नदी नहीं उफनी

कहानीकार - शिवशंकर श्रीनिवास “जमुनिया धार'

रूपनी को महसूस होता था जैसे उसकी जिंदगी व्यर्थ हों गई है ।

अठारह साल के बाद उसे ऐसा अनुभव हो रहा था। उसे विधवा हुए भी इतना ही समय बीत गया था ।

वह सत्रह वर्ष की थी, जब उसकी शादी हुई थी ।

शादी हुए अभी एक साल भी नहीं हुआ था कि वह विधवा हो गई ।

उस समय उसके पेट में बच्चा था ।

शादी...पेट में बच्चा...विधवा होना-'आए, छाए, चल दिए' की तर्ज पर यह सब कुछ घटित हो गया ।

पति के श्राद्ध के बाद उसके चाचा उसे ले जाने के लिए आए थे।

जब वह नैहर जाने लगी तो उसकी सास के मुँह से आवाज नहीं निकल रही थी, लेकिन ससुर बोले थे-“क्या बोलूँ बहू, मैं तुम्हें फिस मुँह से रोकूँ ?

अब मैं तुम्हें कैसे रख सकूँगा ? लेकिन जब तुम्हारे कोख का यह फूल तुम्हारी गोद में आए, तब इस बूढ़े-बुढ़िया का ध्यान रखना, इस देहरी को याद रखना ।”

ससुर की इस बात को सुन उसे जैसे काठ मार गया । उनकी आँखों से बहते आँसुओं की धार में वह भी बह गई थी । वे दोनों बच्चे की तरह अबोध और कातर लग रहे थे और रूपनी खुद-जैसे बच्चों की माँ ।

उस पल उसके मन में उनके प्रति अपार ममता उमड़ आई थी ।

एक बार तो उसके मन में आया कि वह नैहर न जाए पर क्‍या बोलती ?

वह चली गई । रूपनी को यह जानकार घोर आश्चर्य हुआ कि उसके पीहर वालों को

उसके पेट में बच्चा होने की बात पसंद नहीं आई।

उन्हें लगा कि रूपनी का गर्भावस्‍था में होना संकट की बात थी । इसकी वजह से रूपनी की कहीं और शादी होने में भी मुश्किल होती। बाद में भी वही मुश्किल थी कि दूसरी जगह शादी होने पर पति दूसरे के बच्चे को साथ रखने के लिए तैयार हो या नहीं ।

वह नैहर वालों की इस सोच से क्षुब्ध हो गई थी ।

रूपनी को बेटा हुआ । उसने कई लोगों के यहाँ बच्चा पैदा होते देखा था । धरती को ऊपर-नीचे होते देखा था पर इसके बेटे का जन्म हुआ तो धरती में थोड़ी सुगबुगाहट भी नहीं हुई । उस समय उसके माँ-बाप का चेहरा उसको राक्षस की तरह प्रतीत हुआ । कहानियों में वर्णित दैत्य-दैत्यिनों की तरह, और वैसे ही वहाँ के लोग भी । ऐसा महसूस होते ही उसके दिमाग में गर्मी-सी चढ़ गई । उसे किसी की बात अच्छी नहीं लगती थी । मिट्टी पत्थर की तरह लगती थी ।

रूपनी नैहर में न रह सकी । वह किसी की बात नहीं सुन सकी । ससुर उसका हाल-चाल जानने आए तो उन्हीं के साथ ससुराल चली आई ।

रूपनी का बेटा थोड़ा बड़ा हुआ तो माँ-बाप ने कई लोगों को उसे लाने भेजा । वे सोचते थे...रूपनी का इतना लंबा जीवन कैसे कटेगा ?

जहाँ-तहाँ लोग भी उसे भरी-पूरी देह और जवानी का वास्ता देते, डराते ।

दुनिया की अजीबोगरीब बात-व्यवहार और सोच से उसे परिचित कराते। वे उसे समझाते कि इस दुनिया के लोग एक अकेली, जवान औरत का जीना मुश्किल कर देते हैं, पर रूपनी किसी की नहीं सुनती ।

एक दिन उसके बाप-चाचा और भाई सब आए। कई तरह से समझाया । कई गाँवों में अच्छे लड़कों के बारे में बताया था, मगर रूपनी पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा । वह जब-जब किसी की बात पर गौर करती, सोचती, तब-तब उसके चेहरे के आगे बूढ़े सास-ससुर की सूनी आँखें आ जातीं ।

बस, वह कुछ भी सोच नहीं पाती थी । वे भी थक गए, रूपनी नहीं थकी । उसने शादी नहीं की । मॉँ-बाप गुस्सा हो गए। नैहर छूट गया। जो भी हुआ, वह अपने निश्चय पर अटल रही ।

पर 'अटल' रहने से उसे क्या मिला ? सास-ससुर मर गए ।

अब घर में दो ही प्राणी रह गए थे-रूपनी और उसका बेटा । बेटे के लिए उसने क्या-क्या नहीं किया । अब तो बेटा ही सहारा था । वही सर्वस्व था । उसी के पालन-पोषण की व्यवस्था में वह चकरघिन्नी की तरह नाचती रहती थी । पसीना बहाती रहती । कभी किसी के खेत में तो कभी किसी के आँगन में काम करती रहती थी ।

अपने अरमानों को बेटे रामशरण में ढालती रहती थी । इन्हीं बातों में पंद्रह साल बीत गए। उसके बाद जीवन में ऐसा भूकंप आया कि उसका मातृ-हदय विदीर्ण हो गया ।

हुआ यह कि रामशरण ने मैट्रिक पास कर लिया था । वह यह सोच ही रही थी कि उसकी आगे की पढ़ाई कैसे हो, कैसे सारा खर्च जुटेगा, तब तक रामशरण ने बड़ा अनर्थ कर दिया । गाँव के ही एक बड़े आदमी की बेटी के साथ भाग गया ।

फिर तो कई बातें हुईं ।

रूपनी के प्रति गाँव वालों का नजरिया बदल गया ।

उसके आसपास का वातावरण कंटकमय हो गया। चारों तरफ उपेक्षा, अवहेलना, असहयोग, द्वेष, शत्रुता का वातावरण हो गया । जीवन दुरूह हो गया। आँखों के सामने आकाश सा शुन्य टैग गया । अब वह कैसे जिए ?

उसे लोगों की चिंता नहीं थी । चिंता थी तो बस अपनी ।

पहले की बात कुछ और थी। पहले मन-मस्तिष्क में बेटा रहता था, उसकी जरूरतें होती थीं ।

कब स्कूल से आएगा ? क्‍या करेगा ? उसे क्या-क्या पसंद है ? कैसे रूठेगा ? कैसे खुश होगा ? वे सारी चिंताएँ बेटे की इस करनी से धूमिल हो गईं ।

उसे हमेशा अपने कलेजे के पास आग की तपिश-सी महसूस हो रही थी । अतः जब कभी वह किसी पल पिछली यादों में विचरती तो जाने कहॉ-कहाँ हो आती । पहले सास-ससुर की जिम्मेदारी थी । फिर बेटे की जिम्मेदारी । वही जिम्मेदारी निभाने में वह लगी रहती ।

जैसे किसी फूस के टाट में लगा सॉंगर टाट को गिरने नहीं देता और सोंगर भी टाट का भार सहते हुए खड़ा रहता है, वैसे ही रूपनी भी ऐसा ही कुछ अनुभव कर रही थी ।

सिर से जिम्मेदारी हट जाने से वह खुद को असहाय-सी अनुभव कर रही थी ।

कब गिर पड़े, कौन जाने ?

ऐसे ही एक दिन वह दोपहर में घर के बरामदे में लेटी हुई आराम कर रही थी । भादो मास अपने अंतिम चरण में था । कभी हवा बहने लगती तो कभी एकदम बंद हो जाती थी। आकाश में बादल आते और धूप-छाँव का खेल चलता । कभी-कभी हलकी बूँदाबाँदी हो जाती ।

रूपनी खुद में ही खोई थी। अपने उस समय के बारे मे सोचते-सोचते उसके जेहन में अपनी दादी का चेहरा उभरा । अब वैसी कलेजे वाली साहसी महिला कहाँ मिलती है ?

एक मर्द के बराबर औरत थी वह । तकली जैसी तनी देह, आवाज में कड़क । किसी की धौंस न सहने वाली दादी । पाँच बेटे-बहू, पोते-पोतियाँ। कुल मिलाकर अड़तीस लोगों का परिवार था। रोटियाँ बनने लगतीं तो ढेर लग जाता था। पूरे घर के लिए भात बनाने के लिए तीन बार चूल्हे पर बर्तन चढ़ाना पड़ता था । इतने बड़े परिवार में कितनी तरह की बातों की संभावना होती थी, पर दादी सभी को काबू में रखती थी ।

एक दिन दादी थकी-माँदी बैठी थी । रूपनी उस समय छोटी थी, पर समझदार थी । वह धीरे से आकर दादी की गोद में बैठ गई । ठकनी की माँ यह देख रही थी । उसे बहुत अच्छा लगा। वह खुशी से हँसने लगी ।

क्यों हँस रही हो बहुरिया ? ये बच्चे ऐसे ही मुझसे चिपके रहते हैं ।” दादी ठकनी की माँ को हँसते देख बोली थी ।

“क्या करोगी काकी? यह भी भाग्य की बात है ।”

“नहीं बहुरिया, इन सबने केंकड़ा बना दिया है ।”

दादी की बात पर ठकनी की माँ क्‍या बोलती? हँसने लगी ।

“हँस रही हो! मैं तो सोचती हूँ--काश! भगवान मुझे चिड़िया बना देता तो उड़कर कहीं चली जाती ।”

दादी की गोद में बैठी रूपनी कभी दादी का मुँह देखती तो कभी ठकनी की माँ का । जब दादी ने चिड़िया वाली बात कही तो उसने तुरंत पूछा-

“दादी, तुम उड़कर कहाँ जाती ?”

“ऐसी जगह जाती जहाँ तुम दोनों से भेंट न हो ।”

“तब तुम किससे बात करती? किसको दुलार करती ?” रूपनी ने दादी की ठुड़डी पकड़ते हुए पूछा था ।

यह सुन ठकनी की माँ जोर से हँसी । हँसते हुए रूपनी की दादी से बोली-

“देखिए, इस लड़की का दिमाग!”

“बहुरिया, यही सब माया तो मुझे छोड़ती नहीं है ।” बोलते हुए दादी ने रूपनी को अपनी छाती से चिपका लिया था । उसकी आँखों से आँसू टपकने लगे थे । आज भी वह दिन उसे वैसे ही याद है । दादी के कलेजे से चिपके होने का आनंद अब कहाँ !

उस क्षण रूपनी को वे दिन याद आ रहे थे । सोच रही थी कि दादी जैसा जीवन, वैसा भरा-पूरा परिवार उस जैसी अभागिन को कहाँ मिलेगा ? वास्तव में दादी भगवान से चिड़िया बना देने की बात कहकर अपने मन को बहला रही थी । वह कहीं क्‍यों जाती ? पर अगर भगवान उसे मिल जाते तो वह उनसे उसे चिड़िया बनाने के लिए जरूर कहती और वह उड़कर वहाँ जाती जहाँ बहुत-से लोग एक साथ मिलते हैं और सभी इसके साथ मिल जाते ।

वे सब उसे अपने नेह से बाँधकर रखते । अपने से दूर नहीं जाने देते । यह सोचते-सोचते रूपनी अपने एकांत में विचरने लगी । उसके मन में न जाने कैसे-कैसे भाव उठने लगे । उसकी पूरी देह पसीने से नहा गई । वह पंखा झलने लगी ।

उसे विराट नगर वाला याद आया । उसके पति का हमउम्र था । जब वह बहू बन इस घर में आई थी तो 'भौजी-भौजी' का शोर मचाए रहता था । तभी से वह विराट नगर में रहता था । वह उसका नाम कैसे लेती ? वह उसे विराट बाबू बोलने लगी । वही विराट बाबू उसे याद आए ।

वह अब विराट नगर से गाँव आया था । उन दिनों वह अविवाहित था । वह वहाँ अकेले रहता है । जब उसे कभी अपने लोगों को देखने की इच्छा होती है तो वह यहाँ भाई-भतीजे को देखने चला आता है । वह भी कभी-कभी वह रूपनी को देखने कई बार यहाँ आ चुका है । वह बातचीत करता है, मगर उसकी आँखें

तभी वर्षा की बूँदें पड़ने लगी थीं ।

उन बूँदों से बचने के लिए मैना

चिड़िया का एक झुंड सूने मकान में चुनमुन करते आकर घूमने लगा धा । चुनमुन की आवाज सुनकर उसने सिर उठाकर देखा । उस समय एक मैना दूसरी मैना की देह को अपने चोंच से सहला रही थी । उस दूसरी मैना ने अपनी देह ढीली छोड़ दी थी और पंख फैलाकर जमीन पर लेट गई थी । पानी की बूँद के साथ मंद हवा का शीतल स्पर्श उन्हें उल्लसित कर रहा था ।

रूपनी को हवा और मैना के खेल का वह दृश्य अच्छा लग रहा था । उसकी अपनी देह में भी ऐसी ही कुछ सुरसुराहट होने लगी थी । तभी विराट बाबू की मजबूत देह और चौड़ी छाती उसकी आँखों के आगे घूमने लगी तभी एक कौआ कोने से थोड़ी दूरी पर उलटाकर रखे हुए टोकरे पर आकर बैठ गया ।

मैना पक्षियों का झुंड फड़फड़ाकर उड़ गया । रूपनी ने पलटकर कौए की ओर देखा । उसके मन में खयाल आया कि अब जहॉ-तहाँ काला कौआ ही मिलता है । देसी कौआ तो अब लुप्त ही हो गया। उसने नजर गड़ाकर देखा । कौए की दोनों आँखें चमक रही थी । वह सोचने लगी कि यह कौआ कैसे उचक्के की तरहकर रहा है । यह अभागा कौआ । उसे अच्छा नहीं लगा। उसने उसे उडा दिया-हा...आ' कौआ उड़कर उत्तरी दिशा वाले करजान के ऊपर से होते हुए चक्कर-सा लगाते हुए चला गया ।

रूपनी की नजर उधर ही गई । उसने देखा कि केले के पत्ते की ओट में दो कचबचिया (एक बहुत छोटी चिड़िया) बैठी थीं । बड़ी चिड़िया अपनी चोंच शिशु कचबचिया के चोंच के पास ले आई। शिशु कचबचिया ने चूँ-चूँ करते हुए मुँह खोल दिया । शिशु-पक्षी के लाल टुह-टुह मुँह का द्वार झक-झक चमकने लगा । तभी बड़ी कचबचिया ने उस बच्चे के मुँह में दाना डाल दिया ।

यह देख रूपनी का मन विकल हो उठा । उसे अपना बेटा रामशरण याद आया । उसे याद आया कि किन-किन मुसीबतों को झेलकर उसने उसे पाला-पोसा ।...उसे और भी कई बातें याद आईं । उसके कलेजे में हूक-सी उठी । आँखें बरसने लगीं । वह उन आँसुओं के जल से भींगती रही ।

तभी रूपनी किसी के आने की आहट पाकर चौंकी । वह हड़बड़ाकर उठ बैठी । माथे पर साड़ी रखी, आँचल ठीक किया । फिर ध्यान से देखा- विराट बाबू ही थे ।

रूपनी उठी और उनके बैठने के लिए आसन ले आई । चटाई उठाकर मोड़कर फूस की दीवार के सहारे खड़ा कर दिया । थोड़ा हटकर बरामदे के पास आ बैठी । आज ऐसा लग रहा था जैसे दोनों के मन में कुछ चल रहा हो । काफी देर तक दोनों के बीच सन्नाटा पसरा रहा । दोनों में से कोई कुछ नहीं बोला । आखिर विराट बाबू ने ही पहल की-

“हाँ, भौजी, तब ?”

जैसे स्थिर जल में कुछ खोजती हुई मछलियाँ स्थिर-सी हो जाए और अगर पानी में कुछ छपाक से गिरने पर बेचैन-सी इधर-उधर होने लगें, वैसे ही रूपनी के अंतस की हलचल भी बढ़ गई । विराट बाबू से यह हलचल छिपी न रह सकी ।

उसने उसे ध्यान से देखते हुए पूछा-

“क्या सोच रही हो ?”

“कुछ नहीं!” रूपनी चौंकती-सी बोली ।

“अरे, मुझसे छिपाती हो? ठगती हो मुझे ?”

“नहीं ।”

दोनों चुप हो गए । दोनों की आँखें मिलीं और उन आँखों में एक चमक-सी आई । दोनों के चेहरों पर लाज की हलकी-सी तरंग दौड़ गई । फिर भी दोनों निःशब्द रहे । थोड़ी देर बाद विराट बाबू ने ही मौन तोड़ा-

“क्या कहूँ, भौजी, पहले शादी नहीं की । नहीं जानता था कि जीवन में इस तरह सूनापन आएगा । अब तो जरा भी अच्छा नहीं लगता यह अकेलापन । मैं अब हार गया हूँ ।” यह सुन रूपनी ने अनायास एक लंबी साँस ली । उसके बाद विराट बाबू बोले-“तुम्हारी जिंदगी तो और भी

रूपनी फिर भी नहीं बोल पाई । फिर दोनों के बीच सन्‍नाटा । थोड़ी देर के बाद उसने विराट बाबू की ओर देखा ।

“कल मैं गाँव चला जाऊँगा ।” विराट बाबू बोले ।

“कल ही ?”

“हाँ, कल ही। तुम भी चलो ।”

जैसे मंद हवा के झोंके से टहनी काँपती है, वैसे ही वह भी भीतर-ही-भीतर काँप उठी । फिर उसने खुद को संयत करने की कोशिश की और बोली-

“विराट बाबू, आप पुरुष हैं। आपको मुझसे अच्छी पत्नी मिल जाएगी ।”

“तुम क्या कम अच्छी हो ? अगर तुम मेरी हो जाओ, तो मैं समझूँगा कि मैं तुम्हारे लिए ही तपस्या कर रहा था और भगवान ने वरदान के रूप में तुम्हें मेरी झोली में दे दिया । तुममें जो खासियत है वह दूसरों में कहाँ है ?”

विराट बाबू की बात सुनकर रूपनी को ऐसा लगा जैसे उसकी देह के नस-नस में भूतही बलान नदी जैसी बाढ़ आ गई हो । सब कुछ बहा ले जाने वाला तीव्र प्रवाह-सा ।

“तो कल चलो न।” विराट बाबू ने जोर दिया ।

“हाँ, अब तो अकेले मुझसे भी रहा नहीं जाता ।”

“तभी तो कह रहा हूँ। कल चलो ।”

“कैसे चलूँ ?”

“लोग कहेंगे-जैसा बेटा, वैसी माँ ।”

“ऐसा क्‍यों ? तुम कोई नाजायज कर रही हो ? नाजायज तो कभी मैंने भी नहीं किया ।” विराट बाबू की इस बात पर रूपनी हँसने लगी । वह ऐसे हँसी, जैसे हाथों से लज्जा झाड़ रही हो । पर ऐसा हुआ नहीं ।

“कब चलना है ?” उसने शरमाते हुए पूछा ।

“तीन बजे वाली ट्रेन से ।”

“नहीं, तब मैं नहीं जाऊँगी।” रूपनी की आवाज में दृढ़ता थी ।

क्यों ?” विराट बाबू को कारण जानने की उत्सुकता हुई ।

“लोग समझेंगे कि हम भागकर जा रहे हैं। जैसा मेरे बेटे ने किया, वही में भी कर रही हूँ । तब क्‍या अच्छा, क्‍या बुरा ?”

“तब ?”

“दिन के उजाले में चलूँगी। ख़ले आम जाऊँगी। ठोक-बजाकर। समाज को जताकर जाऊँगी।”

“तब आठ बजे भोर में ।”

“ठीक है।”

इस बातचीत के बाद विराट बाबू थोड़ी देर बैठे रहो । उन्हें देखने से लग रहा था कि वह यूँ ही बैठे हैं पर वह मन-ही-मन अपना संसार रच रहे थे । उस संसार में प्रसन्‍न मन से फैल रहा था ।

थोड़ी देर बाद वह उठे। वह उठकर तुरंत नहीं चले, बल्कि थोड़ी देर रूपनी की ओर टुकुर-टुकुर ताकते रहे । रूपनी ने विराट बाबू को अपनी तरफ इस तरह देखते देखा तो पूछा, “ऐसे क्‍या देख रहे हैं ?”

“चिकनी मिट्टी की चमक देख रहा हूँ ।” यह कहते हुए विराट बाबू मुस्करा उठे और रूपनी नई-नवेली दुल्हन की तरह शरमा गई ।

उस समय उसे देखकर यह जरूर लगा कि मर्ने नदी उफनेगी, पर नदी उफनी नहीं । उसने अपने प्रवाह का पुराना मार्ग पकड़ लिया था ।

वह उस घर की देहरी पर बहू बनकर आई थी...साल भी नहीं बीता, वह विधवा हो गई । उसके बेटा हुआ, पर बेटे से भी ज्यादा चिंता बूढ़े सास-ससुर की थी । उन दोनों की आँखों की गहरी उदासी ने उसे किसी अन्य भाव की ओर खिसकने ही नहीं दिया । सास-ससुर की मृत्यु के बाद बेटे को पालने-पोसने की चिंता लगी रही । एक जिम्मेदारी का भारी एहसास रहा ।

इन जिम्मेदारियों और चिंताओं के चलते रूपनी का देह-धर्म उस पर हावी नहीं हुआ । अब जब बेटा भाग गया तो तब ग्लानिवश मुँह छिपाती और कुछ सोचने लगी तो जिस कारण उसे अपना जीवन व्यर्थ लगने लगा था उनमें सबसे ज्यादा था-जिम्मेदारियों का खत्म हो जाना ।

उसे लगा कि उसका सिर इतना हल्का हो गया है जैसे हवा में उड़ रही हो ।

वास्तव में जिंदगी की जिम्मेदारियों को निभाना उसकी आदत में शुमार हो गया था तो अब जब जिम्मेदारी ही नहीं तो

जीवन में कया बचा ?

विराट बाबू इससे पहले कई दिन नहीं आए थे । उन्होंने कभी रूपनी से हँसी-मजाक नहीं किया था । इससे पहले जब भी वह कोई बात करते तो उसका विषय उनकी अपनी समस्याएँ होतीं, जैसे ठीक से खाना-पीना न मिलना, बीमार पड़ जाना, देखभाल न हो पाना ।

वह कहते कि ऐसे जिंदगी जीना बहुत मुश्किल हो रहा है । उनकी बातों से यह तो साफ था कि वह किसी सहारे की तलाश में थे । पर ये सब बातें सुनते हुए रूपनी को विराट बाबू की आँखों का रंग दिखाई पड़ता ।

उनकी चौड़ी छाती दिखाई देती, आकर्षक देह दिखाई पड़ती । इन सबसे उसे लगता जैसे मर्ने नदी फिर से जीवित हो उठेगी पर ऐसा कुछ नहीं हुआ । नदी में कोई उफान नहीं आया । आज जब विराट बाबू उससे तन-मन की बात करके गए हैं, तब उसे उसकी मुसीबतों का ध्यान आ रहा था ।

वह सोच रही थी कि वहाँ जाकर और उनके साथ रहकर अपनी फिक्र छोड़कर वह कैसे उनके जीवन को सुखी बनाएगी ? यह सोचते-सोचते वह बहुत दूर चली गई । अपनी कल्पना के संसार में एक-एक तिनका सहेजने लगी थी और वह उसी को सहेजने में मगन थी । तभी बाहर से फुदड़ा के बाबा ने आवाज दी-“दुलहिन हो क्या, दुलहिन ?” बाबा के स्वर से उसकी तल्लीनता टूटी ।

वह हड़बड़ाकर खड़ी हो गई । सिर पर आँचल लिया और चेहरे पर घूँघट-सा निकालते हुए बाहर आई । फुदड़ा के बाबा को देखकर पूछा-

“कुछ कह रहे हैं ?”

“मैं एक अजीब-सी मुश्किल में फँस गया हूँ, बहू ।” फुदड़ा के बाबा अपनत्व भरे स्वर में बोले ।

“क्या? किस मुश्किल में ?”

“देखो न । तुम्हें पता है न, मैंने बड़ी बेटी भवानी को एक अच्छी - सी गाय दी थी । उसको एक बछिया पैदा हुई । गाय तीन लोटा दूध देती है । भवानी कैसी है-पति के साथ कोलकाता चली गई । उसके घर में दूसरा कोई नहीं है । उसने गाय मेरे घर भेज दी।” फुदड़ा बाबा बोले ।

“ठीक तो किया है ।” रूपनी जवाब में बोली ।

“क्या ठीक किया ? अब क्या गाय सँभालना हम बूढ़ें-बुढ़िया के बस का है? जो है, बही नहीं सँभल रहा है ।”

तो क्‍या कीजिएगा ?”

“वही तो । अब गाँव में काम करने वाले कहाँ मिलते हैं!”

“हों, यह तो है..."

“बहू, तुम ही इसे सँभाल लो। गाय पाँच-छह हजार की होगी । तुम्हे तीन हजार में ही दे दूँगा । बेच थोड़े ही रहा हूँ । तुमको देने का मतलब गाय आँखों के सामने रहेगी । गाय दूहने की चिंता मेरी रहेगी । तुम सँभाल लोगी । बेटी, मुझे निश्चित कर दो ।”

फुदड़ा का घर उसके घर से सटा था । रूपनी ने उधर देखा । बछिया खूँटे पर कूद रही थी । बहुत अच्छा लग रहा था ।

“क्या सोच रही हो? चलो न ।” बोलते हुए फुदड़ा के बाबा चल दिए । रूपनी बार-बार गाय के पास जाकर और बछिया को देख वात्सल्य भाव से इतना लबालब भर गई कि कुछ बोल ही नहीं पाई । बाबा के पीछे-पीछे चल पड़ी । जब वह वहाँ पहुँची तो गाय उसे देखकर जोर-जोर से रंभाने लगी । बुढ़िया भी बाहर आ गई ।

गाय को रंभाते देख वह बोली-

“माई रे माई, तुम्हें देखकर गाय ने समझा कि तुम मेरी भवानी ही हो ।”

बाबा पत्नी की बात पर हँसने लगे। यह देख रूपनी को भी हँसी आ गई।

बूढ़े-बुढ़िया ने ऐसा माहौल बना दिया कि गाय रूपनी के दरवाजे पर आ गई।

बाबा ने खुद वहाँ आकर खूँटा गाड़ दिया ।

रूपनी थोड़ी देर गाय को देखती रही और टाट में खोंसा हुआ हँसुआ निकाल लिया । घास काटने लगी । थोड़ी देर में ही उसका घास वाला टोकरा भर गया ।

शाम हो चुकी थी। दीया-बाती कर रूपनी फिर गाय के पास आई और उसे घास खिलाने लगी । पीछे से बछिया उसकी पीठ चाटने लगी । उसकी देह गुदगुदा उठी । उसे अच्छा भी लगा। वह पलटकर पीछे घूमी ।

बछिया को दूलारने लगी । बछिया को दूलाारते समय उसे अपना बेटा याद आया । बेटे के बिछोह की भावना प्रबल हो उठी । वह बिछोह बछिया के दुलार में बदल गया । रूपनी रोने लगी । यह मौन क्रोदन था पर आँखों से लगातार आँसू बह रहे थे ।

सबेरा हुआ। सूर्य थोड़ा और चढ़ा। विराट बाबू आए। उन्होंने रूपनी को बैठे देखा। वह अपने बरामदे में बैठी साड़ी में पैबंद लगा रही थी।

विराट बाबू ने जल्दबाजी दिखाते हुए कहा-"“चलो न। क्या पैबंद लगा रही हो। यह सब लेकर नहीं जाना है। वहाँ विराट नगर के बाजार में तरह-तरह की साड़ियाँ मिलती हैं।"

विराट बाबू थोड़ी देर चुप रहे। वह समझ रहे थे कि रूपनी हल्का-सा मजाक करते हुए कुछ बोलेगी, पर जब रूपनी कुछ नहीं बोली तो विराट बाबू ने याद दिलाया-“तैयार हो जाओ। ट्रेन आठ बजे की है।"

इस बार रूपनी जोर-जोर से साँस लेती हुई और उनकी तरफ देखती हुई बोली-

“विराट बाबू, आप जाइए। मैंने तो शाम को गाय और बछिया ले ली है।”