मिट्टी

कहानीकार - शिवशंकर श्रीनिवास “जमुनिया धार'

“मन भटकता रहता है। मैं यूँ ही अकेले घूम रहा था।”

“तो मुझे देखकर खड़े क्‍यों हो गए ?”

मैंने कमलनाथ से पूछा।

“तुम मेरे दोस्त हो न! तुम्हारी आँख का क्‍या हाल है?” उसने पूछा

“मतलब?” मैं चौंका ।

“ऐ भाई, तुम्हारे सिर पर कभी बेल गिरा था ?”

“नहीं। क्यों ?” मुझे आश्चर्य हो रहा था कि कमलनाथ क्‍या कहना चाहता है ।

“तो सुनो। एक बार मेरे सिर पर छोटा बेल गिर पड़ा था। अगर वही बड़ा बेल गिरता तो समझो जय गणेश हो गया होता।

चक्कर-सा आया। मैं गिरने को हुआ। वहीं पड़ी चौकी पर बैड गया। लोग हँसने लगे। मुझे उस हँसी पर क्रोध आते-आते हँसी आ गई पर राजनाथ

काका एकदम चुप थे। वह एकटक मेरी ओर देखने लगे। कुछ नहीं बोले। राम झा ने पूछा-

“काका, कया देख रहे हैं ?” देख रहा हूँ कि भोगी भाई का बेटा कितना अभागा है। इतना बड़ा

हो गया और इसे यह नहीं मालूम कि बेल के पेड़ के नीचे नहीं टहलना चाहिए।” काका बोले ।

“इसमें उसका क्‍या दोष है ?” “अरे भाई, सबकी अपनी ही गलती होती है। “होनी” या संयोग जैसी

कोई बात नहीं होती।” मैंने काका की आँखों में उस समय जो डर देखा तो ऐसा लगा मानो कह रहे हों-“अच्छा हुआ, मरा नहीं।

गनीमत है । और वे उठकर ठंडा तेल ले आए और मेरे सिर पर लगा दिया। बोले-

“क्या करोगे? बेवकूफ हो। बेल के पेड़ के नीचे क्या करने आए थे?” कहकर वे मेरा सिर सहलाने लगे थे। उनके हाथ फेरने से दर्द और बढ़ गया। मैंने कहा भी, “काका, छोड़ दीजिए ।

दर्द बढ़ रहा है।” पर वे बोले, “ठीक हो जाएगा। यह तेल इतना असरदार होता है कि सभी दर्दों का नाश कर देता है। अभी दुकान से लाया हूँ। तुम्हारी काकी के पैर में दर्द होता रहता है, इसीलिए रखता हूँ ।”

मुझे ऐसा लगा, जैसे काका की बातें ईरष्याजन्य कुभाव पर सहानुभूति का लेप लगा रही हो, क्योंकि मैंने उनकी पहले और बाद की बातें सुनी थीं। मैंने उनकी आँखों की ओर देखा ।

मैं डर गया।

ऐसा लगा, जैसे कोई ज्वाला अपनी तपिश से पूस की ठंड में मुझे भीतर-ही-भीतर गरमाते हुए मेरी देह सेंक रही हो । मेरे सिर पर उनका हाथ फेरना मुझे असहज-लगा । मैंने कहा-“छोड़ दीजिए। दर्द होता है ।”

“अच्छा, जब यह तेल दर्द वाली जगह को भिगोएगा तो दर्द ठीक हो जाएगा।” काका अपनी समझ से मुझे तसल्ली देते हुए चलें गए।

काका की उस नजर ने मेरे मस्तक को ऐसे ढक लिया कि क्‍या बताऊँ। वैसे जब तक पत्नी जीवित रहीं, तब तक उस अवरोध को रोके रखा था, पर जब उसकी मृत्यु हो गई तो काका की आँखों का वह भाव फिर जी उठा ।

कमल ने अपनी बात कहकर मेरी तरफ देखा और बोला- “मोहन भाई, तुम मेरी बात नहीं समझे तो सुनो-मेरी पत्नी छह महीने पहले अगहन माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी के दिन मर गई ।

दरअसल, वह छह-सात साल से बेटे-बहू के साथ दिल्ली में रहती थी ।

पोता-पोती है। उन सबके साथ वह खेलती रहती थी। मुझे तो गाँव पर काम से फुर्सत ही नहीं मिलती थी । सात बीघा जमीन मेरे हिस्से में थी । पहले दो जोड़ी बैल थे । बाद में जोतने के लिए हलवाहा मिलने में दिक्कत होने लगी। हलवाहे मिलते नहीं थे ।

तब गाँव में किसी का ट्रैक्टर पकड़ लेता था ।

गाँव में बहुत-से ट्रैक्टर थे। काम लेने वालों की कमी थी । भाड़ा दीजिए, काम कराइए। दो भैंस रखी थी । कोई चरवाहा नहीं था ।

अब चरवाहे मिलते कहाँ हैं ? मैं खुद ही ये सारे काम करता। खूब खटता था । खूब खाता था। खूब सोता था ।

मुझे फुर्सत कहाँ थी जो उनसे बात करता । अब औरतें बेटे या पति के साथ बाहर ही रहती हैं । इसलिए वह गाँव में अकेलापन महसूस कर रही थी ।

“दरअसल, मेरे ससुर आसनसोल में नौकरी कर रहे थे ।

पूरा परिवार वहीं रहता था ।

मेरी पत्नी सेकंड डिवीजन से मैट्रिक पास थी ।

मैं भाइयों में अकेला, सात बीघा जमीन का मालिक और अर्थशास्त्र विषय से ऑनर्स के साथ बी.ए. पास था। मेरे ससुर ने अपनी बेटी की शादी यह सोचकर की थी कि मैं भी नौकरी पर बाहर जाऊँगा ।

पर ऐसा नहीं हो पाया। मेरे पिता की मृत्यु हो गई। मैं गाँव में ही रह गया ।

“समय बीतता रहा ।

मेरा बेटा बड़ा होकर दिल्ली में नौकरी करने लगा । वह भी अपनी पत्नी और बच्चों को लेकर दिल्‍ली आ गया।

उसके बच्चों को पालने-पोसने में मदद करने के बहाने मेरी पत्नी भी दिल्ली चली गई। वह इन्हीं बच्चों में मगन थी। मैं गाँव में अपने काम में मस्त रहता था।

खाना पकाने में भी मुझे ज्यादा समय नहीं लगता था ।

मैं वहाँ मस्ती का जीवन जी रहा था ।

उन छह-सात सालों के दौरान कब मेरी पत्नी का लिवर खराब हो गया, उन्हें पता ही नहीं चला ।

बेटे ने वहाँ उनका इलाज एम्स में कराया। मैंने गाँव से दस लाख रुपये भेजे। मैंने बेटे से कहा था -

"मैं अपनी सारी जमीन-जायदाद बेच दूँगा। करोड़ों रुपये खर्च करूँगा। सुनते हैं कि आजकल लिवर बदला जाता है । बदलवा देना पर कुछ भी कामयाब नहीं हुआ। इतना वक्‍त नहीं मिला ।

मेरी पत्नी बीच में ही चल बसी ।

बेटा उनकी लाश लेकर गाँव आया।

मेरी छाती फट गई पर सभी आपस में कानाफूसी करने लगे कि मैं निर्दयी हूँ ।

मैं पत्ती को देखने दिल्ली नहीं गया। लोगों में मुझे दीन-अनाथ समझकर सहानुभूति दिखाने की प्रवृत्ति बढ़ गई । क्या कहूँ भाई, वह सहानुभूति मुझे असहज कर देती है ।

मुझे ऐसी सहानुभूति दिखाने वालों की आँखें काका की आँखों जैसी लगतीं और मैं ऐसी बातों से विकल हो जाता हूँ ।

इसलिए लोगों से दूर भागता रहता हूँ। यूँ ही घूमता रहता हूँ। देखें, उस इमली के पेड़ में कितने ही विवर-जैसे हो गए हैं । एक भी पत्ता नहीं है । पेड़ सूखा-सा है । ऐसे पेड़ मुझे अच्छे लगते हैं ।

“ऐ, देखो, यह सूखी लखनदेई नदी मुझे अच्छी लगती है । सूखे, सूने पड़े खेत और दोपहर की चैती धूप अच्छी लगती है । ये सब मेरे अपने हैं । सबसे नजदीकी हैं ।

इसलिए मैं इन सबके बीच भटकता रहता हूँ । तुम कह सकते हो कि मैं पगला गया हूँ । पर ऐसा है नहीं। मेरा दिमाग मेरे नियंत्रण में है ।”

मैंने कमल की दास्तान सुनी । मुझे ऐसा लगा जैसे मुझे उसकी हॉ-में-हा मिलाना चाहिए। मैंने कहा-“मुझे भी कभी-कभी ये सब अच्छे लगते हैं ।”

क्यों ? तुम्हारे अंदर भी कोई घाव है ? तुम तो भरे-पूरे दिखाई देते हो ।” कमल ने मुझ पर नजर टिकाकर देखा ।

“हाँ, सबके जीवन में कोई-न-कोई घाव जरूर होता है, जो सिर में अपनी जगह बनाए रखता है । वह कभी मृतप्राय हो जाता है तो कभी हरा हो जाता है ।”

मेरी बात पर वह खुलकर हँसा और बोला-“हा...हा...हा...मोहन भाई । एक बात बताओ, तुम दार्शनिक कबसे हो गए ? वैसे, साहित्यकार थोड़ा-बहुत दार्शनिक तो होता ही है ।”

“हाँ, अब सब कुछ छोड़ दिया है। खेत बटाई पर दे दिया है ।

लोग बटाई पर भी नहीं लेना चाहते । सबके बेटी-बेटा परदेश चले गए हैं ।

आज जो खेती कर रहे हैं, वे सब जब बूढ़े होंगे और मर जाएँगे तो यहाँ के खेत ऐसे ही परती पड़े रहेंगे और कठहँसी हँसते रहेंगे। हाँ, मैं वही कह रहा था और भैंस को बेच दिया ।

किसके लिए करता ?”

“और पहले किसके लिए करते थे ?” मैंने पूछा

“अरे भाई, पहले वह जीवित थी ।” कमलनाथ बोला।

“वह ?”

अरे भाई, पत्नी ।”

“पर तुम खुद कहते हो कि वह बेटे-बहू के पास दिल्ली रहती थीं ” मैंने कहा-“हाँ भाई, रहती तो थी, मगर यह उम्मीद तो बनी रहती थी न कि गाँव आएँगी तो यहाँ की देखभाल करेंगी ।

अब कौन देखेगा ? भूख लगती है तो खाना पकाता हूँ, नहीं लगती है तो घूमता रहता हूँ । खैर अभी छोड़ो ये सब बातें। यह बताओ कि अभी तुम कहाँ जा रहे थे ?”

कमलनाथ ने पूछा । “तुम पहले यह बताओ कि तुम्हें मेरी आँख कैसी लगी ?” मैंने सवात किया ।

मेरी इस बात पर कमल हँसा और बोला-“देखकर असहज नहीं हुआ । चलो बताओ, कहाँ जा रहे हो ?”

“मैं गोरीशंकर स्थान के लिए निकला हूँ ।” मैंने कहा ।

मेरी बात सुनकर वह थोड़ा उदास हो गया।

बोला-“वह तो फूल-बगीचे से भरी-पूरी जगह है ।

वैसी जगह मुझे अच्छी नहीं लगती ।

तब तुम हो। खैर, वहाँ से महादेव कोठी जाओगे ? वह एकदम सुनसान श्मशान है, टूटा-फूटा मंदिस भोलेनाथ की असली जगह।”

मैंने कमल की ओर देखते हुए खुद को सँभाला और कहा - “जरूर जाऊँगा । चलो, पहले गौरीशंकर मंदिर ।” और वह मेरे साथ चुपचाप चल दिया । मुझे लगा कि वह मन-ही-मन कुछ बड़बड़ा रहा था ।

हम दोनों गौरीशंकर मंदिर गए। उसने बिना इधर-उधर देखे मंदिर के बाहर से ही बैठकर शिव-पार्वती को प्रणाम किया ।

मैं मंदिर में भीतर जाकर भगवान, भगवती को प्रणाम कर मंदिर की परिक्रमा की और बाहर आकर उससे बोला-“चलो, अब महादेव कोठी ।”

यह सुनकर वह खुशी से भर उठा । वहाँ पहुँचकर वह हाथ-पैर धोकर शिवलिंग के पास साष्टांग लेट गया । मैं महादेव को प्रणाम कर उसके लौटने की प्रतीक्षा करने लगा ।

थोड़ी देर के बाद वह बोला -

“मोहन भैया, अगर बुरा न मानो तो तुम जाओ। मैं यहाँ से थोड़ी देर बाद जाऊँगा ।”

“ठीक है ।” कहकर मैं वहाँ से चल दिया ।

मेरे मन में एक विचार आया । पहले बाढ़ आती थी । उसमें बहुत-सी नई-नई चीजें बहकर आ जाती थीं । एक बार एक छोटा-सा पौधा बहकर आया ।

किसी वजह से वह पौधा मेरे बगीचे में आकर रुक गया । जब पानी कम हुआ तो उस पेड़ की जड़ मिट्टी में दब गई थी ।

मैंने भी उसकी थोड़ी देखभाल की । वह खूब विकसित हुआ । उसमें अद्भुत, सुंदर, सुगंधित लाल-लाल फूल खिले ।

जो भी इन लताओं और सुंदर लाल फूलों को देखता, खुश हो जाता। मगर उसमें बीज नहीं हुआ, जिससे आगे चलकर पौधे की वंश-वृद्धि होती ।

मुझे अब भी उन फूलों की याद आती है ।

मुझे ऐसा महसूस होता है कि कमल की पत्नी की मृत्यु उसके जीवन में ऐसी ही बाढ़ लेकर आई है ।

आप इस बाढ़ को जो भी नाम दें-करुणा की बाढ़ या और कुछ पर अगर कभी इसका जीवन किसी कारण से स्थिर होगा और मिट्टी से जुड़ेगा तभी इसके जीवन में दोबारा फूलों की बहार आएगी, अन्यथा

दो साल के बाद मैं अपने गाँव के पड़ोस में बसे उसके गाँव देवगंज गया था । अलस्सुबह। वहाँ शीशम का पेड़ देखना था । कमल की याद आई । शीशम का पेड़ देखने उसके घर की तरफ निकला । जब मैं वहाँ पहुँचा तो वहाँ जो दृश्य देखा-विश्वास नहीं कर पा रहा था ।

उसकी बैठक के आगे रंग-बिरंगे फूल लगे थे । उधर दूसरी तरफ हरी सब्जियों का बागान था । एक खूँटे से एक गाय के साथ उसका बछड़ा बँधा था और कमल-वह बगीचे में पानी दे रहा था । मन में कौतूहल उठा-“यह क्या हुआ ?

जो पत्रहीन नग्न गाछ से अपनापन जोड़ता 'हा है, वही कमल फिर से पेड़-पौधों में पानी दे रहा है! असुंदर में अपने को तल्लीन कर देने वाला कमल सुंदरता की पूजा कर रहा है! ऐसा क्‍या हुआ ?

मैं यह सब सोच ही रहा था कि कमल की नजर मुझ पर पड़ी ।

वह मुझे देखते ही चहक उठा और बोला-

“अरे, मोहन भाई, आओ, आओ। स्वागतम्‌...स्वागतम्‌...! बहुत दिनों के बाद आज सूरज इधर उगा है। तुम्हारे जैसा प्रिय व्यक्ति मेरे गाँव आया है।

सच पूछो तो मैं खुद कहीं नहीं जा पा रहा हूँ ।”

“ऐसा क्‍या हुआ?” अपना आश्चर्य छिपाते हुए मैंने पूछा ।

एकदम इतना बदलाव !

“क्या बताऊँ मोहन भाई, मेरी सबसे छोटी बहन थी। उसका नाप पूर्णिमा था ।

वह मुझसे बीस साल छोटी थी । एक दिन उसके सीने पं दर्द उठा और वह इस दुनिया से चल बसी। उसका एक ही बेटा थे और कोई दूसरी संतान भी नहीं थी । उसका नाम दीपक है। क्या सुंदर तेजस्वी बालक है! वह अनाथ हो गया। उसके पिता ने दूसरी शादी का ली ।

इस बच्चे की उपेक्षा होने लगी ।

एक दिन मैं हिम्मत कर उसे देखने गया । बच्चे की देह-दशा और निस्तेज-सा चेहरा देखकर मुझे रोना आ गया । मैं अपना सारा दुःख भूल गया।

उसे अपने घर ले आया । तबसे वह मेरे ही पास रहता है । अच्छी पढ़ाई करता है । दूसरी कक्षा में नाम लिखा दिया है ।

“अब उसी के लालन-पालन में लगा रहता हूँ। यूँ कहो, रम गया हूँ। क्या बतारऊँ, जब वह खुश होकर हँसता है तो मानो चाँदनी रात की रंगोली पर धान का लावा बिखर जाता है । मैं आनंद से विभोर हो उठता हूँ ।” बोलते-बोलते कमल भावुक हो उठा। उसकी आँखें डबडबा गईं । फिर खुद को सँभालते हुए बोला-

“क्या कहूँ! बहन पूर्णिमा याद आ गई । क्या निशछल थी मेरी बहन!”

मेरा मन भी भावुक हो उठा ।

जीवन में कई बार ऐसे क्षण आते हैं जब भाव व्यक्त करने के लिए शब्द कम पड़ जाते हैं ।

कुछ देर के मौन के बाद उसने खुद नीरव वातावरण की जड़ता तोड़ी और बोला-

“उसी के दूध पीने के लिए यह गाय ली ।

काफी गाय को खिलाता-पिलाता हूँ और इन पेड़-पौधों, फूल पर सत प्र हँ। मेरे बगीचे और सब्जियों का बाग देखो । इन सबमें खूब मन लगता है।

“दीपक को खुद ही पढ़ाता हूँ और बच्चे भी पढ़ने आते हैं । भाई आजकल सुख से समय आगे बढ़ रहा है ।” बोलते हुए कमल ने मेरी तरफ देखा और बोला-

अरे, तुम अभी तक खड़े ही हो ? कुर्सी पर बैठों । अभी गाय का दूध दुहा है । तुम्हें ताजा दूध की चाय पिलाता हूँ । इतने दिन पर मिले हो । आज मेरी सब्जी की बगिया से कुछ सब्जी भी लेते जाओ । बहुत स्वादिष्ट है ।” बोलते हुए कमल चाय बनाने चला गया ।

मैंने उसके बाग-बगीचे में चारों ओर नजर दौड़ाई । फूल और सब्जियों की सुंदर छटा ने मन मोह लिया । पत्नी के मरने के बाद कमल की स्थिति मेरी नजर में है ।

बहन की मृत्यु से उसे बहुत बड़ा आघात लगा पर...इस बीच वह अपनी मिट्टी तलाशने में सफल रहा । आज भौॉँजे के प्रति स्नेह का वात्सल्य तरंग उसके चेहरे पर साफ-साफ छलक रहा था ।

याद आया, बाढ़ में बहकर आए उस छोटे-से पौधे की लता, जिसकी जड़ ने मिट्टी पकड़ ली थी और उसमें फूला था लाल-लाल फूल ।

मेरा मन कमल के प्रेम की उस मनोदशा में जैसे गहन रूप से गोते मारने लगा ।

मेरे मुँह से सहसा निकला-“कमल के प्रेम का यह लाल-लाल फूल हमेशा खिलता-फूलता रहे ।” परंतु मन में आया कि कमल से पूछूँ- “बोलो, अब तुम्हें मेरी आँख कैसी लगती है ?”

तभी उन फूलों से आ रही सुगंधित हवा का एक झोंका आया और मेरा मन-प्राण भी सुगंधित कर गया।

तब आप ही बताइए-मैं उससे क्‍या पूछता ?