुका हूँ। मैं हजाम, सरकार। बाजितपुर से आया हूँ। सरकार को पोता हुआ है। मालिक ने आपको देने के लिए यह चिट्ठी दी है।”

श्याम जी को सब कुछ याद है। वैसे-का-वैसा। अब उस बात को बीते साठ साल हो गए पर कुछ भी तो नहीं भूले हैं वे। चिट्ठी पढ़ते ही उनके पिता की आँखों में खुशी के आँसू आ गए। उनका गला भर आया था। वाणी अवरुद्ध हो गई थी। किसी तरह वे नाई से इतना ही कह पाए थे-

“ठाकुर, मैं अपने परिवार का पहला व्यक्ति हूँ, जो पोते का मुँह देखूँगा। मेरे पिता नहीं देख पाए थे। सुनता हूँ कि मेरे दादा जी भी यह लालसा लिये ही स्वर्ग सिधार गए। ठाकुर, आज तुम मेरे लिए बहुत खुशी की खबर लाए हो ।”

फिर माता-पिता के मन का प्रसन्नता से तरंगित होना और समय का

उत्सव बनना-श्याम जी को वह सब याद है ।

क्या अपने पोते कृष्ण के जन्म पर स्वयं उन्होंने कम उत्सव मनाया था ? उनकी बहू खुद डॉक्टर है, फिर भी बच्चे के जन्म से दो महीने पहले और जन्म के तीन महीने बाद तक हरिकिशोर की माँ कोलकाता में ही रहीं ।

उस समय हरिकिशोर और उनकी पत्नी कोलकाता में ही नौकरी करते थे और श्याम जी अपने घर पर अकेले थे । वे खुद खाना पकाते थे, खेती का काम देखते थे और तब उन्हें मोहन मिश्र जैसे हेडमास्टर के अधीन हाईस्कूल में क्लर्की करनी पड़ती थी, जहाँ एक मिनट देरी का मतलब गैर-हाजिर होना माना जाता था ।

ओह! क्‍या समय हो गया है !

श्याम जी के मन में ये सारी बातें लहरों की तरह चपल हो उठी हैं । उन लहरों के साथ वे खुद को निरीह भी महसूस कर रहे थे । पर यह स्थिति बहुत देर तक नहीं रही । बेटे पर क्रोध आया, बहू पर आया और पोते कृष्ण मोहन पर भी ।

फिर उनके मन में यह विचार आया कि कृष्ण मोहन पर क्रोध करने का औचित्य क्या है । बेटे ने यह समाचार क्‍यों नहीं दिया ? बहू ही मुझसे यह बात छिपा गई ।

कृष्ण भी यह बात कह सकता था, पर वह क्‍यों कहेगा ?

उस समय तो उसने मा-बाप के कहने पर फोन कर दिया था कि मैं उसके विवाह में आऊँ ।

हो सकता है कि उसके माँ-बाप को मेरे समक्ष कुछ संकोच रहा हो कि मैं शायद केरल की लड़की से उसकी शादी को स्वीकार न करूँ । बेकार की बात ।

मैंने कभी भी उस केरलीय कन्या के जाति-धर्म के बारे में उससे पूछा ही नहीं। मेरे लिए तो बस यही खुशी काफी थी कि वह मेरी पौत्र-वधू होकर मेरे घर आ रही है । श्याम जी यही सब सोचते हुए आँखें बंद किये हुए लेटे थे ।

तभी हरिकिशोर कमरे में आए-

“बाबू!”

“हा!” श्याम जी उठकर बैठ गए ।

“कोई कष्ट? कुछ हो रहा है आपको?” पिता के चेहरे पर दर्द के भाव

देख हरिकिशोर ने उनसे पूछना उचित समझा ।

“हाँ ।”

“क्या ?”

“बहुत कुछ हुआ।” उनकी आँखों में आँसू छलक आए ।

“आप रो क्‍यों रहे हैं?” पिता को रोते देख हरिकिशोर अकचका गए ।

क्यों रो रहा हूँ? अँय, कृष्ण के बेटा हुआ और मुझे खबर भी नहीं ?”

“ओह हो! बात यह हुई कि ज्योतिषी ने किसी को कहने से मना किया था ।”

“ज्योतिषी! बेटा, यह तुम कह रहे हो ?”

“बाबू, जब ज्योतिषी ने यह बात कही तो कुछ-न-कुछ बात तो होगी, इसीलिए किसी से नहीं कहा गया ।”

बौआ, तुम तो डॉक्टर हो। विज्ञान पढ़े हो और तुम्हारी सोच ऐसी है? लोग ठीक ही कहते हैं-यह व्यापार-युग हो गया है ।”

“बाबू, आप इस बात को ऐसे क्‍यों ले रहे हैं ?”

अँय, तुम इसे इतनी हलकी बात समझ रहे हो? ज्योतिषी के मना करने के बाद भी तुम्हें सूचना दी गई किंतु,...तो क्या मुझे बताने के लिए ही ज्योतिषी ने मना किया था?”

“बाबू, आप सचमुच बहुत 'सीरियस” हो गए। आप किसी बात को इस रूप में मत लीजिए।” यह कहते हुए हरिकिशोर उठकर चल दिए ।

श्याम जी ने बेटे को जाते हुए देखा तो आँखें मूँद लीं। दो विपरीत भाव मन को मथ रहे थे-आक्रोश और आनंद । पड़पोते को देखने का आनंद । वे बेटे से उस आनंद का भी जिक्र करते, पर वह आनंद आक्रोश से घिरा था । वैसे वे खुद चाहते थे कि आनंद उनके चित्त में आए, मगर न तो हरिकिशोर ही वह सुनने के लिए बैठे और न ही वे आनंद व्यक्त कर पाए ।

थोड़ी देर बाद महादेव ने खाना परोसकर उन्हें टोका-“बाबा, खाना खा लीजिए ।”

श्याम जी ने आँखें खोलीं और महादेव की ओर देखा। उन्होंने एक बार

तो सोचा कि खाने के लिए मना कर दें, पर ऐसा न कर उन्होंने पूछा- “बौआ खाया ?”

“साहब खाना खाकर सो गए।” उनकी ओर टुकुर-टुकुर देखते हुए बोला। महादेव जैसे उनके हृदय के मर्म को समझ गया ।

“ओह!” श्याम जी इससे अधिक नहीं बोले । उन्हें याद आया-जब वे सपत्नीक यहाँ आते थे तो लाख व्यस्तताओं के बावजूद बेटा उनके साथ ही खाना खाता था ।

पत्नी और बहू बैठी रहती थी और ये दोनों पिता-पुत्र साथ-साथ खाना खाते रहते थे ।

बातें चलती रहती थीं। उस आनंद को याद कर श्याम जी ने सोचा कि यह तो उनकी पत्नी की व्यवहार-कुशलता थी ।

यहाँ की स्त्रियों में परिवार के संबँधों को बाँधकर रखने की अद्भुत कला होती है । उनके मरने के बाद न जाने कितनी बार वे यहाँ आए, पर अब वह बात कहाँ ?

यही सब सोचते हुए उन्होंने खाना खाकर हाथ धोए और बिस्तर पर लेट गए ।

शाम को उनकी नींद टूटी। वे मन-ही-मन हँसे भी ।

कारण, थोड़ी देर तो वे नींद में रहे और उस नींद में वे कृष्ण के बेटे के साथ खेलते रहे । उन्हें खुद पर दुःख हुआ कि क्रोध में रहने के कारण अभी तक कृष्ण के बेटे का नाम भी नहीं पूछ पाए । बच्चे को दुलारने के लिए उनके मन में ममता की तरंगें उठने लगीं। उन्होंने महादेव को आवाज दी ।

“हाँ, बाबा!” महादेव उनके पास आ खड़ा हुआ ।

“सुनो! मेरे पड़पोते को ले आओ। अब उस चुनचुनमा के साथ थोड़ी देर खेलूँगा ।”

“बाबा, वे लोग तो पुणे गए ।”

“कब ?”

“थोड़ी देर पहले ही कृष्णमोहन और छोटी मैडम आई थीं। थोड़ी देर रहे, फिर चले गए।”

“और बौआ (डॉ. हरिकिशोर-बेटा)?”

“साहब अस्पताल गए और मैडम सोई हैं।”

ओह...।” श्याम जी थोड़ी देर गंभीर मुद्रा में बैठे रहे। उनके मन में खयाल आया-

'पहाड़ से अलग-अलग नदियाँ निकलती हैं। सबकी अपनी-अपनी धारा होती है ।

जैसा रास्ता, वैसी नदी की रफ्तार । तो वे क्या कोई पहाड़ हैं, वे तो नदी की धारा हैं!

मनुष्य पहाड़ हो सकता है भला ?

यह सब सोचते हुए उन्होंने महादेव की तरफ देखा । आज उन्होंने महादेव से जुड़ाव और नजदीकी का अनुभव किया। उन्होंने सोचा कि केवल महादेव ही उनकी बात समझ रहा है।

उन्होंने उससे पूछा-

“महादेव, तुम्हारे बच्चे कितने बड़े-बड़े हैं ?”

“एक बच्चा तीन साल का और दूसरी एक साल की बच्ची है।”

श्याम जी के मन में स्नेह की तरंगें उठीं। उन्होंने पूछा-

“महादेव, तुम्हारा घर यहाँ से कितना दूर है?”

“बीस मिनट का रास्ता है।” महादेव ने जवाब दिया ।

“चलो, मुझे अपने यहाँ पहुँचा दो। मेरी इच्छा बच्चों के साथ खेलने की हो रही है। उनका भी बाबा हूँ न ।”

“ऐसा नहीं होगा कि कल चलें ?”

“नहीं, मैं कल गाँव लौट जाऊँगा ।”

“तो चलिए।” महादेव की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था ।