फर्क

कहानीकार - शिवशंकर श्रीनिवास “जमुनिया धार'

जोखन कामत का मन व्यग्र हो रहा था ।

रत्ती भर भी चैन नहीं था ।

कल बड़े बेटे कामेश्वर ने कह दिया था-“क्या...?

क्या आप हमलोगों का नाक-कान कटाना नहीं छोड़ेंगे ?

आपका बाजार जाना, रस्सी बेचना... आश्चर्य लगता है...।”

उस समय जोखन गरदामी' में फूल लगा रहा था ।

बेटे की बात ने मन की फुनगी पर बैठ मानो पूरी शाख को झकझोर दिया हो । ऐसा लगा जैसे मन के उद्देलन ने उन्हें असंतुलित कर दिया हो । माथे से जैसे भादो की नदी इतराने लगी हो ।

जिस कला के कारण जोखन आस-पास के इलाके में पहचाने जाते थे, जिस कला के बल पर उन्होंने अपना व अपने परिवार का पालन-पोषण किया, प्रगति के पथ का अनुसरण किया, आज उसी कला के कारण बेटे ने उनसे ऐसी बात कही ।

एक दिन जोखन कामत की पत्नी ने डरते-डरते कहा था, या कहें कि आगाह किया था-“एक बात कहूँ...?”

“क्या है? कहो न...?”

“अब बाजार जाना छोड़ दीजिए ।...और हाट ही क्‍यों, रस्सी बाँटना भी छोड़ दीजिए ।”

अँय, तुम भी यही कहती तो? तुमने तो दुनिया देखी है । साथ जिंदगी जिया है...ऊँच...नीच...सब कुछ जानती हो ।”

“मैं नहीं कह रही हूँ। बच्चे बोलते हैं कि लोगों ने उनका बाहर

निकलना दुर्लभ कर दिया है । लोग उनसे कहते हैं-इतना कमाए-धमाए, धन-सम्पत्ति जोड़े । चारों तरफ लोग पहचानते हैं और पिता रस्सी बॉँटकर बाजार में बेचते हैं ।” कहते-कहते बुढ़िया का मन रुआँसा हो गया था ।

जोखन पत्नी की बात सुन व्यथित तो हुआ था पर उसने अपना अपना काम नहीं छोड़ा था ।

जोखन के मन में अपने काम के प्रति काफी सम्मान था । केवल वही नहीं, आस-पास के लोग भी आदर देते थे । उसे इसका गर्व भी था ।

आस-पास के इस इलाके में कुछ चीजें मशहूर थीं, जो आज भी हैं। कई वस्तुएँ भूमि के आधार पर, गाँव के आधार पर तो कुछ व्यक्ति से जुड़कर मशहूर थीं ।

उन वस्तुओं में मशहूर थे-चानी-मानी का पान, बंगहात का मखान, विट्ठो का ताशा, सरिसब का लड़डू, सिजील का चिड़बा, लोहफा का सूप, एकम्बा का नौटंकी और वैसे ही मशहूर था सिनेहिया का सरौता, दरबारी दास का गीत, उमाकांत का नाटक और जोखन कामत की रस्सी ।

कोई सरहदिया बछड़ा खरीदकर लाता तो उसकी इच्छा होती कि इसके गले में जोखन कामत के हाथ की कंठपाश वाली घुँघरू बाँध देता । कमाल की शोभा होती । कोई किसी के खलिहान में सुंदर कराम देखकर पूछता- “क्या फलाँ बाबू, क्या यह जोखन वाला कराम है ?”

“हाँ, जोखन वाला!” लोग खुशी से उत्तर देते । जोखन वाला मतलब जोखन कामत के हाथ का बँटा हुआ ।

“कुछ धूर्त व्यापारी नकली सामान बेचते हैं और कहते हैं-यह जोखन वाला माल है, इस तरह की बातें होतीं । फिर भी पारखी लोग कहते कि जोखन के माल का नकल करना आसान नहीं है ।

उसकी बँटाई ही अलग तरह की होती हे । कितने ही लोग यह दावा करते-“चाहे कितना ही बड़ा गट्ठर क्‍यों न हो, अगर उसमें एक भी जोखन वाली रस्सी मिला दी जाय, फिर भी वह अलग से पहचानी जाएगी ।”

खेती-बाड़ी से जुड़े लोगों के बीच यह कहानी मशहूर थी कि जोखन

कामत की यह कला सपनौती है और उसके बारे में तरह-तरह की कथा-उपकथाएँ गढ़ी गई थीं ।

खैर, जो भी हो, पर जोखन कामत की कला में विलक्षणता थी। उसका यशोगान था ।

वास्तव में जोखन कामत अपनी कला के प्रति समर्पित व्यक्ति था । वह अपनी कला को अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा ध्येय मानता था । जब वह छोटा था, तभी उसके माता-पिता की मृत्यु हो गई थी ।

उसके चाचा ने उसे मवेशी चराने के काम में लगा दिया था । जोखन उस मालिक के घर पर सारे दिन कई तरह के काम करता था । उसका मुख्य काम भैंस चराना था । उसके बाद भैंस की ही विभिन्‍न सेवा। इन सबसे समय बचता तो फूदन झा के दालान पर बैठता था, वह भी दोपहर में, जब काम से थोड़ा समय बच जाता ।

फूदन झा बहुत गुणवान था । वह खेती-बाड़ी के कई तौर-तरीके जानता था । वह दोपहर के समय अकसर रस्सी बॉटता था । अपने लिए भी और दूसरों के लिए भी । जोखन फूदन के पास बैठकर तरह-तरह के रस्सों को बॉटने की कला सीखता ।

एक दिन फूदन झा बहुत प्रसन्‍नता से बोल पड़े-“रे जोखना, तू तो कमाल की रस्सी बाँटेगा । अगर तेरे हाथ में यह कला बनी रहेगी तब तो तुम अँगूठा कटाओगे । आ...आ...सीख, रस्सी बाँटने के और भी तरीके सीख ले ।” और फूदन झा से ही जोखन कामत ने रस्सी बाँटना सीखा । इस कला में जोखन निष्णात हो गया ।

कुछ दिनों के बाद फूदन ने उसे सलाह दी-“रे जोखना, तेरे जैसा दक्ष व्यक्ति व्यर्थ ही चरवाही का काम करता है । तू तो रस्सी बाँट और बाजार में बेच । तेरी सारी गरीबी समाप्त ।”

“ऐसा हो सकता है, मालिक ?” उसने सकुचाते-सकुचाते पूछा था । “हाँ रे, होगा नहीं ? तेरा हाथ तो ईश्वर का वरदान है। तू इतने अच्छे कलात्मक ढंग से, मजबूती से रस्सी बाँटता है कि तू इसी से ढेरों कमाएगा।” और जोखन ने अपने गुरु की बात मान मवेशी चराना छोड़ दिया। अब वह सन की रस्सी बनाने में पूरी तरह रम गया ।

जोखन को आज भी याद है-जब वह पहले दिन बाजार गया था । दक्षिणबारी टोले के वैद्य जी ने उसकी बँटी हुई रस्सी देखकर सारी रस्सियाँ एक साथ खरीद ली थीं और पूछा था-

“किस गाँव के रहने वाले हो...?”

“रूपौली”

“किसके बेटे हो ?”

“मलहू कामत का ।”

“मलहू कामत ?”

“रामलगन उसके बड़े भाई थे ।”

“ओह, अच्छा...अच्छा...। बौआ, कहीं बाहर रहते हो ?”

“नहीं ।”

“यह रस्सी हाथ से ही बाँटे हो ?”

“जी ।

मैंने समझा कि तुम कहीं बाहर रहते हो। मैंने सुना है कि अब रस्सी बाँटने की तरह-तरह की मशीनें आ गई हैं । मैंने समझा कि ये रस्सियाँ भी उन्हीं मशीनों की बँटी हैं । हाथ से इतनी सधी हुई, कुशलता से...वाह... वाह...! जुग...जुग...जियो बेटा!” बोलते हुए बूढ़े वैद्य जी चल दिए ।

वैद्य जी की इस बात से जोखन अदूभुत उत्साह से भर गया ।

उत्साह और आनंद की इसी मनःस्थिति में धीरे-धीरे उसकी कला का विकास होता गया । अब उसकी कलात्मक, मजबूत रस्सियों की लोकप्रियता लोगों में इतनी बढ़ गई कि वह लोगों की माँग के अनुसार रस्सियाँ बना नहीं पाता था । फिर भी जितनी उसकी क्षमता थी, उतना सूत सुतली टकुए पर कातता और फिर उसकी रस्सी बाँटता ।

एक बार उसके पास नारायणपुर के बड़े जमींदार का बुलावा आया- “सरकार ने बुलाया है।” कारिंदे ने कहा

जोखन कामत चल पड़ा नारायणपुर । रास्ते भर वह यही सोचता रहा कि-'पता नहीं, जमींदरवा कया कहेगा... ।

मन में आशंका लिये वह चला जा रहा था ।

'सुनते हैं कि जमींदार बड़ा क्रूर है ।'

जोखन डरते-डरते वहाँ पहुँचा ।

उसके वहाँ पहुँचते ही जमींदार ने कहा-“आओ कामत, देखों, यही दोनों बछड़े सीतामढ़ी से लाये गए हैं । तुम्हें इन्हें सजाना है । तुम तो इनके नस्ल की भी पहचान रखते हो। देखो, पसंद करो...।"

अच्छी तरह जाँच-परखकर जोखन ने कहा था-“जी सरकार, अच्छी नस्ल का है । पानीदार बछड़े हैं ।”

“तुम्हें पसंद आया ?”

“जी, अच्छी चीज किसे पसंद नहीं आएगी ?

“ठीक है । मैंने तुम्हें इसलिए बुलाया है कि तुम दोनों जोड़ों के लिए गरदामी बना दो । यहीं रहो...खाओ, पीओ और बनाओ ।”

“पर टकुआ तो गाँव पर ही है, सरकार !”

“तो क्या हुआ ? ले आना ।” यह कहकर जमींदार साहब चुप हो गए ।

जोखन चुपचाप खड़ा रहा, बोला कुछ नहीं ।

जमींदार साहब जोखन से हँसते हुए बोले थे-“ऐसा लगता है कि तुम्हें गाँव में ज्यादा मन लगता है। ठीक है, गाँव से ही बनाकर ले आना ।” यह कहकर वे थोड़ी देर मुस्कराते रहे...और फिर अपने कमरे में चले गए ।

जोखन वहाँ से गाँव आया और पाँच दिन में अव्वल गरदामी बनाकर जमींदार साहब को देने नारायणपुर के लिए चल पड़ा । गरदामी में उसने ऐसे डिजाइनदार रंगीन फूल लगाए थे, जो देखने में खिले हुए कमल-से लगते थे । रास्ते में उस कलात्मक गरदामी को जो भी देखता, वह मुग्ध हो जाता । जोखन ग्राहकों की निगाह बचाकर वहाँ पहुँचा ।

चारों बछड़ों को गरदामी पहनाये गए । उन बछड़ों के गले में गरदामी पहनाने के बाद जमींदार साहब के मुँह-लगे नौकर ने जाकर उन्हें सूचना दी-“सरकार, बछड़ों को गरदामी पहना दिये गए ।”

जमींदार साहब अपने कमरे से बाहर आए । सभी गंभीर थे । जोखन का पैर काँप रहा था, मानो अब उसकी कला की परीक्षा है । अगर किसी ने उसकी कृति में खोट निकाल दिया तो उसके लिए यह बड़ी चोट होगी ।

जमींदार साहब थोड़ी देर तक गरदामी पहने उन बछड़ों को देखते रहे । फिर अपने दीवान से बोले-“दीवान जी, इसके गाँव में, वह भी इसके घर के पास अपने खेत पड़ते हैं ?”

“बहुत हैं, सरकार ।” दीवान जी आगे आते हुए बोले ।

“ठीक है। जोखन कामत के नाम एक बीघा खेत का चालान काट दो। मेरी ओर से यह इसका इनाम है और मजदूरी में दस पसेरी चावल, उसी हिसाब से दाल और सब्जी अपने कारिंदे के हाथ से भिजवा दीजिए ।”

“जी सरकार!” दीवान जी बोले ।

जमींदार साहब ने जोखन से पूछा-“कहो कलाकार, खुश हो ?”

“जी सरकार” बोलते हुए वह गद्गद हो गया । पुरस्कार और कलाकार शब्द के संबोधन से उसे आदर-सम्मान के एक ऊँचे आसन पर बैठा दिया गया था । उसे इतनी खुशी हुई कि उसकी आँखों में आँसू आ गए ।

इस अवसर के बाद जोखन कामत की कला की प्रसिद्धि चारों तरफ फैल गई। जोखन कामत कला संसार के एक नाम हो गए । अब तो बहुत-से लोग उसे “कलाकार” कहने लगे ।

सच तो यह है कि इस कला के बल पर जोखन को बहुत सम्मान मिला। उसने धन-सम्पत्ति कमाया, परिवार की जिम्मेदारियों का सुचारु रूप से निर्वाह किया ।

वह खुद तो पढ़-लिख न सका, मगर बेटों को पढ़ाया-लिखाया । बड़े बेटे को बी.ए. पास करने के बाद कोसी प्रोजेक्ट में नौकरी मिल गई । छोटा बेटा ज्यादा होशियार था, वह पढ़-लिखकर इंजीनियर बन गया ।

जिन दिनों वह पढ़ रहा था, उन दिनों जोखन सोचा करते थे कि यह छोटा प्रढ़-लिखकर कुछ नया ईजाद करेगा पर कुछ नहीं हुआ । वह नौकरी ही पा सका। मन की इच्छा मन में ही रह गई। वह लोगों से कहता-“वह बाप धन्य है जो बेटे के नाम से पहचाना जाता है, और वह बेटा, जो अंत तक पिता के नाम से ही पहचाना जाए तो समझ जाइए कि उस वंश के बड़प्पन का विकास रुक गया ।”

अपने बेटे के बारे में वह ऐसा ही सोचता था।

वह सोचता था कि वह पढ़-लिखकर संसार के सामने कोई नई जानकारी लाएगा । ऐसा करने से ही उसकी पहचान बनेगी। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ । अधिकांश लोग ऐशो-आराम, मौज-मस्ती करने के लिए पढ़ते और नौकरी करते हैं। उसने भी वही किया । खूब धन कमाया ।

जोखन भी यह अच्छी तरह समझता था कि पेट पालने के लिए इस रस्सी बाँटने के काम में अब खटना जरूरी था पर अब उसका काम उसके लिए आमदनी का साधन मात्र न रहकर उसकी जिंदगी का हिस्सा बन गया था। जीवन, जिसे छोड़कर जी नहीं सकता था, जी नहीं पाता था ।

पहले जब वह कला का मर्म समझने लगा था, अपने काम की संरचना में आनंद लेने लगा तब उसके मन में एक कामना जगी कि वह अपनी यह कला औरों को भी सिखाए । उसने कितनों को सिखाया भी। उसके कितने ही पटु शिष्य भी हुए । लेकिन वह यह देखकर हैरान रहता था कि अब लोगों में हाथ की इस कला के प्रति उत्सुकता कम हो रही थी ।

लोग सभी काम जल्दी चाहते थे। इसीलिए लोग मशीन से सारे काम लेना चाहते थे ।

इस प्रवृत्ति के कारण सहज, नैसर्गिक सुंदरता कम होती जा रही है। जोखन ऐसा ही कुछ अनुभव करता। उसने अपनी यह बात कई लोगों से कही पर कोई उसकी बात ठीक से समझ न सका । अरिपन-सिक्‍की-मौनी जैसी मिथिला की हस्तकलाएँ सम्मानित होने लगीं, तब उसे थोड़ी आस बँधी थी पर उसने फिर देखा कि अब इन कामों में भी व्यापारिक बुद्धि ज्यादा आ गई है तो वह दुःखी रहने लगा ।

इधर बेटे उसे दूसरों के मार्फत इस काम को करने से मना करते- “आप यह काम मत कीजिए ।”

कूटुंब के लोग भी कहते-“आपको किस बात की कमी है !” . जोखन ऐसी बातें सुनकर मन-ही-मन हँस पड़ता । कभी-कभी उसे आश्चर्य होता कि लोग इस वृद्धावस्था में भी उसकी कला की जीवंतता को क्‍यों नहीं समझते हैं ? सभी कुछ पैसे की नजर से क्‍यों देखते हैं ?

कल बड़े बेटे कामेश्वर ने नाक-कान कटाने की बात कही, तबसे उसके मन को चैन नहीं पड़ रहा है।

“वह क्या करेगा...?”

यह सवाल उसके मन को मथने लगा । बस केवल खाएगा-पिएगा...टुकुर-टुकुर ताकता रहेगा ।

ऐसा जीवन जीते हुए अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा करते हुए वह कैसे चैन से जिएगा...।

उसका मन अजीब-सा हो उठा। उसके मन में यह विचार आया कि उसके बेटों ने उसके सामने अपनी कमाई से उसकी कला को ठोकर मार दी हो। उसका शरीर सिहर उठा...।

उससे रहा नहीं गया। उसने बड़े बेटे को बुलाया और कहा-

“सुनो, मैं रस्सी नहीं बाँटता, अपनी जिंदगी जी रहा हूँ । अगर तुम्हारा दिमाग यह बात नहीं समझ पाता तो समझो कि तुममें और मुझमें यही फर्क है । तुम्हारा उद्देश्य केवल धन कमाना है । मेरी यह कला आज भी मेरे लिए मान-सम्मान है, विकास है। सभी लोग अकेले हैं। तुम भी। मैं भी ।

तुम्हारा अपना सुख-दुःख है, मेरा अपना । जैसे शरीर के रोग अपने-अपने, वैसे ही मन का भी अपना-अपना । तुम्हारा जीवन मैं कैसे जी सकता हूँ ? तुम अलग रहो...मुझे भी अलग से जीने दो ।”